लेखक और लेखक के संबंध में :-
सही गलत दों हैं और वास्तविकता एक मात्रता का नाम, इसका मतलब हैं जहाँ सही और गलत हों सकता हैं वहाँ भृम या सत्य की ओर इशारे हों सकतें हैं.. सत्य नहीं! और जहाँ न सही हैं और न ही गलत वहीं का यानी वही हैं सत्य..!
सही अर्थों के अभिव्यक्ति कर्ता की सबसें बड़ी प्राथमिकता/धर्म होता हैं ईमानदारी या सत्यनिष्ठा यानी कि जिसें वह व्यक्त कर रहा हैं उसमें यथावत्ता अर्थात् उसकी वास्तविकता की प्रगटता अतः अभिव्यक्ति में यथावत्ता की समाविष्टि हैं कि नहीं इससें या इस कसौटी से किसी भी पाठक को अभिव्यक्ति की यथा योग्यता की जाँच करना यथा योग्य मुझें समझ आती हैं; अभिव्यक्ति सही हैं या गलत इस आधार पर किसी भी अभिव्यक्ति को जाँचना अज्ञानता मात्र हैं क्योंकि जिसें जिस योग्यता से सही सिद्ध किया जा सकता हैं; उतनी ही योग्यता से वह गलत भी सिद्ध हो सकता हैं क्योंकि जो जितना या जितनें यथा अर्थों में सही हैं उसका उतना ही या उतनें ही यथा अर्थों में गलत भी सिद्ध होना यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर देखें तो वास्तविकता हैं अतः मेरी अभिव्यक्ति में भी क्या सही और क्या गलत देखना हैं तो मेरी अभिव्यक्ति आपके लियें नहीं हैं अखंड मौन भी जो सर्वाधिक अनुकूल अभिव्यक्ति हैं वह भी नहीं क्योंकि यदि आप ऐसा पूर्ण गहरायी से करेंगें तो जानेंगे कि सभी की तरह मैं आपके लियें जितना अनुकूल हूँ उतना ही अनुचित भी और वैज्ञानिक, यथार्थ या जैसा होना ही चाहियें वैसा दृष्टिकोण यदि नहीं भी रहा तो, केवल सकारात्मक दृष्टिकोण रहा तब भी ठीक; आप नकारात्मकता पर ध्यान नहीं देंगे पर यदि नकारात्मक दृष्टिकोण रहा तो आप केवल बुराई देख अपनें अहित का कारण खुद होंगें। अभिव्यक्ति करना आकारिता के आयाम में आता हैं जो कि द्वैत होनें सें दोगलयी तो होंगी हीं अतः होती भी हैं अंततः यदि द्वैत नहीं चाहियें तो अखंड मौन ही समाधान हों सकता हैं क्योंकि वास्तविक आकार रिक्तता यानी परम् या एकमात्र सत्य की अभिव्यक्ति संभव नहीं क्योंकि अभिव्यक्ति के माध्यम् से उसके इशारे मात्र ही संभव हों सकतें हैं।
किसी के भी संबंध में पूरी जानकारी का आभाव; इस बेचारगी की हमारें साथ उपस्थिति होने पर भी.. यदि हम कहनें वालें अर्थात् अभिव्यक्ति देने वालें के संबंध में या वह जो कह रहा है उसकें संबंध में अपनी निर्णायक धारणा बना लेते हैं तो यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण हैं जो कि; जो कह रहा हैं उसकी पूरी बात पर किसी भी अनावश्यक या आवश्यक कारणों वश पर्याप्त ध्यान नहीं दें पाने से स्वाभाविक हैं अतः ऐसा ना हों इसका ध्यान रख लेना जरूरी हैं।
निम्न बात मन के भावनात्म दायरें यानी भावनात्मक आयाम सें हैं अतः यदि ध्यान तुम्हारें मन के भावनात्म दायरें में हों तब ही स्पष्ट हों पायेंगी अतः इसका ध्यान रख लेना ज़रूरी हैं..!
हर कोई प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष या दूर - पास हुआ तो क्या.. हैं तों मुझसें संबंधित हीं; हैं तों मेरे संबंधी हीं.. और संबंधी या संबंध बड़ा हों या छोटा, मेरे लियें तों सब समान ही हैं; मेरे लियें तों हर संबंध; हर संबंधी समान हैं जिससें में सभी से एक सा यानी अनंत अर्थात् असीम प्रेम करता यानी रखता हूँ; मैं चाहूँ तों अभी मुक्ति या मोक्ष को उपलब्ध हों जाऊँ क्योंकि मेरा मुझ पर पूर्ण नियंत्रण हैं जिससें मैं जब चाहें इस भृम या संसार को स्वीकृति को तों जब चाहें तब संसार से मुक्ति को उपलब्ध हों जाऊँ पर मुक्ति अर्थात् मेरे कुछ एकमात्र सर्वश्रेष्ठ उद्देश्यों अर्थात् स्वीकारिता, नियंत्रण और मुक्ति में से एक सें अभी इस समय इस लियें वंचित रह रहा हूँ कि सभी मुझसें संबंधित का सर्वश्रेष्ठ उद्देश्य पूर्ति अर्थात् आत्म नियंत्रण में जरूरी होनें से सहयोग कर सकूँ। मैं प्रेम वश उनकी सहूलियत के लियें हर सम्भव प्रयास करूँ क्योंकि यदि किसी भी कारण वश वह थोड़ी सी भी परेशानी में हैं तो वह मेरी सबसें बड़ी परेशानी हैं; वह यानी उनकी और मेरी परेशानी मुझें चैन से नहीं रहनें देती और मेरी सहूलियत मेरे लियें सबसें अधिक महत्वपूर्ण हैं; मैं बेचैनी में नहीं रह सकता।
मेरी हर अभिव्यक्ति पूर्णतः जितना मुझें जाननें का मार्ग हैं उतना ही तुम्हें खुदकों भी जाननें के लियें किया गया इंतज़ाम हैं इसलियें इस पर पर्याप्त ध्यान दें देना ज़रूरी हैं।
जाननें से हर चीज़ का समाधान हैं अर्थात् तुम्हारी या मेरी हर समस्या का; यह कहना गलत नहीं कि जानना ही समाधान हैं क्योंकि अज्ञानता सभी समस्याओं की जननी हैं; इससें ही हर समस्याओं का आकार हैं; यह सभी आकारों की जननी हैं और समाधान अजन्मा निराकार हैं; वह निराकार जों मेरी हर आकार की निर्मितता अर्थात् अभिव्यक्ति का उद्देश्य हैं। वह निराकार जो मेरी सबसें बड़ी जरूरत या प्राथमिकता की पूर्ति हैं; वह निराकारता जिसमें सभी की और मेरी उद्देश्य पूर्ति हैं; वही निराकार जिसमें सभी की सुकून या सहूलियत अर्थात् मेरे लियें मेरी सभी परेशानियों से मुक्ति हैं।
1 Dec. 2022 At 22:54
यदि चित्त की उपस्थिति समझ के आयाम में नहीं तो एकाग्रता थोथी हैं..!
चित्त की एकाग्रता से यह अर्थ नहीं कि योजगा के किसी एक भाग पर ही सदैव निशाना हों वरन समय और स्तिथि तथा उचितता के आधार पर जब जिस भाग को साधना अनुकूल हों सर्वप्रथम योजना निर्मितता के एक-एक कर हर भाग पर, फिर उसके व्यवहार पर भी कुछ इसी तरह ध्यान को साधा जायें।
3 Dec. 2022 At 22:01
अजन्मा होने से भी वह हैं तो कैसें यह जानना जरूरत रखता हैं।
5 Dec. 2022 At 22:36
वास्तविकता रिक्तता से बड़ी भिन्नता रखती प्रतीत होती हैं; यही भृम हैं और बाकी वही यानी सभी हकीकत..!
6 Dec. 2022 At 05:02
रिक्तता की अन्तिमता ही तों,
मुक्ति की सिद्धि हैं।
अनंतता बिन रिक्तता के,
यानी ही तो बंधन की उपलब्धि हैं।।
नियंत्रण की परम् घटितता,
यह ही पूर्ण शुद्धि हैं।
अनियंत्रितता अर्थात् ही क्योंकि,
परम् अशुद्धि हैं।।
आत्म परिचित्तता में अंधकार,
अर्थात् ही अज्ञानता का कूट हैं।
असहुलियत की व्याप्ति हैं क्योंकि,
‛होना’ स्वयं में एक झूट हैं।।
फिर भी अभिव्यक्ति कर्ता को,
अभिव्यक्ति सप्रेम स्वीकार्य हैं।
अंततः हर आकार में समाविष्टि,
मेरा यथा अर्थरिक्त स्वार्थ त्याग हैं।।
07 Dec. 2022 At 09:46
यदि सहूलियत को नियंत्रित कर लिया जो कि समझ कर के ही किया जा सकता हैं और समय और स्तिथि के अनुरूप ढाल लिया; वह समय और स्तिथी जो कि हमारें ही द्वारा नयें-पुराने हल कियें यथार्थ के गणित के समीकरणों के हल का परिणाम होनें से हैं और हम जैसे अन्य जिनकी सहूलियत हमारी जरूरत हैं भलें ही हम हमारी उस जरूरत की महत्वता की समझ नहीं रखें पर क्योंकि इसमें हमारें लियें श्रेष्ठता हैं तो हमें स्वेच्छा या इसके विपरीत भी पर इससें स्वीकृति करनी ही होंगी इसलियें..! यानी हमारें भाग्य या प्रारब्ध वश है तों सुख-दुःख, पाप-पुण्य आदि सभी से मुक्ति या पृथकता को उपलब्ध हुआ जा सकता हैं; इनसें परें हो जानें से सुख हों या दुःख, पाप या फिर पुण्य सब समान हों जायेंगे जो कि वास्तविकता में समान ही हैं पर द्वैत, संकुचित दृष्टिकोण या आकार यानी भृम वश अलग-अलग प्रतीत होतें हैं। हर कृत्य जितना सुख या दुःख देने वाला हैं ठीक उतना ही दुःख और सुख दाता भी होता हैं; हर कृत्य से जितना पुण्य प्राप्त किया जा सकता हैं पुण्य के साथ उसे करना ठीक उतना ही पाप दाता भी हैं अंततः यदि बात पाप-पुण्य, सुख-दुःख आदि की हैं तों बात आकारिता के आयाम की हैं अतएव दोगलायी या द्वैत तो स्वाभाविक हैं अतः सहूलियत हमारें वश में नहीं होनें से ही समस्या आकार में आती हैं क्योंकि कयी बार संस्कारों वश यह समय और स्तिथि हेतु अनुकूलता से वंचित रह जाती हैं।
07 Dec 2022 At 16:12
जिसका जिस पर जितना कम नियंत्रण वह उतना ही बचकाना।
07 Dec 2022 At 22:35
मैं आकार रिक्तता हूँ जिसकी वामा हैं आकारिता।
16 Dec 2022 At 13:01
यदि मैं आकारिता के आयाम में हूँ यानी आकार हूँ तो जितना अच्छा हूँ उतना ही बुरा पर यदि मैं आकार रिक्तता हूँ तो क्या अच्छा.. क्या बुरा, अर्थात् दोनों ही नहीं यानी यथार्थ की वास्तविक या पर्याप्त गहरायी युक्त सच्चाई वही; जो मेरे परिचय की वास्तविकता।
19 Dec 2022 At 10:02
जड़ता संतान हैं तो चेतना परम् पिता, जड़ता जीवात्मा हैं तो चेतना परमात्मा, जड़ता प्रकृति हुयी तो चेतना अर्थात् पुरुष नें भी उसमें यानी एक मात्रता नें अनेक होकर उसमें वास किया; जड़ता या शक्ति वह थी जिसनें जब परमार्थ सिद्धि के लियें पुरुष को अपनी सबसें बड़ी जरूरत अर्थात् आत्म नियंत्रण से समझौता करना था तो जो चैतन्यता अपनें आधें भाग को उसकी सहुलियत से समझौता नहीं करना पड़े इसलियें पिता, संतान, स्त्री होनें की कुर्बानी के लियें खड़ी हों गयी यही कारण हैं कि परम् पिता अर्थात् परमात्मा जो जितना जड़ता के निकट यानी चैतन्यता से दूर जीवात्मा, संतान, या शक्ति यानी स्त्री हैं, उससें विरह से तड़पन में हैं; परमात्मा जीवात्मा के लियें, परम् पिता संतान के लियें, पुरूष या शिव प्रकृति या शक्ति के लियें महाकरुणावान हैं; अति संवेदनशील हैं..! जीवात्मा, संतान, जड़ता या प्रकृति यानी शक्ति को शिव, परम् पिता, पुरुष यानी शुद्ध चैतन्यता अति आतुरता से बिलक रही; तड़प रही हैं यही कारण हैं कि क्रोध में आकर आकार रिक्तता अर्थात् रूद्र हर आकार यानी प्रक्रिया/जड़ता या फिर सभी उससें निकट को तहस-नहस कर स्वयं में एक यानी आकार रिक्त कर लेता हैं; यह इसकों दर्शाता हैं कि अब बस, अब आकार रिक्तता यानी शुद्ध चैतन्य या शिव अपनें उस भाग के बिना नहीं रह सकता जिस चैतन्यता नें उसके लियें जड़ता तक हो जानें कि कुर्बानी दी।
19 Dec 2022 At 10:25
पुरुष और शक्ति या प्रकृति प्रेम की ऐसी शुद्धता रखनें से वह शुद्धता ही हो गयी अतः वह प्रेम की ऐसी शुद्धता हैं कि उनका संबंध वह सही अर्थों कि मित्रता हैं जो हर संबंधित या संबंध रखने वालों के कर्तव्यों के निर्वहन करनें का सामर्थ्य धारण कियें हुयें हैं और साथी को जरूरत पड़ने पर हर संबंध का निर्वाह करती भी हैं जिससें उनके सर्वश्रेष्ठ अर्थ यानी परमार्थ या परम् जरूरत की पूर्ति सिद्ध हों जायें; जरूरत अनेकता यानी हर आकार का शून्यता यानी आकार रिक्तता से एक हो जानें की; जरूरत अनियंत्रितता की परम् नियंत्रण से एक हों जानें की..।
19 Dec 2022 At 10:29
सही अर्थों का मित्रत्व यानी मित्रता वही जिसमें दोनों ओर से हर संबंध के निर्वहन का सामर्थ्य और निर्वहन भी हों; जिससें परम् यानी दोनों की सर्वश्रेष्ठ जरूरत की पूर्ति हों सकें।
19 Dec 2022 At 10:39
जीवात्मा का एक कदम परमात्मा की ओर तब ही बढ़ पता हैं जब परमात्मा की अपनें अर्धांग से एक कदम दूरी की तड़पन का वह अनुभव कर पाती हैं। सामर्थ्य के आभाव वश जीवात्मा की बेचारगी को परमात्मा समझतें हैं यही कारण हैं कि जब जीवात्मा परमात्मा की ओर एक कदम बढ़ाती हैं, बिना उससें कोई अपेक्षा रखें कि वह भी मेरे जितना ही करें परमात्मा अनंत कदम बडातें हैं।
19 Dec 2022 At 10:54
जब परमात्मा को जानना नहीं हुआ था यानी जब में उसको बेचारगी वश मानता ही था तब भी मैं उसे उतना ही महत्व देता था जितना अभी देता हूँ क्योंकि उसका मन घड़कता या मिथ्या यानी वह झूठ हों तब भी उससें क्योंकि सभी का यानी हर आकार और आकार रिक्तता का भला हैं इसलियें यदि वह नहीं भी हैं तो उसे होना चाहियें। यदि कोई परमात्मा नहीं भी हैं तो उस जैसा क्योंकि हर किसी के लियें जरूरी हैं और झूठ होकर भी हर किसी की असंख्य जरूरत को पूरी कर सकता हैं तो उस झूठ को भी सहर्ष या सहमति से स्वीकार कर लेना उचित समझ में आता हैं क्योंकि जो हैं उसे ही सही मानें और जो भृम हैं उसे गलत यह मेरी इतनी बड़ी प्राथमिकता नहीं जितनीं कि जिसमें सभी मुझसें संबंधित की जरूरत हैं, प्रेम वश जितनी उसें स्वीकारना मेरी प्राथमिकता हैं। क्योंकि मेरे लियें हर मुझसें संबंधित मैं ही हूँ इसलियें मैं किसी की असहुलियत नहीं देख सकता।
19 Dec 2022 At 11:08
मैं जितना सही हूँ उतना ही गलत भी इसलियें हूँ क्योंकि जो किसी को असुविधा दें रहा होता हैं तो असुविधा जिसें हो रही हैं उसके अनुभव के साथ जो असुविधा दें रहा हैं उसकी अनुभूति को भी मैं विवशता वश उपलब्ध हो जाता हूँ अंततः दुविधा देने वाला भी मुझसें उतना ही संबंधित हैं जितना दुविधा को उपलब्ध होनें वाला अतः मैं यह कह सकनें के परिणामस्वरूप समान सही और गलतता को उपलब्ध हूँ कि दुविधा देने वालें के साथ दुविधा देने वाला भी मैं ही हूँ, जिस अन्य का हाथ कट रहा हैं क्योंकि वह मेरी संवेदनशीलता वश मेरा हाथ कट रहा हैं तो जो अन्य उस हाथ को काट रहा हैं वह काटनें वाला हाथ हाथ भी संवेदनशीलता वश मेरा ही हैं।
19 Dec 2022 At 11:37
जो जिसको जैसा समझता हैं वह वैसा ही हों जाता हैं जिससें वह वही हैं भी; बुद्ध नें सही कहा हैं कि जो तुम सोंचते हों एक तरह से वही तुम हों पर एक और सही अर्थ अर्थात् यथार्थ के आधार पर यानी वास्तविकता के आधार पर हर कोई जितना सही हैं उतना ही गलत भी..! इसके बाद भी अज्ञानता वश कोई किसी को केवल सही समझता हैं तो कोई केवल गलत पर मैं तो जितना सही हूँ उतना ही गलत भी इसलियें ही मैं कहता हूँ कि मैं किसी के लायक नहीं; ऐसा जो मेरे समान नहीं उसका साथ होना भी नहीं होनें के बराबर हैं इसलियें मुझें जीवन में किसी का साथ नहीं चाहियें; मुझें ऐसा कोई नहीं दिखता जो जितना सही उतना ही गलत इस वास्तविकता को स्विकारतें के महत्व को समझनें के परिणामस्वरूप सामर्थ्य रखें। किसी को इतनी सी बात समझ; सरल सी बात समझ नहीं आती की श्री राम तक नें अपनें कर्तव्य पालन के लियें वनवास स्वीकारा जिससें वह सही थे पर जितनें सही थे; वह भी उतनें गलत हुयें क्योंकि पिता को बिलकता छोड़ गयें इसलियें गलत भी थें। एक ओर अपनें संसार के हित के लियें बेचारजी वश दूसरी ओर अपनें संसार को छोड़ उसके अहित कर्ता बननें की पीड़ा का वहन किया।
20 Dec. 2022 At 08:18
सही अर्थों के अभिव्यक्ति कर्ता की सबसें बड़ी प्राथमिकता/धर्म होता हैं ईमानदारी या सत्यनिष्ठा यानी कि जिसें वह व्यक्त कर रहा हैं उसमें यथावत्ता अर्थात् उसकी वास्तविकता की प्रगटता अतः अभिव्यक्ति में यथावत्ता की समाविष्टि हैं कि नहीं इससें या इस कसौटी से किसी भी पाठक को अभिव्यक्ति की यथा योग्यता की जाँच करना यथा योग्य मुझें समझ आती हैं; अभिव्यक्ति सही हैं या गलत इस आधार पर किसी भी अभिव्यक्ति को जाँचना अज्ञानता मात्र हैं क्योंकि जिसें जिस योग्यता से सही सिद्ध किया जा सकता हैं; उतनी ही योग्यता से वह गलत भी सिद्ध हो सकता हैं क्योंकि जो जितना या जितनें यथा अर्थों में सही हैं उसका उतना ही या उतनें ही यथा अर्थों में गलत भी सिद्ध होना यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर देखें तो वास्तविकता हैं अतः मेरी अभिव्यक्ति में भी क्या सही और क्या गलत देखना हैं तो मेरी अभिव्यक्ति आपके लियें नहीं हैं अखंड मौन भी जो सर्वाधिक अनुकूल अभिव्यक्ति हैं वह भी नहीं क्योंकि यदि आप ऐसा पूर्ण गहरायी से करेंगें तो जानेंगे कि सभी की तरह मैं आपके लियें जितना अनुकूल हूँ उतना ही अनुचित भी और वैज्ञानिक, यथार्थ या जैसा होना ही चाहियें वैसा दृष्टिकोण यदि नहीं भी रहा तो, केवल सकारात्मक दृष्टिकोण रहा तब भी ठीक; आप नकारात्मकता पर ध्यान नहीं देंगे पर यदि नकारात्मक दृष्टिकोण रहा तो आप केवल बुराई देख अपनें अहित का कारण खुद होंगें। अभिव्यक्ति करना आकारिता के आयाम में आता हैं जो कि द्वैत होनें सें दोगलयी तो होंगी हीं अतः होती भी हैं अंततः यदि द्वैत नहीं चाहियें तो अखंड मौन ही समाधान हों सकता हैं क्योंकि वास्तविक आकार रिक्तता यानी परम् या एकमात्र सत्य की अभिव्यक्ति संभव नहीं क्योंकि अभिव्यक्ति के माध्यम् से उसके इशारे मात्र ही संभव हों सकतें हैं।
20 Dec. 2022 At 19:22
मैं यदि आकारिता के आयाम में हूँ तो मेरा कुछ भी करना सही भी हैं और सही नहीं भी हैं पर मैं जब आकार रिक्तता के आयाम में हूँ तो मेरा कुछ करना न सही हैं और सही नहीं यानी गलत भी नहीं हैं।
आयाम आकारिता का चुनें या आकार रिक्तता का उपरोक्त बात बड़ी सहज हैं पर क्योंकि हमारा आकारिता और आकार रिक्तता दोनों के नियंत्रण में उनसें प्रभावित हों जानें से हों जाता हैं तो हम उस सहज सी बात को समझे रहनें से अपनें ध्यान को खो देते हैं और अज्ञानता वश असहुलियत को साथ बैठें रहनें देते हैं, आकार रिक्तता और आकारिता दोनों को नियमित नहीं रखकर अर्थात् धैर्य फलित संयम खोनें से अनुचित्ता से आलिंगन करकें रहतें हैं।
21 Dec. 2022 At 06:22
जिसनें कहा.. बड़ा ठीक ही हैं! अधिकार अर्थात् कार्यभार दें देना... योग्यता दिख जायें तब तक के लियें ही बस; किसी की भी योग्यता परखनें की सर्वोत्तम कसौटी हैं..।
21 Dec. 2022 At 17:50
In the realm of expression, simplicity and convolution's proportion does not exist.
21 Dec. 2022 At 19:31
यदि औपचारिकता का कूट असलियत को ढक देता हैं और क्योंकि असलियत ही सत्य या सही का दूसरा नाम हैं तो वह सत्य पर अ रूपी आवरण की सहितता करकें असत्य, दिखावियत यानी जलसाझी को जन्म देता हैं तों ऐसी औपचारिकता कभी मर्यादित अर्थात् धर्म नहीं हों सकती क्योंकि धर्म आशय जो करनें योग्य वह ऐसी स्थिति में उसका यानी औपचारिकता का विलोम यथार्थ या यथावत्ता को कहा जायेंगा।
21 Dec. 2022 At 21:12
किसी भी योग्यता के फलस्वरूप, अहम के भाव को ईश्वर के प्रति सौभाग्य फलित कृतज्ञता अनुभूति के रूप में लें लेना ही उसे सही ढंग देना संभव कर लेना हैं।
21 Dec. 2022 At 21:21
दाता से कृतज्ञता पर ध्यान देना अवचेतनत: फलित अहम पर से ध्यान स्थानांतरण के लियें यथा योग्य विकल्प हैं।
21 Dec. 2022 At 21:34
जो द्वैत का भेद जानकर भी उससें स्वीकृति रखता हैं वह सुलझना जान कर भी बार-बार इसलियें उलझता हैं क्योंकि वह महा करुणावान हैं; स्वीकार उसे भी अद्वैत ही हैं पर केवल उसका ही नहीं अपितु हर उससें संबंधित का; फिर चाहें वह उलझे हों या सुलझें..।
22 Dec. 2022 At 11:40
ईश्वर जटिल से जटिल परिस्तिथियाँ उसे ही देता हैं जो उसके नज़रियें में जीवन के खेल में बड़े से बड़ा खिलाड़ी होता हैं अंततः कमल होना हैं तो कीचड़ के मध्य तो रहना ही होंगा।
22 Dec. 2022 At 13:45
स्वीकारिता मेरी वास्तविकता हैं अतः जो भी स्वीकृति के दायरें में आयेंगा, वह मुक्ति ही क्यों नहीं हों मेरा हों जायेंगा।
स्वीकृति स्वयं के साथ मुक्ति को भी स्वीकार लेती हैं वरन मुक्ति स्वीकृति के साथ खुद को भी त्याग देती हैं।
अंततः स्वीकृति हर आकार आयामी और त्याग स्वयं आकार रिक्तता।
23 Dec. 2022 At 07:49
सही-गलत दों हैं और वास्तविकता एक मात्रता का नाम हैं इसका अर्थ हैं जहाँ सही और गलत हैं वहाँ भृम हो सकता हैं; सत्य नहीं..! और जहाँ न सही हैं और न ही गलत; वही का यानी वही हैं सत्य..!
23 Dec. 2022 At 20:41
असहाय होना सबसे बड़ा अधर्म हैं; हाँ मैं सबसें बड़ा अधर्मी हूँ।
23 Dec. 2022 At 21:00
अधार्मिकता की उपस्थिति से निग्रह फलित स्वीकृति, धार्मिकता अर्थात् यथार्थ समर्थता के आवाह्न का यह.. शुरुवाती कदम हैं।
24 Dec. 2022 At 20:31
हमारी वास्तविकता क्या हैं..? जो आँख से दिखता हैं, क्या वो वास्तविकता हैं, जो पाँच इंद्रियों से पता चलता हैं क्या वह वास्तविकता हैं..? वास्तविकता नश्वरता पर आधारित कैसें हों सकती हैं..? इन्द्रियाँ आज हैं कल नहीं अर्थात् यह सदैव नश्वरता को ही हमारी वास्तविकता बतायेंगी यदि इनके आधार पर जानना हैं कि हमारी-आपकी वास्तविकता क्या हैं तो नाश्वरता नहीं तो, हमारी हकीकत और क्या सिद्ध हों सकती हैं..? पर.. जिनके पास बाहरी अनुभव प्राप्त कर्ता आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा तथा कर्म इन्द्रियों की अनुभूति नहीं होती; जो किसी भी कारण वश इनसें होने वालें अनुभव या कृत्य नहीं कर सकतें क्या उनमें जिवत्व अर्थात् जीवन की उपस्थिति नहीं हों सकती..? निःसंदेह उनमें जीवन उपस्थिति हों सकती हैं इससें यह स्पष्ट होता हैं कि जीवन इंद्रियातीत हैं यदि इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हैं तों.. जीवन बाहरी इन्द्रियों से और भी गहरी बात हैं।
24 Dec. 2022 At 20:52
जीवन बहिर्मुखत्व की एक पर्याप्त गहरायी की या उससें संबंधित वास्तविकता हैं..! यह अर्थात् आंतरिक एकमात्र इन्द्रि से संबंधित हैं; यह मन से सम्बंधित हैं। अब मन क्या हैं..? तो बात यदि यथार्थों की हैं तो मन अर्थात् कल्पितता हैं; जो कल्पित या आकारिता के आयाम में उपस्थित हों सकता हैं, वही कल्पितता, कल्पना या आकारिता हैं। स्मृति, तर्क, अंदाजा या अनुमानितता आदी सभी मन के ही अलग-अलग ढंग हैं, जो मन को जान लेता हैं; जो कि केवल मन से ही संभव हैं वह पूरा नहीं पर अपनी वास्तविकता के तीन स्तरीय ज्ञान के भाग दों की गहनता को उपलब्धि लेता हैं।
24 Dec. 2022 At 21:01
मन एक आंतरिक इंद्री हैं अतः इससें संबंधित विज्ञान का वास्तविक अध्ययन स्वयं मन से ही किया जा सकता हैं यानी कोई भी बहिर्मुखी इन्द्रियाँ यदि इसकी वास्तविकता के सत्यापन का कारण बनेंगी तो अपूर्णता का यानी संकीर्णता की अशुद्धि युक्तता का हात लगना ही हैं।
28 Dec. 2022 At 17:19
औपचारिकता के चश्मे को हटा कर.. मन जो अभिव्यक्ति देना चाहें... वह अभिव्यक्ति यदि तुम्हारें मन में हों.. तो ही दों..।
28 Dec. 2022 At 18:27
आपके सामने कोई ऐसा हों, जो कहाँ से आया हों.. वास्तव में कौन हों.. और कहाँ जा रहा हों..? इसका उसे स्वयं के स्तर से प्राप्त.. पर्याप्त प्रमाणित ज्ञान या जानकारी नहीं हों.. तो क्या आप उसे लापरवाह नहीं कहेंगें..?
यदि कहेंगें.. तो क्या हम लापरवाह नहीं हैं..? हम भी तो कहाँ से आयें, वास्तव में कौन हैं और कहाँ पर जा रहें हैं इसका हमें स्वयं के स्तर से प्रमाणित ज्ञान या जानकारी नहीं हैं..।
उपरोक्त प्रश्न अर्थात् हमारी समस्यायें हमसें या हमारें पूर्ण अस्तित्व से संबंध रखनें वाली वह जड़ें हैं जिन्हें हमारा ध्यान रूपी जल उपलब्ध नहीं.. और हमारी अन्य सभी हमसें या हमारें अस्तित्व संबंधित समस्यायें हमारें अस्तित्व रूपी पेड़ की वह टहनियाँ, पुष्प, फल, पत्ते आदि हैं जिन्हें भी हमारें ध्यान रूपी जल की जरूरत हैं।
समस्या यह हैं कि हम हमारें ध्यान रूपी जल को अधीरता वश वहाँ देते हैं जहाँ देने से कोई फायदा नहीं यानी हमारी अन्य सभी हमसें या हमारें अस्तित्व संबंधित समस्याओं पर जो कि हमारें अस्तित्व रूपी पेड़ की वह टहनियाँ, पुष्प, फल, पत्ते आदि हैं जो कि ध्यान रूपी जल से वंचित हैं।
समाधान यह हैं कि हम हमारें ध्यान रूपी जल को धैर्य और संयम फलित समझ के परिणाम स्वरूप उपरोक्त प्रश्न अर्थात् हमारी समस्यायें हमसें या हमारें पूर्ण अस्तित्व से संबंध रखनें वाली वह जड़ों में दें जिन्हें हमारा ध्यान रूपी जल उपलब्ध नहीं।
29 Dec. 2022 At 18:25
हम कहाँ से आयें हैं, कौन हैं और कहाँ जा रहें हैं यह और इसी तरह के सभी प्रश्न हमारें अस्तित्व के जड़ संबंधित हैं और अन्य सभी प्रश्न जैसे कि हमारें संबंधित कष्ट में क्यों हैं, हम क्यों कष्ट में हैं आदि इत्यादि सभी हमारें अस्तित्व रूपी पेड़ की टहनी, पत्ते, फूल आदि संबंधित...
स्तिथि विशेष जैसें कि कष्टो या दुःखो के समय हम यानी हमारा ध्यान हमारी या दूसरों की पीड़ा दायक स्मृतियों में कभी फसता हैं तो कभी सहूलियत हेतु चेष्ठा पूर्वक भाव-विचार शून्य हों जाता हैं जिससें हमारें द्वारा हमारा ध्यान हमारें अस्तित्व की जड़ छोड़ अन्य जगहों पर चाह कर या न चाहतें हुयें भी अटक जानें से हमारें अस्तित्व की जड़ यानी कि हमारी हर समस्याओं के समाधान को उपलब्ध नहीं हों पता।
30 Dec. 2022 At 16:47
ध्यान पर अनियंत्रितता ही खुद पर से खुद का अनियंत्रण हैं; यह बताता हैं कि ध्यान साधना क्यों सभी की सबसे बड़ी और पहली प्राथमिकता होनी चाहियें।
30 Dec.2022 At 18:26
कामुकता एक ऐसी कैद हैं जो दुर्भाग्यपूर्ण तब ही प्रतीत हों सकती हैं जब उससें मुक्ति की उपलब्धि फलित हों चुकी हों..!
एक दूजे के भौतिक शरीर से तो जानवर ही संबंध रखने हैं क्योंकि बेचारगी वश वह किसी उन जैसी चेतना, आत्मा या जीव के उससें उच्च शरीर तक अपना ध्यान लेकर ही नहीं जा सकतें.. अतः जो उसकी तरह की अन्य चेतना या जीवात्मा से उसके भावनात्म शरीर से अपने भावनात्म शरीर का संबंध या उसके विचारात्मक शरीर से अपने विचारात्मक शरीर का संबंध या उसके कल्पितता कर्ता शरीर का अपने कल्पना शरीर का संबंध या उसके आत्म केंद्रित शरीर से अपने आत्म शरीर का संबंध या उसके ब्रह्म शरीर से अपनें अनंत या ब्रह्म शरीर का संबंध या उसके निराकार शरीर से अपने आकार रिक्त शरीर का सम्बंध या उसकें हर शरीर से अपने हर शरीर से हर आकार और आकार रिक्त की सहूलियत की आवश्यकता के आधार पर संबंध इस लियें स्थापित नहीं कर पातें क्योंकि उनका पूरा ध्यान भौतिक शरीर केंद्रित होनें से किसी भी अन्य की भौतिक शारिरिक अभिव्यक्ति को ही समझ सकता हैं तो उससें बेचारा कोई नहीं..! वह उच्च स्तरीय योनियों में होते हुयें भी जानवरों जितनीं सामर्थ्य सीमितता से बैचारे हैं।
- © रुद्र एस. शर्मा
दिनांक - 15-01-23, समय - 16-11