mere naam men kya gunah hai in Hindi Fiction Stories by Sandeep Tomar books and stories PDF | मेरे नाम में क्या गुनाह है

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मेरे नाम में क्या गुनाह है

मेरे नाम में क्या गुनाह है

 

मैं कोई दावा नहीं करता कि मैं कोई कहानीकार हूँ, कहानी लिखना और कहना एक कला है, ठीक वैसी ही कला जैसे कोई चित्रकार कूची से रंग भरता है और पेंटिंग को जीवंत कर देता है। कुछ घटनाएँ मस्तिष्क को इतना उद्वेलित कर देती हैं कि खुद ब खुद कहानी की शक्ल अख़्तियार कर लेती हैं। अब मेरे पात्र सुकुमार को ही देख लीजिये, सुकुमार ने बीस साल पहले प्रेम किया था, टूटकर चाहते थे आकृति को, आकृति भी तो उन्हें दिलोजान से चाहती थी, प्रेम क्या था- भावी जीवन के सपने थे जो सुकुमार को आकृति ने ही दिखाये थे। कितने ही पार्क, रेस्तरा, फुटपाथ, केफीटेरिया उनकी मोहब्बत के गवाह थे और गवाह थे इस बात के कि हाँ उन्होने मोहब्बत की थी, चाहा था एक-दूसरे को। सुकुमार की कहानी को लिखने से पहले मुझे यानि कहानीकार को खुद को सुकुमार की काया में प्रवेश कराना होगा। और मानना होगा कि आकृति मेरी माशूका है, जिसके साथ मैंने ज़िंदगी के वो लम्हे गुजारे हैं, जिन्हें याद करके आज भी मन रोमांचित हुआ जाता है।

7 साल मोहब्बत की पींगे बढ़ाने के बाद मैं यानि सुकुमार अपनी प्रेयसी आकृति से कैंटीन लॉन में मिला था, हाथों में 300 ml की कोक की बोतल लिए उसने एक शिप कोक पीकर रखी और मुझसे कहा-“सुकुमार, सुनो अब इस प्रेम कहानी को यहीं खत्म करने का वक़्त आ गया है, अब हमें मिलना-जुलना एकदम बन्द कर देना होगा।“

“लेकिन ऐसी कौन सी मुसीबत आन पड़ी है जो यकायक ऐसा निर्णय लिया जाये?”

“बस यूँ समझ लो कि अब मेरे लिए आगे मिलना मुनासिब न होगा, पिताजी को ये रिश्ता मंजूर न होगा, हमारे रीति-रिवाज, जाति, वर्ग सभी कुछ तो अलग हैं, देखो न- मेरे पास ये मटीज़ गाड़ी है और तुम रिक्शा की तलाश में घण्टों समय गंवा देते हो, एक-एक दो-दो रुपए के मोल भाव में तुम्हारे साथ कैसे ज़िंदगी गुजरी जा सकती है?”

“लेकिन तुमने ही तो अपनी सहेली मोनिका को कहा था कि सुकुमार मेरा एटीएम है, मेरा बैंकर, जब जहाँ चाहूँ उसे इस्तेमाल कर लूँ। कभी कुछ भी दिलाने से इंकार नहीं करता।“

“हाँ, ये सब मैंने ही कहा था, जानते हो छोटी-मोटी ख्वाहिशें पूरी करना और पूरा जीवन किसी दरिद्र के साथ गुजरना दोनों बातें अलहदा हैं, सुकुमार तुम समझते क्यों नहीं, प्रेम का अर्थ शादी नहीं है।“

“फिर मुझे क्या करना चाहिए?”

“भूल जाइए इस प्यार को, यही हम दोनों के लिए सही होगा, और जितनी जल्दी भूलकर हम अपने-अपने जीवन के निर्णय लेंगे, दोनों के भविष्य के लिए सही होगा।“

“आकृति! हमेशा तुम्हारी बात मानता आया हूँ, आज भी मान लूँगा लेकिन एक बात कहना चाहता हूँ…..।“

“कहो....।“

“हर एक तरफा प्यार का क्या यही हस्र होता है?”

“क्या तुम ऐसा सोचते हो कि तुम मुझसे एक तरफा प्यार करते हो? क्या मैं तुम्हें प्यार नहीं करती?”

आज बीस साल बाद भी मैं यही बात सोच रहा हूँ, जब आज मेरा मन आकृति के पैरेंट्स से मिलने का हुआ, क्या मैं उसे एक तरफा प्यार नहीं करता रहा? क्या मुझे उसके इस सवाल का जवाब देना चाहिए था - क्या मैं तुम्हें प्यार नहीं करती?

मुझे लगता है कुछ सवालो के जवाब उनकी तरह ही अनुत्तरित रह जाने चाहिए। आज सुबह ही एक लेखक मित्र से प्रकाशन विभाग खोलने की बाबत कुछ बिज़नेस डील के सिलसिले में घर से निकलना था, मन में अचानक आकृति के माता-पिता की खबर लेने का विचार आया। हाल-फिलहाल में प्रकाशित किताबों का एक बण्डल बना उन्हें बैग में रख मैं गाड़ी निकाल इंडिया गेट के लिए चल पड़ता हूँ, जब कभी अकेला गाड़ी में होता हूँ तो बराबर वाली खाली सीट देख मुझे बरबस ही आकृति की यादें बेचैन करने लगती हैं। ड्राइविंग सीट पर बैठ यादों में खोना भी उतना ही खतरनाक है जितना खतरनाक एक तरफा मोहब्बत करना।

उस मुलाक़ात को इस मायने में आखिरी कहा जा सकता है कि शादी से पहले की वह आखिरी मुलाक़ात थी, उसके बाद मैं आकृति के लिए कुछ अछूत जैसा था, अछूत इस मायने में कि उसकी ही सलाह पर मैंने अपने पैरेंट्स की मर्जी से अरेंज मैरिज कर ली थी, कितने ही दिनों तक वह अवसाद में रही।

संयोग था या फिर मेरे भाग्य का दोष, मेरी पारिवारिक ज़िंदगी बहुत अच्छी तो क्या सामान्य भी नहीं कही जा सकती थी, पारिवारिक कलह से मैं बेहद टूट चुका था। उस दिन मैं बदहवास सा कनाट प्लेस घूम रहा था, आकृति अचानक टकरा गयी, दुनिया भी कितनी छोटी है न, शायद गोल होने के चलते, पुराने साथी किन्हीं रास्तों पर टकरा ही जाते हैं, आकृति का टकराना मेरे लिए किसी दवा से कम न था। मेरी बदहवासी को देख शायद उसने मुझे पास के केफीटेरिया में चलने का कहा।

“सुकुमार, इस तरह बेचैन परेशान क्यूँ हो, देखो हम कभी अच्छे दोस्त रहे हैं, मुझसे अपना दु:ख बांटोगे तो मन हल्का होगा।“ मैंने उस वक़्त उसे अपने अवसाद का हर वाकया कह सुनाया था, वह तो जाने कब से इसी इंतजार में थी, अवसाद में तो वह भी थी, अकेलापन उसे सालता था, उसने मुझे कोर्ट जाने की सलाह दी, और साथ ही कहा- “सुकुमार, तुम्हारे बिना जीना कितना मुश्किल है, ये तुमसे दूर जाने के बाद जाना, तुम कोर्ट में तलाक की अर्जी दाखिल करो, जैसे ही तुम्हें तलाक मिल जाए, हम शादी कर लेंगे।“

मैंने उसकी बात पर ठीक उसी तरह यकीन कर लिया जैसे मैं उसके साथ प्रेम के दिनों में कर लिया करता था। कुछ दिनों तक कोर्ट में तारीख पर भी गया लेकिन अचानक एक दिन मैंने आकृति की शादी की खबर सुनी तो मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गयी। उस दिन बेशक मैंने विवाह को नियति और प्रेम को बेवफाई का पर्याय मान लिया लेकिन आकृति को मैं अपने दिल से चाहकर भी नहीं निकाल पाया।

मीटिंग से फारिग हो मैंने गाड़ी को आकृति के मायके के रास्ते पर मोड लिया, बातचीत क्या करनी है, क्या-क्या बोलना है, शुरुआत कहाँ से की जाये आदि-आदि सवाल दिमाग में उमड़-घुमड़ रहे थे। मैं जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी पहुँच जाना चाहता था। गाड़ी का एक्सीलेटर बढ़ता गया, मानो गाड़ी कभी भी नियंत्रण खो सकती थी, हल्की-हल्की भूख भी लगी थी, गाड़ी का ए.सी. काम कर रहा था फिर भी मेरा गला सूखा जा रहा था। मैंने गाड़ी में पानी पीने की जहमत फिर भी नहीं उठाई।

आकृति के घर के बराबर वाले पार्क की बाउंड्री के साथ गाड़ी पार्क करके मैंने बैग को गले में टांग लिया, व्यू-मिरर में चेहरा देख बाल ठीक किये। चेहरे पर क्रत्रिम मुस्कान लाने का असफल सा प्रयास किया। अब मैं गेट के सामने था, डोर बैल बजाई लेकिन कुछ समय तक कोई गेट पर नहीं आया। मैंने बारी-बारी से गेट के बाहर लगे बोर्ड के तीनो स्विच दबाना शुरू किया। अचानक गेट के ठीक ऊपर की बालकनी में एक पाँच-सात साल के बच्चे को खेलते देखा तो दिल की धड़कने बढ़नी शुरू हुई। मुझे नहीं मालूम किस आशंका से ये धड़कने बढ़ी। बच्चा अंदर जाता प्रतीत हुआ, शायद वह अपनी माँ को सूचना देने गया हो।

कुछ मिनटों के इंतज़ार के बाद सीढ़ियो से किसी के उतरने के पदचाप से मुझे सांत्वना मिली, लोहे का मुख्यद्वार खुला तो सामने खड़ी युवती को देख पलकें झपकना ही भूल गयी। हाँ, ये आकृति ही थी, अलसाई की नाइट गाउन में लिपटी-सिमटी। वक्षाकृति पहले से कहीं सुडोल, आँखों के सामने बीस साल पहली आकृति और आज की आकृति तुलना के साथ विराजमान थी, गोल चेहरे पर बिखरे बाल, पहले से कहीं ज्यादा अच्छे लुक्स के साथ कटे हुए। मैं अक्सर उसे कहता था-“आकृति, तुम बे-इंतहा खूबसूरत हो लेकिन तुम्हारी ये बेतरतीब ज़ुल्फें तुम्हारी सुंदरता को कम करती हैं।“ वह अक्सर मेरी इस बात से झेंप जाती।

मैं शुरू से बालो का शौकीन रहा हूँ, मेरे सभी दोस्त अक्सर मुझसे कहते- तुम फिल्मी कलाकारो की तरह बाल सेट करवाते हो, और शायद डाई भी करते हो। तब मैं उनकी बातों पर हँस दिया करता था, मेरे बालो का स्टाइल हमेशा ही आकर्षक रहा है, और मुझे आकर्षक स्टाइल के बालों वाली लड़कियाँ अधिक आकर्षित करती रही हैं, आकृति के बालों का आकर्षण मुझे कुछ देर अपने में बांधे रहा। मैं एकटक उसके सौंदर्य को निहार रहा हूँ, दोनों की आँखें मिली, उसने कुछ कहने के लिए, होंठ खोले जरूर लेकिन आवाज बाहर नहीं आई। मैंने ही हैलो कहा। जवाब में अब उसके होंठ खुले थे। बाहर खड़े हुए ही मैंने पूछा-“कैसी हो?”

मुरछाई सी आवाज में उसने कहा- “हाँ, अच्छी हूँ।“ पहले भी कई बार वह इसी तरह जवाब दिया करती थी, जब मेरे मिलने की जिद्द पर नाखुश हो मिलने आती। आज फिर वही नाखुशी उसके चेहरे पर मैं देख, पढ़ रहा हूँ।

“क्या हुआ, मेरे आने से खुश नहीं हो क्या?”

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।“-उसने नपातुला सा जवाब दिया।

“देखो, कब से दरवाजे पर खड़ा हूँ, अंदर आने तक को नहीं कहा?”-मैं शिकायती लहजे में कहता हूँ।

“ऐसी कोई बात नहीं है, आइये अंदर आइये।“- उसने औपचारिकता निभानी चाही।

“नहीं, तुम्हारा मन नहीं है तो मैं वापिस चला जाता हूँ।“

“दरअसल मुझे अभी पाँच मिनट में गुरुद्वारे निकलना है।“-उसने कहा।

“तुम कब से दुरुद्वारे जाने लगी?”-मैं हँसा था।

“पिछले दो-तीन साल से तो जा ही रही हूँ, हर शनिवार को जाती हूँ।“-मुझे याद भी नहीं था कि आज शनिवार है, वैसे भी शनिवार क्या कोई भी दिन मुझे ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं लगता।

“आप फिर कभी मिलने का बनाइये न, आज जरा जल्दी में हूँ।“ -उसने टालना चाहा।

मैंने वापिस चलने के लिए दो कदम पीछे हटता हूँ, वह भी दरवाजा बन्द करने के लिए आगे बढ़ती है, अचानक मैं बोल पड़ता हूँ, -“रुकिए, कुछ किताबें लाया था, पढना चाहो तो दे जाता हूँ।“-कहकर मैं जवाब का इंतजार करता हूँ।

कुछ देर सोच वह कहती है-“दे दीजिये, फुर्सत मिलने पर पढ़ूँगी। सोशल मीडिया पर देखकर पता चलता रहता है कि खूब छपते रहते हो, काफी नाम हो गया है तुम्हारा।“

“हाँ, छपता तो रहता ही हूँ लेकिन सुनो, इसका क्रेडिट भी तुम्हें ही जाता है।“ -मैं बैग से किताबें निकाल उसे पकड़ा देता हूँ। वह किताबें हाथ में पकड़ फिर जाने लगती है, मैं पीछे से पुनः आवाज लगाता हूँ,-“कुछ लेखकीय नोट लिख दूँ किताब पर, अगर तुम चाहो तो...?”

“नहीं, इसकी क्या जरूरत है, इतना कुछ तो किताब में लिखा ही है न?” -मुझे अहसास होता रहा कि वह मुझे टालना चाहती है। मैं विदा लेकर चलने लगता हूँ, मैं फिर से आवाज देता हूँ- “सुनो, मुझे तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है, अपना फोन नंबर दो।“

वह फिर से टालने की गरज से कहती है, “सोशल साइट पर मैसेंजर में दे दूँगी, अभी गुरुद्वारे जाने के लिए देर हो रही है।“

मैंने जेब से पेन और कागज निकाल गेट के बीच से पकड़ाते हुए कहता हूँ- लिख दो, वह अनमने हो कागज पर मोबाइल नंबर लिखती है, उसने मुझे कागज का टुकड़ा दे दिया है, पेन अभी भी उसके हाथ में ही है। मैं कागज को जेब में रख गाड़ी की ओर बढ़ता हूँ, पेन मैं जानबूझ कर उससे नहीं मांगता।

गाड़ी में बैठ मुझे अहसास हुआ कि कब से प्यास से मेरा गला सूखा जा रहा है, मैं बोतल निकाल गटगट पानी पीता हूँ, भूख भी परेशान किए है। गाड़ी स्टार्ट कर मैं वहाँ से निकलता हूँ, पास ही सड़क पर एक साउथ इंडियन रेस्टोरेन्ट हैं “चेन्नई एक्सप्रेस”। मैं गाड़ी साइड में पार्क कर रेस्टरों के अंदर जाता हूँ, मैंने डोसा ऑर्डर कर दिया। डोसा आने में अभी वक़्त है, मैंने मोबाइल और नंबर लिखा कागज निकाला, मैसेज टाइप किया-“ चेन्नई एक्सप्रेस में बैठा हूँ, आओ तो कुछ देर बैठकर बात करें।“ इस रेस्तरा की दूरी उसके घर से इतनी है कि पैदल आने में मात्र दो से तीन मिनट लगें लेकिन आकृति नहीं आई। ऑर्डर आने पर मैंने डोसा खाया। बिल चुकता कर पुनः गाड़ी में आकार बैठ गया हूँ। मुझे आकृति के व्यवहार पर दु:ख अवश्य हुआ, लेकिन मैं गुस्से में बिलकुल नहीं हूँ।

अगले दिन मैंने आकृति को कॉल लगाया। शुक्र है- उसने कॉल को उठा लिया। साहित्य, पुस्तक और मेरे लेखन पर उसने सवाल किए, समझ नहीं पाया- मेरी प्रसिद्धि पर वह खुश है या फिर दुखी, हाँ! उसने इतना अवश्य कहा- “आप आज एक बड़ा नाम हैं, मेरा तो लेखन ही छूट गया।“

बातचीत में मैंने उससे कल के व्यवहार पर सवाल किया- “आकृति, एक बात बताओ, बीस साल बाद मैं तुमसे मिला, तुम्हें खुशी नहीं हुई?”

“खुशी से ज्यादा आश्चर्य जरूर हुआ।“-वह बोली।

“और इसी आश्चर्य में तुम्हें ये भी सुध न रही कि बाहर से आने वाले को अंदर भी बुलाया जाता है, उसे चाय-पानी को भी पूछा जाता है, क्या पता कोई कब से प्यासा हो?”- मन में सोचता हूँ – तुम्हें देखने की प्यास तो बरसो से थी।

“हाँ, दरअसल मैं नींद में थी, तो सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया। बाद में मुझे खुद अहसास हुआ और ग्लानि भी।“- वह अब फॉर्मल हो गयी, ऐसा मुझे लगा।

“नींद में तो तुम पिछले बीस सालों से हो।“-मैं मन में सोचता हूँ।

“वैसे कल तुम किसलिए आए, वो भी इतने वर्षो बाद, मुझे मालूम है मात्र किताबें देने तो नहीं ही आए थे, और आपको ये कैसे लगा कि मैं यहाँ मायके में मिलूँगी?”

“हाँ, सच तो ये है कि मैं तुमसे मिलने नहीं आया था, सोचकर चला था कि तुम्हारे मम्मी-पापा से मिलकर वो सब बातें शेयर करूंगा जब हम प्रेम में थे, पूछूंगा – क्यों आकृति ने मुझसे विवाह नहीं किया? लेकिन तुम वहाँ थी तो ये सब बातें नहीं कर पाया।“

“कर भी नहीं पाते, मम्मी को इस दुनिया से गए पूरे सात साल हो गए और पापा बेड-रिडेन हैं।“

मैं कुछ जवाब नहीं देता हूँ। कुछ देर कॉल पर दोनों चुप रहते हैं, मैं पुनः उससे मिलने का आग्रह करता हूँ, वह फिर वही टालने वाला जवाब देती है- देखती हूँ प्लान करके बता दूँगी। मैं आज तक उसके कॉल का इंतज़ार कर रहा हूँ। प्रेमिकाओं के प्रेमी के साथ के रूखे व्यवहार पर मैं अक्सर सोचने लगता हूँ कि शादी के बाद लड़कियाँ क्यूँ प्रेमी को धड़कन फिल्म का सुनील सेट्ठी समझने लगती हैं जबकि असल में वह प्रेम-रोग फिल्म का ऋषि कपूर होता है।