Saint Kabir Das in Hindi Spiritual Stories by Praveen kumrawat books and stories PDF | संत कबीरदास

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संत कबीरदास



संत कबीर मध्यकालीन संतमत के प्रवर्तकों में एक स्वीकार किये जा सकते है। उन्होंने परमात्मा राम को घट-घट में व्यापी बताकर लोककल्याण की साधना की, वे परम निरपेक्ष और निर्मल मति से सम्पन्न संत थे। कबीर ने समस्त चराचर को राम से परिपूर्ण देखा, आत्मरूप अथवा चेतनस्वरूप पाया। वे संत थे। संत वे होते है जिनके जीवन मे सदा सत्य रहता है। उन्हें पहाड़ से नीचे गिराया जाता है, समुद्र में छोड़ दिया जाता है, हाथी के पैर के तले डाल दिया जाता है, विषपान कराया जाता है पर वे सत्य के लिये हँसते-हँसते प्राण पर खेल जाते है। सन्त पाप का नाश करते है, पुण्य बढ़ाते है।
पाँच-छः सौ साल पहले इसी तरह संत कबीर ने लोगो को सत्य का रास्ता बताया था।

उस समय दिल्ली की गद्दी पर सिकंदर लोधी आरूढ़ था। चारो ओर अशांति और अराजकता की बढ़ोतरी हो रही थी, देश पर विदेशी आक्रमण की आशंका नित्य प्रति बढ़ती रहती थी। ऐसी स्थिति में संत कबीर ने संदेश दिया कि यह नितान्त सच है कि राम को जपने से ही लोक का भला होगा। जब तक शरीर मे श्वास है तब तक राम का भजन करते रहना चाहिये। उन्होंने लोगो के हृदय में ईश्वर और सत्य के प्रति विश्वास प्रकट किया। ईश्वर भक्ति में लोगो की आस्था स्थित की। असंख्य जीवो को भवसागर से पार उतारने के लिये और परमार्थ के विकास के लिये गगन-मण्डल से कबीर के रूप में सत्य-ज्योति का पृथ्वी पर अवतरण हुआ।

कबीर के जन्म के संबंध में अनेक दन्तकथायें प्रचलित है। कुछ लोग भक्त प्रहलाद के रूप में देवांगना प्रतीचि से उनका प्राकट्य मानते है। संत कबीर काशी में प्रकट हुए थे। उस समय काशी में ही नही, समस्त भारत देश मे स्वामी रामानंद के नाम की धूम मची हुई थी। वे बहुत बड़े महात्मा थे। काशी में ही रहते थे।
ऐसा कहा जाता है कि एक समय अनजाने में उन्होंने अपने ब्राह्मण शिष्य की विधवा कन्या को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। महात्मा का वचन सफल हुआ। संवत् 1455 वि. की जेठ पूर्णिमा को उस कन्या ने एक बालक को जन्म दिया। लोकलज्जा और समाज के भय से उसने नवजात शिशु को काशी के लहरतारा तालाब में फेंक दिया। नवजात कमल के पत्ते पर खेलने लगा। आसमान में काले बादल उमड़ रहे थे, बिजली चमक रही थी। लहरतारा तालाब के निकट से ही नीरू और नीमा जा रहे थे। नीमा को प्यास लगी थी। वह पानी पीने के लिये तालाब में उतर गई। असहाय शिशु को देखते ही उसके मन मे माता की ममता जाग उठी। उसने बच्चे को गोद में उठा लिया। नीरू जुलाहे ने कहा कि बच्चे को इस तरह घर ले जाने पर लोग हँसी उड़ायेंगे, समाज मे निंदा होगी। नीमा के सामने नीरू की एक न चली। दोनो ने बालक को घर लाकर पाल-पोसा और कबीर नाम रखा।

कबीर होनहार बालक थे। बचपन मे लोगो ने उनमे अलौकिक और विलक्षण प्रतिभा देखी। सब लोग उन्हें प्यार करते थे। नीरू-नीमा अपने सौभाग्य पर फूले नही समाते थे। कबीर उन्हें कपड़े बुनने और ताना-बाना ठीक करने में सहायता देने लगे। घर के कामकाज में हाथ बंटाने लगे। साधु-संतों की सेवा करने में उनका मन बहुत लगता था। वे कभी-कभी कपड़े बेचने के लिये अड़ोस-पड़ोस के बाजार में भी जाया करते थे। एक दिन एक वैष्णव ने उनसे एक थान कपड़ा माँगा। कबीर ने बिना दाम लिये ही कपड़ा दे दिया। घर मे भोजन के लिये एक पैसा भी न था। माता-पिता कबीर की ही राह देख रहे थे। कबीर ने सारी बाते सच-सच कह दी, फटकारे जाने पर कबीर राम नाम जपने लगे। दस साल की ही अवस्था मे लोग उनमे संत का स्वभाव देखकर आश्चर्य में पढ़ गये। कबीर घर के छोटे-मोटे काम भी करते थे और लोगो को राह चलते ईश्वर-भजन का उपदेश भी देते थे। लोग 'निगुरा' कह कर उनको टाल देते थे। कबीर को भी यह बात खटकती थी कि बिना गुरु के सच्चा ज्ञान नही मिलता। वे स्वामी रामानन्द को अपना गुरु बनाना चाहते थे। कबीर ने स्वयं कहा है-
'गुरु बिन चेला ज्ञान न लहै।
गुरु बिन इह जग कौन भरोसा, काके संग ह्नै रहिये।'


स्वामी रामानंद ब्राह्मणों को छोड़कर निम्न वर्ग के लोगों को शिष्य नही बनाते थे। कबीर को एक उपाय सुझा। स्वामी रामानंद नित्य तड़के ही गंगा-स्नान के लिये जाया करते थे। कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर मृतक की तरह पड़ गये। रामानंद की खड़ाऊ उनके सिर से टकरा गयीं। स्वामी रामानंद जी के मुख से सहसा 'राम' शब्द निकल पड़ा। कबीर ने रामनाम को ही गुरु-मंत्र मान लिया। घर आकर कबीर ने माला और तिलक धारण कर लिये तथा अपने आप को स्वामी रामानंद का शिष्य प्रसिद्ध करना आरंभ कर दिया। नीमा ने स्वामी रामानंद से जाकर शिकायत की पर उन्हें किसी भी बात का पता नही था। कबीर ने रामानंद से सारी बाते कह दी। स्वामी रामानंद उनकी श्रद्धा और भक्ति से बहुत प्रसन्न हुए। राम-नाम मे कबीर की निष्ठा देखकर उनको गले लगा लिया और उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया।

कबीर का मन घर के कामकाज में कम लगा करता था। वे गुरु के पास अधिक समय तक रह कर ज्ञान और भक्ति का उपदेश सुनने लगे। परम पवित्र काशी नगरी में दूर-दूर से लोग आते थे। वे अपने-अपने नगरों में जाकर संत कबीर की महिमा का बखान करने लगे। भारत के कोने-कोने से लोग उनके दर्शन के लिये आने लगे। शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी। संत-मिलन कबीर के लिये परम धन था। उनके निवास पर उच्च कोटि के संतों का समय-समय पर सम्मिलन होता रहता था। कबीर और लोई का आजीवन संबंध रहा। ऐसा कहा जाता है कि वह कबीर की शिष्या थी और उसने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया। उसके संबंध में विचित्र कथा है कि
एक समय कबीर गंगा के उस पार गये। वे कुछ संतो के साथ एक जंगल से निकल रहे थे कि उन्हें एक कुटी दिखाई दी। उसमे एक स्त्री रहती थी। वह जब बालिका थी तब घर वालो ने कपड़े में लपेट कर उसको गंगा में पौढा दिया था। एक साधु ने उसका पालन-पोषण किया और लोई नाम रखा। साधु के शरीरांत के बाद भी वह उसी कुटी में रहती थी। उसने अभ्यागत संतो के लिये दूध से भरे सात प्याले लाये। कबीर ने एक प्याला रख लिया और कहा कि एक साधु ओर आ रहे है। लोई ने साधु के आने पर नाम पूछा, कबीर ने उत्तर दिया कि साधु का नाम कबीर है। लोई ने जाति पूछी, कबीर का उत्तर था― 'कबीर'। स्त्री आश्चर्य में पड़ गयी। उसे स्वर्गीय साधु की बात याद आ गयी कि तुम्हे इस कुटी में अपने गुरु का दर्शन होगा। उसने कबीर को अपना गुरु मान लिया और उनके साथ हो गयी।
कबीर की मनोवृत्ति पूर्ण सात्विक थी। उन्हें आडंबर और पाखण्ड से बड़ी चिढ़ थी।

संत कबीर की कीर्ति गाथा बादशाह सिकंदर लोदी के दरबार मे भी गायी जाने लगी। बादशाह जलन रोग से पीड़ित था। किसी ने बताया कि संत कबीर के दर्शन से रोग चला जायेगा। ऐसा कहा जाता है कि कबीर का दर्शन करते ही बादशाह के शरीर मे शीतलता की लहर दौड़ गयी। उसे ऐसा लगा मानो किसी ने सारे शरीर मे चंदन लेप दिया हो। रोग चला गया और बादशाह दिल्ली लौट आया।

कबीर ने लोगो का ध्यान सामाजिक कुरीतियों और दोषों की और खिंचा। काजी और मुल्लाओं ने बादशाह सिकंदर लोदी के कान भर दिये कि कबीर इस्लाम के सिद्धांतों का खंडन कर रहे है। बादशाह धर्मान्ध और कट्टर मुसलमान था। ऐसा कहा जाता है कि प्रसिद्ध सूफी शेख तकी ने भी बादशाह को कबीर के विरुद्ध उकसाया। कबीर को कड़ी-से-कड़ी यातना देने की सोची गयी। उन पर मिथ्या आरोप लगाया गया कि इस्लाम को छोड़कर देवी-देवताओं की पूजा करने के साथ-ही-साथ वैश्याओं को साथ लेकर घूमते रहते है। बादशाह ने कबीर को दरबार मे उपस्थित होने का आदेश दिया। कबीर दरबार मे आयें पर उन्होंने बादशाह का अभिवादन नही किया और पूछने पर कहा कि मैं केवल ईश्वर के सामने सिर झुकाता हूँ। बादशाह ने उनको हथकड़ी-बेड़ी पहना कर नदी में डाल देने का आदेश दिया परन्तु कबीर का बाल भी बांका नही हुआ। उन्होंने कहा-
'गंगा गुसाइन गहिर गंभीर, जंजीर बांधी कर खरे कबीर।
गंगा की लहर मेरी टूटी जंजीर, मृगछाला पर बैठे कबीर।'
बादशाह कविहृदय का भावुक पुरुष था। उसने संत कबीर से क्षमा मांगी। कबीर के अलौकिक चरित्र से सिकंदर लोदी बहुत प्रभावित हुआ। शेख तकी कबीर को नीचा दिखाना चाहते थे। नदी की मध्य धारा में एक बालक का शव बहता चला जा रहा था। तकी ने बादशाह से कहा कि यदि कबीर इसे जीवित कर दे तो सच्चे महात्मा है कबीर के कहने से बालक जी उठा। बादशाह के मुख से निकल पड़ा 'कमाल' और आगे चलकर वही बालक 'कमाल' के नाम से कबीर का पक्का शिष्य हो गया। इसी तरह शेख तकी की मृतक कन्या को भी कबीर ने जीवन-दान दिया था। वह कमाली के नाम से विख्यात हुई।

कबीर को विरोधियो के कारण काशी छोड़ना पड़ा। उन्होंने मगहर को अपनी तपोभूमि चुना। वे मगहर चले आये और भजन करने लगे। मगहर उत्तरप्रदेश में गोरखपुर और बस्ती जनपद की सीमा पर आमी नदी के तट पर रमणीय उपनगर है। संत कबीर ने उसे धन्य कर दिया।

संत कबीर ने समाज के दोषों को दूर करने का यत्न किया। उन्होंने उन आचार-विचारो का विरोध किया जो भगवान की भक्ति में बाधक थे। भगवान का अखंडरूप से भजन ही उनके मत से सबसे बड़ा मानवधर्म था। उन्होंने प्राणी मात्र के हृदय में एक ईश्वरीय सत्ता का दर्शन किया। वे भगवान के भजन को मुक्ति-प्राप्ति का सबसे बड़ा साधन मानते थे। वे कहा करते थे कि भजन के लिये ही भगवान मनुष्य का शरीर दिया करते है, साहब अथवा परमात्मा की दृष्टि में सब समान है। राम का नाम जपना ही पवित्रतम कर्म है। हाथी और चींटी दोनो परमात्मा के प्यारे है। उनकी उक्ति है-
'साईं के सब जीव है, कीरी कुजर दोय।'

संत कबीर ने हृदय से निकली सीधी-सादी जन-भाषा मे भगवान के प्रेम और सत्य-कर्म पर कविता लिखी। वे सत्य के गायक थे, सत्य उनके समस्त साहित्य में ओतप्रोत है। कबीर ने अपने काव्य-शरीर का प्राण राम को माना, उनके राम घट-घट में व्यापी निर्गुण, निराकार, चिदघनानंदमूर्ति है।

कबीर बालक के समान अत्यंत सरल हृदय के संत थे। उन्होंने परमात्मा को माता-पिता और अपने आपको बालक माना है। वे ज्ञानी भक्त थे, सत्यरूपी ईश्वर को प्रियतम मानते थे। राम ही उनके सर्वस्व थे। वे एकतावादी अथवा समन्वयवादी संत थे। अपने सुधारवादी विचारो से उन्होंने समाज का बड़ा कल्याण किया। सबको मिलजुल कर रहने की सीख दी।

संत कबीर ब्रह्मवादी संत थे। उन्होंने समस्त जगत को ब्रह्ममय देखा। उन्होंने ब्रह्मानंद-प्राप्ति के मार्ग में माया को बाधक माना, माया का बंधन काटने को ही उन्होंने मुक्ति-पद स्वीकार किया।
गुरु नानक, कबीर के समकालीन थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने कबीर का दर्शन किया था। नानक, कबीर की सत्य-साधना, एकतावाद और संतमत से बहुत प्रभावित थे। मगहर निवास काल मे गोरखनाथ मठ के सिद्ध योगी और संत उनके सत्संग और दर्शन से अपने को धन्य मानते थे। सूफी संत शेख तकी पर कबीर का विशेष प्रभाव स्वीकार किया जाता है। कबीर की वाणी में कही-कही शेख तकी का नाम आया है। कबीर ने उन्हें ज्ञान की बाते समझायी और उपदेश दिया। कबीर के शिष्यों में धर्मदास का नाम लिया जाता है। कबीर का दर्शन उन्हें मथुरा में यमुना नदी के तट पर हुआ था।

कबीर की साधना में एक स्मरणीय बात यह है कि उन्होंने स्वानुभूति के बल पर एकरस अखंड तत्व को अपने भीतर स्वप्रकाशित देखा था–समझा था।

जीवन के अंतिम दिनों में संत कबीर मगहर में ही रहे। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने सम्वत 1575 वि. में शरीर छोड़ा। अंत काल मे भी वे राम ही के स्मरण में तत्पर थे। हिन्दू उनके शरीर को जलाना चाहते थे और मुसलमान स्मारक बनाना चाहते थे। किंतु चादर उठाने पर शव के स्थान पर फूल दिख पड़े। दोनो ने आधे-आधे ले लिये। काशी नरेश वीरसिंह बघेल ने काशी में उनका अंतिम संस्कार किया। गोरखपुर जनपद के नवाब विजली खान पठान ने आमी नदी के तट पर मगहर में ही एक अच्छा सा स्मारक बनवाया। मगहर एक ऐतिहासिक स्थान है, हिन्दुओ की और से कबीर की समाधि भी वही बनाई गयी। मगहर कबीर की तपोभूमि होने के नाते पवित्र तीर्थ है, उसके कण-कण में सत्य, ज्ञान, तप, प्रेम और पुण्य का निवास है।