Mamta ki Pariksha - 125 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 125

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ममता की परीक्षा - 125



जमनादास जी की कार फर्राटे से अपने गंतव्य की तरफ भागी जा रही थी। पतली गली नुमा सड़क से होकर कार अब शहर के चौड़े मुख्यमार्ग पर शहर से बाहर की तरफ जानेवाले रास्ते पर आ गई थी।

कार में बैठा अमर कुछ उधेड़बुन में लगा हुआ था। वह बड़ी तन्मयता से एकटक सेठ जमानदास की तरफ देखे जा रहा था और सोचे जा रहा था 'क्या यह वही जमनादास जी हैं जिन्होंने मुझे दो दिन के अंदर यह शहर छोड़ जाने के लिए चेताया था ? और अब वही हमारी मदद के लिए इतना कष्ट उठा रहे हैं, भागदौड़ कर रहे हैं। इंसान इतना कैसे बदल जाता है ?'
तभी उसके अंतर्मन ने सरगोशी की 'अभी तुझे अपनों की तड़प का अहसास कहाँ है अमर ! रजनी उनकी इकलौती बेटी है और अपनी बेटी की खुशी के लिए यह एक बाप की तड़प है कि वह उस इंसान के सामने भी झुकने व हाथ जोड़ने को विवश है जिसे वह कभी देखना भी नहीं चाहता था। कहते हैं न इंसान जो किसीसे नहीं हारता, अपनों के प्यार के आगे घुटने टेक देता है। आज जो तेरे साथ कार में बैठा शख्स है वह है तो वही सेठ जमनादास, लेकिन उनकी आत्मा में परिवर्तन हुआ है और अब उनके दिल में एक सेठ की आत्मा की बजाय एक बेटी के बाप की आत्मा ने जगह ले ली है।'

अमर ने मुस्कुरा कर जमनादास की तरफ देखा।
वह अमर के मनोभावों से बेखबर पूरी तल्लीनता से कार चलाने में मशगूल थे। कई तरह के विचार रास्ते भर अमर के दिमाग को झकझोरते रहे, रजनी भी उसके दिमाग में उथलपुथल मचाये हुए थी। माँ ने तो जमनादास को माफ कर दिया तो अब उसे रजनी को कष्ट देने का क्या अधिकार है ? और फिर एक बाप के गुनाह की सजा उसकी बेटी को क्यों ? तभी उसका अंतर्मन चीत्कार कर उठा 'क्या तू खुद जानबूझकर रजनी से दूर रह सकेगा ? क्या तू उसकी आँखों से बहते आँसु देख सकेगा ? नहीं ! तू चाहे जितना इंकार कर ले, चाहे जितना दावे कर ले, लेकिन सच्चाई यही है कि तू खुद उसके बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता।'

'तो क्या करूँ ?' सोचते हुए उसके हाथ स्वयं ही अपने माथे पर पहुँच गए। ऐसा लगा जैसे अभी अपने बाल नोच लेगा। उसकी अवस्था देखकर बिरजू चौंक पड़ा और जोर से चिल्लाया, "भैया, क्या हो गया है तुम्हें ? परेशान लग रहे हो ? सिरदर्द हो रहा है क्या ?"

बिरजू की तेज आवाज सुनकर अमर चौंका, और तुरंत कुछ बहाना न सूझ पाने की वजह से जानबूझकर अपना सिर थाम कर वह जल्दी से बोल पड़ा, "हाँ, बिरजू ! पता नहीं क्यों बहुत तेज सिरदर्द हो रहा है ?"

यह सुनते ही जमानदास ने कार की गति कम करके उसे सड़क के किनारे की तरफ कर लिया। कुछ दूर जाकर सड़क के किनारे कार खड़ी करके जमानदास ने अपनी जेब से एक टिकिया निकाल कर अमर को देते हुए कहा, "लो बेटा, खा लो।" और इसी के साथ दोनों सीट के मध्य रखी हुई पानी की बोतल का ढक्कन खोलकर उसकी तरफ बढ़ा दिया।
"कारोबार के लिहाज से कभी कभार मुझे भी ऐसी समस्या का सामना करना पड़ता है और हर जगह डॉक्टर तो उपलब्ध होता नहीं, इसलिए मेरी गाड़ी में ऐसी प्राथमिक जरूरत की सभी चीजें मौजूद रहती हैं। कब किस चीज की जरूरत पड़ जाए, कहा नहीं जा सकता !" कहकर जमनादास प्यार से अमर की तरफ देखने लगे।

उनके मुख पर अमर के लिए छलकते वात्सल्य भाव को बिरजू बखूबी समझ रहा था। समझ तो अमर भी रहा था पर अभी वह अनिश्चय के उस दौर से गुजर रहा था जहाँ कुछ भी फैसला करना उसके लिए आसान नहीं था।

हल्का सिरदर्द उसे वाकई हो भी रहा था सो ना नुकुर किये बिना उसने जमनादास के हाथों से दवाई की टिकिया ले ली और और उसे मुँह में रखकर वह पानी के साथ उसे गटकने की कोशिश करने लगा।
अमर के पानी पीने के बाद जमनादास ने धीरे से कार आगे बढ़ा दी।

शहर का दूसरा इलाका शुरू हो चुका था। सड़कों पर भीड़भाड़ दिखने लगी थी। संकरी गलियों से होकर आगे दूसरी अपेक्षाकृत चौड़ी सड़क के किनारे बनी एक बहुमंजिली इमारत के सामने जाकर कार रुक गई।

कार से उतरकर जमनादास ने कार लॉक किया और अमर और बिरजू के साथ उस इमारत के अंदर दाखिल हो गए।
यह कोई बहुमंजिली इमारत थी जिसकी तलमंजिल पर कई नामी कंपनियों के दफ्तरों के सूचनापट लगे हुए थे।

पाँच मिनट बाद तीनों लिफ्ट के जरिये सातवीं मंजिल पर पहुँचकर एक दफ्तर में बैठे हुए थे।
यह दफ्तर था शहर के मशहूर वकील एडवोकेट धर्मदास का। वकील धर्मदास अपने नाम के अनुरूप ही बड़ी धार्मिक वृत्ति का इंसान था।
आप उसके चरित्र को एक वाक्य में यूँ समझ सकते हैं कि झूठ, फरेब और मक्कारी से भरे इस घातप्रतिघात वाले पेशे में भी वह सच्चाई का दामन कभी नहीं छोड़ता था। कानून के गहन अध्ययन व इंसाफ करवाने की ललक के चलते वह भी आज तक कोई मुकदमा हारा नहीं था। ये बात और है कि वह उसी मुकदमे को हाथ में लेते थे जिसमें उसे सच्चाई नजर आती थी। अपराधियों, भ्रष्टाचारियों व गुनहगारों का मुकदमा वह किसी भी शर्त पर स्वीकार नहीं करता था।
यही वजह थी कि उसके दफ्तर में गतिविधियां लगभग ना के बराबर नजर आ रही थीं। गिनती के कुछ लोग थे जिनसे कुछ जूनियर वकील बातें कर रहे थे। उन्हें नजरअंदाज करते हुए जमनादास के साथ अमर और बिरजू सीधे एडवोकेट धर्मदास की केबिन की तरफ बढ़ गए थे।

स्थूलकाय जिस्म के धर्मदास उम्र के पचास वसंत देख चुके थे। रुआबदार चेहरे पर मोटी मूँछें उनके चेहरे को और अधिक प्रभावशाली बना रही थीं। माथे पर चंदन का लंबा टिका उनकी आध्यात्मिक वृत्ति को बयां कर रहा था।
जमनादास के दफ्तर में कदम रखते ही धर्मदास अपनी कुर्सीसे उठ खड़े हुए थे और मेज के पीछे से निकलकर उनसे हाथ मिलाते हुए उनका स्वागत किया।

मेज पर लगी घंटी पर जोर से हाथ मारते हुए उन्होंने जमनादास सहित अमर व बिरजू से भी बैठने का आग्रह किया।

उनके बैठते बैठते धर्मदास ने बड़े मधुर स्वर में जमानदास जी से पूछ लिया था, "सेठ जी, क्या लेंगे ? ठंडा या गरम ?"

तब तक दफ्तर का चपरासी अंदर आ गया था। जमनादास ने चाय का इशारा करते हुए उसे भेज दिया।

उसके जाते ही धर्मदास ने कुहनी मेज पर टिकाते हुए बड़ी आत्मीयता से पूछा, "और कहिये सेठ जी ! यहाँ कैसे आना हुआ ? कहे होते तो हम ही आ गए होते आपके बँगले पर।"
कुछ देर तक इधर उधर के बातों की औपचारिकता पूरी करने के बाद सेठ जमनादास जी मुख्य मुद्दे पर आ गए।

"धर्मदास जी, आप तो जानते ही हैं इंसान को जब भूख लगती है वह भोजनालय खोजता है, प्यास लगती है तो पानी का स्त्रोत खोजता है, किसी मुसीबत में आशीर्वाद की जरूरत पड़ती है तब भगवान का दर खोजता है। ठीक उसी तरह जब किसी कानूनी मामले में इंसान फँसा हुआ हो तो वह किसी काबिल वकील को खोजता है।" कहते हुए जमनादास मुस्कुराए।
उन्होंने आगे कहना जारी रखा, "हम भी आपके पास कानून से इंसाफ दिलाने का आग्रह करने ही आये हैं। हम जानते हैं कि आप सच के तलबगार हैं, इसलिये हम आपको पूरी बात सच सच बताएंगे। पहले आप पूरी कहानी जो कि हकीकत है सुन लीजिए और फिर बताइये हमें क्या करना चाहिए। हमारी दिली ख्वाहिश है कि उन दरिंदों को उनके किये की सजा दिलाकर उस मासूम लडक़ी की आत्मा को शांति प्रदान किया जाय और जग में ये संदेश फैले कि कानून इंसाफ भी करता है।"

इसके बाद जमनादास ने अमर को इशारा किया और उनका इशारा समझकर अमर ने बिना कोई देर किए बसंती की पूरी कहानी और आज थाने में उनके पहुँचने तक का पूरा किस्सा सुना दिया। बसंती की कहानी सुनते हुए धर्मदास के चेहरे पर गहरी पीड़ा के भाव स्पष्ट दिख रहे थे जो उनकी संवेदनशीलता का परिचायक था।

क्रमशः