'हे ज्ञानियों के गुरु, राजाओं के महाराजा! आप ज्ञानदेव कहलाते हैं, इस महत्ता को मैं पामर क्या समझु। पैरों की जूती का पैरो में ही रहना ठीक है । ब्रह्मा आदि भी जब आप पर बलिहारी जाते है तब दूसरे आप की तुलना में कितना ठहरेंगे? . . . . . . मैं योग का घर नहीं जानता हूँ, इसलिये चरणों पर मस्तक रखता हूँ।' — संत तुकाराम जीज्ञानदेव मराठी सन्त-साहित्य क्षेत्र के सम्राट स्वीकार किये जा सकते है। उन्होने ज्ञान और भक्ति की एकता सिद्धि से भागवत धर्म की उपासना की। उनकी ज्ञानेश्वरी भागवत धर्म की अनुपम व्याख्या-निधि हैं। उनके रूप में भगवान ने महाराष्ट्र की परम पवित्र भूमि में ज्ञान-अवतार लिया, वे उच्च कोटि के महात्मा, परम ज्ञानयोगी और सिद्ध संत थे। यावनिय सत्ता से आक्रांत भरत खण्ड में सन्त ज्ञानेश्वर ने आत्मज्ञान का अस्त्र सम्हाला। दिल्ली की केन्द्रीय शासन सत्ता अराजकता, अशान्ति और अनीति के दृश्य उपस्थित कर रही थी। ऐसे समय में सन्त ज्ञानेश्वर ने विक्रम की चौदहवी शती के दूसरे चरण में जन्म लिया। वे महान ऐतिहासिक विभूति थे। देश और काल को उनकी उपस्थिति की बड़ी आवश्यकता थी। असार संसार-सिन्धु से असंख्य जीवो को तारने के लिये उन्होने श्रीभगवद्गीता की ज्ञानेश्वरी-व्याख्या प्रदान की, निस्सन्देह उनकी ज्ञानेश्वरी ज्ञान-नौका है, साक्षात् मुक्ति हैं। वे धर्मरक्षक थे, ईश्वर के अपूर्व भक्त और दिव्य लेखक थे। उन्होंने सत्यज्ञान की खोज से आत्मशान्ति की प्राप्ति की। सन्त ज्ञानेश्वर की जीवन कथा असाधारण, अद्भुत और अनुपम है। विलक्षण घटना-चक्र में उनका जन्म हुआ, विचित्र परिस्थिति में उनका पालन हुआ और आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने आत्मयात्रा का पथ प्रशस्त किया।
ज्ञानदेव जी के पिता ने घर त्याग कर सन्यास ले लिया था और गुरुजी से झूठ बोल दिया कि मेरे पत्नी नहीं है। पत्नी ने जब संन्यास का समाचार सुना तो वह उनका पीछा करती हुई गुरुजी के पास पहुँची और कहने लगी "इन्होंने झूठ बोल कर संन्यास की दीक्षा ली है, अतः आप इनकी बांह पकड़कर इन्हें मेरे साथ भेज दीजिए।" वह उन्हें घर ले आई। इस पर जाति-बिरादरी वाले बड़े नाराज हुए कि संन्यासी फिर गृहस्थ बन गया। उन्होंने ज्ञानदेव के पिता को जाति से बाहर निकाल दिया और कह दिया कि इनसे हमारा अब कोई रिश्ता नहीं है। इस प्रकार वे समाज से दूर ही रहने लगे।
उनके तीन पुत्र हुए जिनमें बड़े ज्ञानदेव थे इनकी श्रीकृष्ण के चरणों मे हार्दिक निष्ठा थी। जब वे विद्या पड़ने के योग्य हुए, तो पण्डितों ने उन्हें वेद पढ़ाने से मना कर दिया। कह दिया "तुम्हारे पिता संन्यासी होकर फिर गृहस्थी हो गए थे, अतः तुम अब ब्राह्मण की सन्तान नहीं हो तुम्हारा ब्राह्मणत्व नष्ट हो गया है।" इसपर ज्ञानदेव जी ने एक सभा बुलाई और ब्राह्मणो और विद्वानों से पुछा कि आप लोगों के विचार से मुझ में क्या दोष है जो मुझे वेदों से वंचित कर दिया है। ब्राह्मणों ने उत्तर दिया " तुम्हारा ब्रह्मत्व नष्ट हो गया है, इसलिए तुमको वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है।"
यह सुनते ही ज्ञानदेव ने अपने चारों ओर देखा तो कुछ दूर पर एक भैसा खड़ा दिखाई दिया उसे देखकर ज्ञानदेव जी बोले “वेदपाठ तो एक भैसा भी कर सकता है।" (जो कि पशु है। मैं तो मनुष्य हुं और क्या पशु से भी पतित हूँ?)
इसके बाद ज्ञानदेवजी ने भैंसे से वेद पढ़ने को कहा, तो वह वास्तव में वेद पढ़ने लगा। यह देखकर लोग अवाक् रह गए ज्ञानदेव की भगवान में ऐसी दृढ़ भक्ति देखकर उन सभी के हृदय भी भक्ति से भर गए। वे ज्ञानदेव जी के पैरो पर गिर पड़े और जाति का मिथ्या अभिमान छोड़कर एकदम दीन हो गए।
सन्त ज्ञानेश्वर (ज्ञानदेव) के जीवन से सम्बन्धित विशेष विवरण यहां दिया जा रहा है–
सन्त ज्ञानेश्वर का जन्म वि० सं० 1332 भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को हुआ था। इनके पिता, जिनका कि वृत्तान्त ऊपर दिया जा चुका है, का नाम श्री विठ्ठलपंत था और माता का नाम रुकमणीबाई था। ज्ञानेश्वर के दो भाई थे और एक बहिन। बड़े भाई का नाम श्रीनिवृत्त्तिनाथ तथा छोटे भाई का सोपान, बहिन का नाम मुक्ताबाई था। ये सबसे छोटी थीं। जब ज्ञानेश्वर पाँच वर्ष के थे तभी उनके माता-पिता ने त्रिवेणी संगम पर जल समाधि ली। चारों बालक उनके बाद अनाथ रह गए। वे अब भिक्षावृत्ति से अपना गुजारा करने लगे। संन्यासी की सन्तान होने के कारण आलन्दी के ब्राह्मण इनका यज्ञोपवीत संस्कार कराने के लिए राजी नहीं थे, अतः चारों भाई-बहिन पैठण पहुंचे। वहाँ ज्ञानदेव से किसी ने पूछा "तुम्हारा क्या नाम है?" उत्तर मिला 'ज्ञानदेव' पास खड़े दूसरे आदमी ने ताना मारते हुए एक भैंसे की ओर इशारा करके कहा "यह हमारा भैसा भी ज्ञानदेव है, बिचारा सुबह से शाम तक ज्ञान का ही बोझा ढोया करता है। क्या आप भी ऐसे ही ज्ञानदेव हैं ?" इस पर ज्ञानदेव नाराज नहीं हुए। उसी नम्रता से बोले "हाँ, हाँ, बिलकुल ऐसा ही है, मुझमें और इसमें कोई भी भेद नहीं है। जो यह है सो हीं मैं हूँ।" यह सुन किसी ने साँटा उठाया और भैंसे की पीठ पर सटासट दो जमाकर बोला "ये साँटे तुम्हें भी लगे होंगे, यदि तुममें और इसमें कोई भेद नहीं है तो?" उत्तर में ज्ञानदेव ने अपना शरीर उधाड़ कर दिखला दिया। उस पर साँटे के चिन्ह बने हुए थे। इतने पर भी उनको ज्ञान न हुआ और एक ग्रामीण फिर बोल उठा "यह भैंसा यदि तुम्हारे जैसा है तो अपनी सी ज्ञान की बातें इससे भी करायो।” ज्ञानदेव ने भैंसे की पीठ पर हाथ रखा कि वह ॐ का उच्चारण करके वेद पाठ करने लगा। तब उन्होंने समझा कि यह कोई साधारण ब्राह्मण नहीं है, यह तो बड़ा तेजस्वी महात्मा है और सभी उनके चरणों पर गिर पड़े।
एक बार श्राद्ध के दिन श्रीज्ञानदेव जी एक ब्राह्मण के पर बैठे थे। ब्राह्मण श्राद्ध की तैयारी कर रहा था। उसी समय ज्ञानदेवजी ने आह्वान करते हुए कहा- "आगन्तव्यम्" और उसी समय ब्राह्मण के पितृगण सशरीर आकर उपस्थित हो गए।
जब पैठन के ब्राह्मणों ने ऐसा चमत्कार देखा तो इन्हे शुद्धिपत्र लिख दिया। उन्होंने पैठण निवास काल में शास्त्र और आर्षग्रन्थों का अच्छी तरह अध्ययन किया। लोग उनकी ज्ञान-निष्ठा और सिद्धि से मुग्ध हो गये और उनके मुख से भगवान के नाम का कीर्तन सुनकर तथा भागवत कथामृत का रसास्वादन कर अपने आपको धन्य करने लगे। पैठण-निवासियो का जीवन उनके पुनीत सत्संग से सफल हो गया। पैठण से ज्ञानेश्वर ने आले नामक स्थान पर होते हुए नेवासे की यात्रा की। आले में ही उन्होने वेदपाठी भैंसे को समाधि दी। नेवासे प्रवरा नदी के तट पर एक परम पुनीत स्थान है। नेवासे में पहुँचते ही उन्होने एक स्त्री को अपने पति का मृत शरीर गोद में लेकर विलाप करते देखा। उन्होने पति का नाम पूछा, लोगों ने मृत का नाम सच्चिदानन्द बताया, ज्ञानेश्वर ने कहा कि सत्-चित्-आनन्द तो मृत्यु से परे हैं, उन्होंने सच्चिदानन्द के शरीर पर हाथ फेरा, प्राण लौट आया, लोगों ने सन्त ज्ञानेश्वर का जयनाद किया, सच्चिदानन्द ने ही ज्ञानेश्वरी लिपिबद्ध की थी। कुछ दिनों के बाद ज्ञानेश्वर आलन्दी चले आये, लोगो ने उनका अच्छी तरह स्वागत किया। आलन्दी से नेवासे वापस आने पर ज्ञानेश्वर ने पन्द्रह वर्ष की आयु में संवत् १३४७ वि. में 'ज्ञानेश्वरी' ग्रन्थ पूरा किया ।
सन्त ज्ञानेश्वर ने तीर्थ-यात्रा आरम्भ की। उनके साथ निवृत्तिनाथ, सोपानदेव, मुक्ताबाई, नरहरि सोनार, गोरा कुम्हार, विसोबा खेचर, चोखामेला आदि तत्कालीन प्रसिद्ध सन्त थे। वे पंढरपुर गये। उन्होने विट्ठल के आदेश से सन्त नामदेव को अपने साथ लिया। विट्ठल ने स्वयं नामदेव का हाथ उन्हें पकड़ा कर कहा कि ये हमारे परम प्रिय है, इनको सम्हाल कर अपने पास रखियेगा। उन्होंने सन्त मण्डली के साथ उज्जैन, प्रयाग, काशी, अयोध्या, गया, गोकुल, वृन्दावन, गिरनार आदि तीर्थक्षेत्रों की यात्रा की। लोगो को अपने सत्संग से सचेत कर जागरण-सन्देश दिया, भवसागर से पार उतरने का सुगम और सुलभ मार्ग बताया, स्थान- स्थान पर हरिभक्ति सुधा का वितरण किया। सन्त ज्ञानेश्वर के जीवन में इस ऐतिहासिक यात्रा का बड़ा महत्व था । समस्त भारत देश में सन्त ज्ञानेश्वर और उनके साथियों की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। वे मारवाड़ और पंजाब की ओर भी गये थे। तीर्थयात्रा से लौटने पर पंढरपुर में सन्त नामदेव ने इस यज्ञ की पूर्ति के रूप में एक विशाल उत्सव का आयोजन किया था। पंढरपुर के उत्सव में सम्मिलित होकर सन्त ज्ञानेश्वर आलन्दी चले आये ।विदा होते समय नामदेव उनके चरणों पर गिर पड़े, सन्त ज्ञानदेव ने उनको गले लगा कर कहा कि तुम भक्त कुलशिरोमणि हो, तुमने समस्त भरत-खण्ड को अपनी उपस्थिति से धन्य कर दिया।
सन्त ज्ञानेश्वर ने अपने बड़े भाई निवृत्तिनाथ को अपना पथ-प्रदर्शक बनाया था, निवृत्तीनाथ उनके सद्गुरु थे ज्ञानेश्वर की भक्ति उच्च कोटि की थी। उन्होंने एक स्थल पर कहा है कि इस शरीर की मिट्टी मैं उस भूमि में मिला दूँगा जिस पर मेरे गुरुदेव के श्रीचरण अंकित होंगे। मेरे स्वामी जिस जल का आनन्दपूर्वक स्पर्श करेंगे उसमें मैं अपने शरीर का रस मिला दूंगा। निवृत्तिनाथ गोरखनाथ की योगपरम्परा में दीक्षित थे। इसलिये ज्ञानेश्वर की साधना योगपद्धति और विशेषता से नाथसम्प्रदाय के सिद्धान्तो द्वारा प्रभावित थी, उन्होने अपनी तीर्थयात्राके समय अनेक यौगिक चमत्कार भी दिखलाये थे, वे जन्मजात योगी थे । सन्त ज्ञानेश्वर ने एक बार विचित्र यौगिक चमत्कार दिखाया। खानदेश में तापी नदी के तट पर चांगदेव नाम के एक प्रसिद्ध योगी थे। वे चर्मचक्षुओं को बन्द कर शिव की उपासना कर रहे थे । उन्होंने किसी से भैंसे द्वारा वेदमन्त्र पढने की बात सुनकर ज्ञानेश्वर से मिलने की उत्सुकता प्रकट की और संत ज्ञानेश्वर को पत्र भेजा, ज्ञानेश्वर ने प्रेमपूर्ण उत्तर दिया। चांगदेव सांयकाल योगबल से सिंह पर सवार होकर और हाथ में साँप का चाबुक लेकर ज्ञानेश्वर जी से मिलने आये सन्त ज्ञानदेव अपने घर की दीवार पर बैठ कर निवृत्तिनाथ से बाते कर रहे थे। चांगदेव का आगमन सुनकर वे दीवार पर बैठे-बैठे ही मिलने चल पड़े, दीवार उनकी आज्ञा से चलने लगी। चार सौ साल के तपस्वी योगी, बालयोगी ज्ञानेश्वर के यौगिक चमत्कार से चकित हो गये, उनका मद-ज्वर उतर गया। ज्ञानेश्वर ने उनसे प्रेमपूर्वक बात की।
नारायणी भक्ति—विष्णु उपासना का निर्गुण ज्ञानधारा के माध्यम से प्रचार करना ही सन्त ज्ञानेश्वर के जीवन का सबसे उत्तम कार्य था । उन्होने कहा है कि शास्त्र का प्रमाण है, श्रुति का वचन है कि नारायण ही जपो के सार है, वस्तुतत्व है। ज्ञानेश्वर ने नारायण के नामस्मरण का राजमार्ग दिखाया। भागवत धर्म के प्रचार के साथ-ही-साथ योग मार्ग की परम्परा का भी उन्होंने संरक्षण किया। वे समस्त भूतसृष्टि को एक स्वरूप मानते थे। उन्होने प्राणीमात्र को समान रूप से बिना किसी भेदभाव के मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी घोषित किया। उन्होने भूत मात्र में पारस्परिक मैत्री भाव उत्पन्न करने के लिये लोगो को अनुप्रेरणा दी। उन्होने पापरूपी अन्धकार का नाश कर निर्मल ज्ञान-प्रकाश में प्राणियों को आत्मदर्शन कराया।
ज्ञानेश्वर ने इक्कीस साल, तीन मास, पाँच दिन तक पृथ्वी पर रह कर मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी को सम्वत् १३५३ वि. में जीवित समाधि ली । समाधि का दृश्य विलक्षण था। उनकी समाधि लेने के बाद एक साल के भीतर ही सोपानदेव, मुक्ताबाई और निवृत्तिनाथ ने भी महाप्रयाण किया। सन्त ज्ञानेश्वर ने दोपहर को उक्ततिथि पर आलन्दी में समाधि ली। नामदेव उनकी समाधि के अवसर पर उपस्थित थे। उन्होने समाधि का आँखो देखा वर्णन ढाई सौ अभंगों में किया है, उन अभंगों पर किसी भी स्थिति में अविश्वास नही किया जा सकता है, सन्त की वाणी है, सन्त की वाणी में तनिक भी सन्देह करना महापाप है। समाधि लेने के पहले एकादशी को सन्त ज्ञानेश्वर पंढरपुर गये। निवृत्तिनाथ, मुक्ताबाई, सोपानदेव आदि साथ थे। नामदेव का कथन है कि सन्त ज्ञानेश्वर ने चन्द्रभागा में स्नान किया, भक्त पुण्डलीक का दर्शन कर वे विट्ठल मन्दिर में आये, उन्होंने सन्त-मण्डली के समक्ष समाधि की बात कही नामदेव समाधि की बात सुन कर सिहर उठे, सन्तो का मन उदास हो गया। विट्ठल ने प्रकट होकर ज्ञानेश्वर को दर्शन दिया, भगवान ने कहा कि तुम ज्ञान की मूर्ति हो। विट्ठल ने उनको गले लगाया। सन्तमण्डली ज्ञानेश्वर के साथ आलन्दी आ गयी, पण्ढरीनाथ उनके साथ आये, समाधि का शुभकार्य विट्ठल ने अपने हाथ से सम्पन्न किया। सन्तों और भक्तों ने इन्द्रायणी में स्नान कर विट्ठल का पूजन किया। कीर्तन होने लगा। चारो ओर भगवान् के नाम की रसमयी ध्वनि छा गयी। भगवान प्रत्यक्ष रूप से भक्तों और सन्तों को साथ लेकर सिद्धेश्वर शंकर के मन्दिर में आये। सोपानदेव पाण्डुरंग के चरणों से लिपट गये। निवृत्तिनाथ उन्मनी अवस्था में थे, ज्ञानेश्वर गुरु निवृत्तिनाथ के चरण पकड़ कर आत्म चिंतन में निमग्न थे। नामदेव और सन्त-जन ज्ञानदेव के वियोग की आशंका से सन्तप्त थे। नामदेव का शरीर विलाप करते-करते सुन्न हो गया था। निवृत्तीनाथ की थोड़ी देर के लिये समाधि भंग हुई। उन्होने ज्ञानेश्वर के मुख पर हाथ फेरा, मंगलमय प्रयाण का आशीर्वाद दिया। उनका बड़े स्नेह और अपूर्व आत्मीयता से आलिंगन किया। विट्ठलभगवान ने ज्ञानेश्वर के ललाट पर केसरयुक्त चन्दन लगाया। गले में माला पहनायी, सिद्धेश्वर मन्दिर की बायी ओर अजान वृक्ष की छाया में गुफा में ले गये। ज्ञानेश्वर का एक हाथ निवृत्तिनाथ ने पकड़ा था और दूसरा साक्षात् पण्डरीनाथ पकड़ कर चल रहे थे। करुण और परम दिव्य दृश्य था। गुफा से पाण्डुरंग और निवृत्तिनाथ बाहर आ गये, द्वार शिलाखण्ड से बन्द कर दिया गया।
सन्त ज्ञानेश्वर ने ज्ञान, भक्ति और तप-कर्म का पवित्र समन्वय किया, वे आत्मज्ञानी, दिव्य योगी और सन्त भक्त थे ।
(( रचनाये ))सन्त ज्ञानेश्वर की प्रसिद्ध रचनायें– भावार्थदीपिका-ज्ञानेश्वरी, अमृतानुभव, हरिपाठ के अभंग, चांगदेव पासठी प्रसिद्ध है। इन्होनें योगवासिष्ठ पर अभंगात्मक टीका लिखी थी।
(( वाणी ))★. जिस प्रकार एक ही पहाड़ के भीतर देवता, देवालय और भक्त परिवार का निर्माण खोद कर किया जा सकता है उसी प्रकार भक्ति का व्यवहार एकत्र रहते हुए सर्वथा सम्भव है।
★. चारों वेद, छ शास्त्र और अठारह पुराण हरि के ही गीत गाते है।
★. निस्सन्देह गीता वाग्विलास-शास्त्र नहीं है, संसार-विजय का शस्त्र है। इसके अक्षर वे मन्त्र है जिनसे आत्मा का अवतार होता है।
★. हरि के नाम का उच्चारण करने से अनन्त पापसमूह पलभर में भस्म हो जाते है ।
★. भक्ति के बिना तीर्थ, व्रत, नियम, और अनेक सिद्धि लोगों के लिये व्यर्थ की उपाधि है।
★. राम-कृष्ण का नाम अनन्त राशितप है, पाप उसके सामने भाग जाते है। हरि के बिना यह संसार व्यर्थ है। झूठा व्यवहार है। आना-जाना व्यर्थ है।
★. निरन्तर हरि का ध्यान करने से सब कर्मों के बन्धन कट जाते है। राम कृष्ण के नाम के उच्चारण से समस्त दोष दिगन्त में भाग जाते है।
★. सोने का सारा पृथ्वीतल ढाला जा सकता है, चिन्तामणियों का मेरु के समान पहाड़ बनाया जा सकता है। सातों समुद्र अमृतरस से लबालब भरे जा सकते है, छोटे-छोटे नक्षत्र चन्द्रमा बन सकते है, कल्पवृक्ष लगाये जा सकते है पर गीता का रहस्य सहज में स्पष्ट नही किया जा सकता है।
★. परमेश्वर मेरे ज्ञानेश्वरी यज्ञ से संतुष्ट होकर मुझे केवल इतना ही प्रसाद दें कि दुष्टो की कुदृष्टि सीधी हो जाय, उनके हृदय में सत्कर्मों के प्रति प्रेम उत्पन्न हो। भूतमात्र में मैत्री हो। पाप का अन्धकार नष्ट हो, आत्मज्ञान के प्रकाश से विश्व उज्ज्वल हो, प्रत्येक प्राणी इच्छित वस्तु पाये।
|| जय श्रीहरि || 🙏🏻