Nafrat ka chabuk prem ki poshak - 3 in Hindi Love Stories by Sunita Bishnolia books and stories PDF | नफरत का चाबुक प्रेम की पोशाक - 3

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नफरत का चाबुक प्रेम की पोशाक - 3

कमरे के अन्दर लाने से पहले माली काकी उसके हाथ पैर अच्छी तरह से धोती थी। पड़ौस के लड़के भी इतने सब्र वाले थे कि वो उसके सारे काम होने तक वहीं रहते और उसे बिस्तर पर सुलाकर ही वापस आते। वो सारे बच्चों के लिए कभी बेर, कभी भुने चने, कभी इमली तो कभी चूर्ण की गोलियाँ लेकर आया करती थी। सारे बच्चे अपने अपने हिस्से की चीज़ लेकर ही वापस आते थे।
लड़कों के जाने के बाद उसे भी कुछ ना कुछ खिला देती और कुछ देर बेटे के सिर पर हाथ फेर कर माथा चूमती थी और अल्लाह का शुक्रिया अदा करती थी कि उसने उसकी आँखों के तारे की जान बख्शी।
अब बारी आती खाना बनाने की तो माली काकी फटाफट खाना बना लेती अब दो जनों में क्या तो खाना बनाना। बीमार बेटा तो वैसे ही बहुत ही थोड़ा और हल्का-फुल्का खाता था इसीलिए उसके लिए वो कभी खिचड़ी तो कभी दलिया बना लेती और खुद भी वहीं खालेती।
कभी ज्यादा ही हुआ तो खुद के लिए दो रोटी बना लिया करती थी । अपने लिए उसे सब्जी की तो जरूरत नहीं होती वो तो प्याज या लहसुन की दो कलियां कूटकर मिर्च मिला लेती और उसी के साथ रोटी खा लेती।
सावित्री काकी के यहाँ से माली काकी ने दूध बांध रखा था इसलिए कभी उनका बेटा या कभी खुद सावित्री काकी दूध ले आती थी।
सावित्री काकी जब भी आती, कटोरी भर कर सब्जी या दाल ले आती थी। जिसमें से माली काकी आधी सब्जी रात को तो आधी सब्जी सुबह खा लेती थी। खुद खाना खाने से पहले काकी बेटे सगीर को दीवार और तकिये का सहारा लगाकर बिठा देती थी।
सगीर अपने टेढ़े मेढ़े हाथों को आगे बढ़ाकर माँ को खिलाने की कोशिश करता तो कभी खुद खाने की इस खाना बिस्तर पर गिर भी जाता था। दोनों माँ बेटे के प्यार का वो दृश्य तो आँखों में भरने लेने वाला होता क्योंकि सगीर खुद खाने की कोशिश करता तो माली काकी खुद उसे खिलाना चाहती है। तो वो जोर से हँसकर बड़ा-सा मुँह खोल देता है और माँ के हाथ से खाता है। फिर खुद अपने हाथ से माँ को खिलाने की कोशिश करता तो काकी जल्दी से नीचे झुकती और उसके हाथ से खाना खाकर आँखें बंद कर लेती और दोनों जोर से हँस पड़ते।
बेटे को खाना खिलाकर काकी उसके हाथ मुँह धोती और उसे लिटकर प्यार से उसे गले लगाकर माथा चूमती और खुद भी पास में पड़ी खाट पर बैठ जाती अपनी ढ़पली लेकर।
बेटे को देखते हुए धीरे-धीरे ढपली बजाती और बेटे को खुश देखकर खुद भी खुश होकर ढ़पली बजाना रोकर देती और अपने लाड़ले की बलाईयां लेती।
अपनी ओर एकटक देखते बेटे को सुलाने के लिए अपने मीठे कंठों से गाया करती अक्सर ही एक लोरी - ‘‘धी
रे से आजा री अँखियन में निंदिया आजा री आजा।"

नौ बजे तक बेटा गहरी नींद में सो जाता है तो वो फिर उठा लेती सुख दुख की साथिन अपनी ढ़पली। धीमी-धीमी थाप पर धीरे-धीरे गुनगुनाया करती।
माली काकी के मधुर कंठों से निकला विरह गीत लोगों को सोने नहीं देता। उनकी आवाज में वो दर्द,वो पीड़ होती कि हर किसी का ध्यान उस ओर चला जाता।
खास कर जब वो गाती- ‘मुझे छोड़ गए बालम हाय! अकेला छोड़ गए... ।’’
क्रमशः...

सुनीता बिश्नोलिया