Tash ka aashiyana - 19 in Hindi Fiction Stories by Rajshree books and stories PDF | ताश का आशियाना - भाग 19

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ताश का आशियाना - भाग 19

गंगा रागिनी से बात करने के बाद रिक्शा में बैठी। सूरज अपने परमसीमा पर पहुंचने की कोशिश में था।
सूरज गंगा की गोदी से ऊपर आया तब से लेकर सूरज सिर पर नाचने तक गंगा बाहर थी। इसलिए बिना कुछ सोचे उन्होंने रिक्शा लेना ठीक समझा। यह कोई 25 मिनट में घर पहुंच जाती रिक्शा की मदद से।
घर जाकर बहाना भी तो बनाना था, जो परिस्थिति के अनुकूल हो।
लेकिन अभी भी मन कुछ महीने पहले अतीत को ही कुरेद रहा था।
रागिनी का सिद्धार्थ के जिंदगी में आना कोई दैवी- चमत्कार नहीं था।
शास्त्री जी के चेले–सुपुत्र देवधर शास्त्री।
बाप के नाम के कारण ज्योतिषी में ज्यादा किस्मत रगड़ने की जरूरत नहीं पड़ी इन्हें।
शास्त्री जी के जाने बाद उनका सब कारोबार देवधरजी ने बिना हिचकिचाहट संभाल लिया।
देवधरजी आदतनुसार किसी ना किसी के घर डेरा डालते ही रहते। हमारी कुंडली, शादी, नक्षत्र, आत्माशांति पूजा और न जाने कितने काम।
एक हथेली, लग्न चक्र नवमासा इन छोटी दिखने वाली चीजों से मरने तक भविष्य पता चल जाए ऐसी हर किसी की अभिलाषा थी।
ऐसे ही योग, प्रतियोग करते–करते बनारस में कितनों का यह व्यापार बन गया पता ही नहीं चला।
यही एक व्यापार को आगे बढ़ाते हुए फिलहाल देवधर जी सिद्धार्थ के घर बैठे थे।
"यह लड़की आपके लड़के के लिए बिल्कुल सौ टक्का सही है। (देवधर जी गंगा जी को तस्वीर दिखाते हुए) भारद्वाज साड़ी के मालिक की इकलौती बेटी है।"

"वैसे बेटे भी है लेकिन पूरे खानदान में सिर्फ एक ही लड़की है।"
"वह इतने बड़े लोग हमसे क्यों रिश्ता जोड़ेंगे?" नारायण जी ने सवाल दागा।
"उनकी बेटी मांगलिक है नारायण जी बहुत से रिश्ता है पर उनके कभी गुण नहीं मिले कभी आदतें नहीं मिली।और श्रीकांत जी अपनी बेटी पर कोई जबरदस्ती नहीं करना चाहते इसलिए शादी में अड़ंगा आ रहा है।" "लड़की इस साल 30 साल की हो जाएगी इसलिए श्रीकांतजी जरा ज्यादा तकलीफ में है फिलहाल कोई विकल्प ना होते हुए भी दूध में मक्खी की तरह फेंक रही लड़को को; क्या कहेंगे आप ऐसे लड़की को।" देवधरजी लड़की की बुराई ऐसे कर रहे थे मानो पिछले जन्म की शत्रुता पाल रखी हो।
"फिर वह हमारे बेटे को क्यों पसंद करेंगे भला?" देवधर जी नारायण जी के इस सवाल पर सकपका उठे।
अपना गला साफ कर उन्होंने अपनी पीठ सीधी कर ली एक दात–दिखावू हसी हंसते हुए वो बोल उठे,
"ऐसा कुछ नहीं है नारायण जी रागिनी बहुत अच्छी लड़की है लंदन में दिमाग के मरीजों की डॉक्टर है डॉलर में पैसा कमाती है आपका भी तो लड़का इधर-उधर घूमता ही रहता है।" (गंगा ने आखिर छोटी कर देवधरजी को देखने लगी) "मेरा मतलब व्लॉगर है वह भी काफी अच्छा खासा फेमस है।लंदन की रीति–भाती से वाकिफ भी है फिर और क्या चाहिए?"

"लेकिन फिर भी उन्हें हमारे परिस्थिति से कोई परेशानी हुई तो? देखिए एक शादी के लिए हम अपने भविष्य को दाव नहीं लगा सकते ताकि हम उनके स्टेटस में बैठ सके।" नारायणजी विधान दे उठे।
"इसकी आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए बहनजी, मैंने लड़की के माता-पिता से पहले ही विचार-विमर्श कर लिया है तभी तो यह बात आपसे कह रहा हूं। लड़का फिलहाल 32 साल का है आगे जाकर लड़की मिलना भी काफी मुश्किल हो जाएगा।"

"अरे जल्दी उठ नासपीटे! कितनी देर तक सोता रहेगा।" नारायणजी झल्ला उठे।
"5 मिनट और इतना कह उसने फिर अपने ऊपर चादर ओढ़ ली।"
पापा ने वह चादर निकालकर कहीं कोने में फेंक दी।
"क्या है पापा! सुबह–सुबह रोज तो मेरी शक्ल देख कर भी आपका दिन खराब हो जाता है।"
" वह आज भी हुआ, बस तू उठ वरना ठंडा पानी डाल दूंगा।"
"क्या बाहर के गटर का? सिद्धार्थ पिता की खिल्ली उड़ा रहा था।
"गंगा! गंगा! इधर आओ जरा।"
"अरे मां को क्यों परेशान कर रहे हो, उठ गया देखो" सिद्धार्थ अंगड़ाई लेते हुए बोला।
वैसे वाली अंगड़ाई जैसे सुबह उठकर लड़के लेते हैं ना कि वैसे वाली जैसे सीरियल के कलाकार। उठ कर वो सीधा फ्रेश होने चला गया। व्हाइट शर्ट ब्लैक जीन्स पहन कर बाहर आया ऊपर से उसका वही रेड लेदर कोट, लिविंग रूम में आते ही ब्रेकफास्ट करने टेबल पर बैठ गया।
"आज लड़की वाले मिलने आने वाले हैं।"
उसे यह बात अटपटी और बेमतलब दोनो लगी। उसने फटाफट नाश्ता खत्म किया पानी पिया और वहां से उठ कर जाने लगा।
"कहां जा रहे हो?" सिद्धार्थ के पिता ने खींजते हुए पूछा।
"बाहर।" सिद्धार्थ ने सिर्फ औपचारिकता पूरी की।
"पर बेटा आज लड़की वाले देखने आ रहे हैं।" गंगा ने बैचेनी के साथ कहा।
"मां मैंने आपको पहले ही बता दिया है मुझे इस शादी-वादी के चक्कर में कोई इंटरेस्ट नहीं है।"
"इंटरेस्ट नहीं है तो क्या जन्म भर हमारे छाती पर मूंग दलेंगा।" पिताजी झल्ला उठे।
"आप कहते हो तो मैं यहां से चला जाऊंगा।" सिद्धार्थ ने प्रामाणिकता से कहा।
"हां तो तुम कब अपने घर में रहते हो। सिर्फ जिंदा हूं या मर गया यह दिखाने के लिए ही तो यहां आते हो!" पिताजी आवाज चढ़ाकर बोले।
"शुक्र कीजिए भगवान का आपके मरने से पहले वापस आया हूं।"
"बदतमीज!" सिद्धार्थ के पिता का सब्र छूट रहा था।
"यह मेरा बेटा नही है।" सिद्धार्थ की मां की तरफ इशारा कर बोल उठे।
"यह आप क्या कह रह जी?" सिद्धार्थ में रोने लगी।
इस बीच सिद्धार्थ वहा से जाने लगा।
"रुक तू! तू कहीं नहीं जाएगा धोती कुर्ता पहन बाहर आओ, कुछ ही देर में मेहमान आने वाले हैं।"
"बिल्कुल नहीं, एक बार में.."
मां अभी जोर–जोर से रोने लगी।
"हम तुम्हारे लिए सिर्फ अच्छा ही चाहते हैं।" मां अपना मेलोड्रामा शुरू करने लगी ऐसा सिद्धार्थ को लगा।
सिद्धार्थ शक्ल बनाते हुए अंदर गया और दरवाजा धड़ाम से बंद कर दिया।
"आ!!" पागल हो गए हो गए है यह लोग।
मैने इन्हे कितनी बार कहा है, मुझे शादी नही करनी फिर
भी इनके कान में जूं तक नहीं रेंगती।
That's it. अब हद हो गई, अभी मुझे ही कुछ करना होगा।
लेकिन क्या?
पूरे रूम भर में आगे पीछे कर वो फ्रस्ट्रेडेड हो चुका था।
उसने अपने विचार को थोड़ा पूर्णविराम लगाकर जैसे ही खुली सांस लेने के लिए खिड़की खोली उसे ताजी सांस के साथ ताजा आइडिया भी मिल गया।
उसने अपने माता–पिता को A4 साइज पेपर पर बड़े सलीके और बेशर्मी के साथ एक खत लिखा।
और अपना वॉलेट और मोबाइल लेकर टेबलपर चढ़ वहा से कूद गया।
जमीन सक्त थी तो घुटनो को खरोंच आई पर खुद की योजना कामयाब होते देख वो लंगड़ाते–लंगड़ाते हुए भी हंस दिया।
गेट खुला ही था, एक व्हाइट ऑडी बाहर ही खड़ी थी।
नीम के पेड़ के पास एक लड़की फोन पर बात कर रही थी।
उसकी पीठ सिद्धार्थ की तरफ थी, कुछ सेकंड के लिए जिज्ञासा के मारे वह उस लड़की का चेहरा देखना चाहता था इसलिए वो वही खड़ा रहा।
लड़की ने लाल रंग की सुंदर साड़ी पहन के रखी थी, देखने के लिए आजकल की हिंदी हीरोइनों की तरह नहीं थी लेकिन साउथ इंडियन हीरोइनों की तरह अपनी शारीरिक अदा से किसी का भी दिल मोह लेने की बात थी उसमें।
लेकिन जैसे ही लड़की फोन पर बात करते ही पीछे मुड़ी वैसे ही घबराहट के मारे सिद्धार्थ ऑडी के सहारे छुप गया।
लड़की का मुंह देखने का सौभाग्य उसे नहीं मिला।
लड़की के अंदर जाते ही,"बच गया भाई वरना पूरा फस जाता अब निकल यहां से।"
अपने आपको थोड़ा बहुत कोस सिद्धार्थ वहां से खिसक गया।
"बाईजी घर आ गया।"
गंगा घर पहुंच चुकी थी। पैसे देकर वह जैसे ही रिक्शा से नीचे उतरी वैसे ही उसने देखा की नारायणजी वरांडे में आगे पीछे कर रहे थे।
"उनके पास जाते ही, कहां थी तुम अब तक?"
"जी! सब्जी और कुछ किराना लाने गई थी।"
"इतना देर?"
"हां! वो आज भीड़ बहुत ज्यादा थी। मोहनलाल की दुकान पर।"
"ठीक है–ठीक है जाओ अभी, बहुत भूख लगी है कब से?"
गंगा थोड़ा थकी–थकी नजर आ रही थी लेकिन फिर भी एक मुस्कान के साथ उन्होंने अपने पति को जवाब दिया
"जी जरा आधा घंटा दीजिए अभी गरमा गरम रोटियां बना के लाती हूं। वैसे भी दाल‌ को तड़का देना ही बाकी है।"
गंगा जी जाने ही वाली थी की," रोटी रहने दो थोड़ा दाल भात ही बना दो।"
"जी, पर सिद्धार्थ को पसंद नहीं ना!"
"उसका क्या करना है? वो वैसे भी आया है तब से रूम से बाहर ही नहीं निकला है।"
"ठीक है, जी आप जैसा कहें।"

दूसरी तरफ।

"कहा हो तुम मुझे स्टेशन पर पोहचे आधा घंटा हो चुका है।"
"हा बस आ ही रही हु।"
अगली ट्रेन छूट रही थी, चने–भेल वाला चने बेच रहा था, जगह जगह नाश्ता बेचने वाले छोटे–मोटे resturant थे। अखबार और मैगजीन बेचने वाले कोने में दुबके हुए थे और वही मैगजीन के बीच एक छोटे रेडियो पर गाना चल रहे थे।
चाय वाले इधर–उधर घूम रहे थे, स्टेशन पर छोड़ने आने वाले लोग और जाने वाले लोग काफी हद तक भावुक थे और उनकी इसी कमजोरी का मानो फलक पर हो रही सूचनाएं फायदा उठा रही थी, अलानी–फलानी ट्रेन अभी कुछ समय में जंक्शन से निकलेगी।
कुछ सफर खत्म हुआ इसीलिए चैन की सास ले रहे थे,
उसी में से एक लड़की अपनी दोस्त का इंतजार कर रही थी।
इंदौर वाली ट्रेन उसे यहाँ छोड़ के गई थी।
बाई तरफ काली रंग की अटैची थी, दाई तरफ लाल रंग की बैग थी, उसके हाथ में कैमरा था जिससे वो आजू–बाजू की वीडियो बना रही थी। आने जाने लोग उसे घूर–घूर कर देख रहे थे।
पहनावे के तौर पर सफेद रंग का क्रॉप टॉप और ब्लू और घुटनों से फटी हुई जीन्स पहनी थी।
वर्ण गोरा, काले पीठ तक जाते बाल जिसे तोड़मरोड़ के क्लिप लगाई हुई थी।
वो वीडियो खीच ही रही थी। की तभी कैमरा रोटेट करते हुए उसे प्रवेश द्वार से रागिनी आती दिखाई दी।
उसने कैमरा बंद किया।
"मुझे लगा तू यहां का रास्ता ही भूल गई।"
"क्यों?" रागिनी ने हंसकर पूछा।
"क्यों! आधा घंटे से यहां तेरा इंतजार कर रही हु।
तेरे यहा आने का कुछ पता ही नही।"
"ठीक है बाबा गुस्सा मत हो किसी काम में फस गई थी।
अब जल्दी चल ऑटो बाहर ही खड़ा है।"
"ठीक है चल।" लड़की ने एक लंबी सास लेते हुए मान गई।
दोनो समान पकड़ चल दी।
"तो क्या चल रहा है आज–कल?"
"मेरा क्या पड़ी हुई अभी बनारस में, सोच रही हु काम खत्म होते ही लंदन वापस चली जाऊं।"
"ओ वाव! तो कब खत्म होने वाली है तुम्हारी इंटर्नशिप।"
"अभी इस साल खत्म करूगी, डॉक्टर पेल्विक के साथ मुझे एक ब्रेन ट्यूमर का केस भी assist करने जाना है।
"कुल बॉस, यू आर रियल जीनियस।"
"No I am not i am just intern."

"और तेरा क्या? बन गई तू सिनेमेटोग्राफर।" इस बार बारी रागिनी की वो भी अपने दोस्त की जिंदगी के बारे में जानने के लिए उत्सुक थी। ‌ उत्सुकता ही तो दोस्ती की पहली सीढ़ी होती है।
"सिनेमेटोग्राफर? वो तो बस सपना ही था अभी फिलहाल सिविल सर्विसेस की तयारी।"
"क्यों? तू तो दिन–रात कैमरा लेके घुमती रहती उसका क्या प्रतीक्षा!"रागिनी का स्वर आश्चर्य से चढ़ गया।
मैने पापा से कहा लेकिन वो बोले, "फालतू चीजों में गवाने के लिए पैसा नहीं है। वैसे भी तेरे शादी में दहेज भी देना होगा। जो भी कुछ करना है अपने पति के भरोसे करना।"
"तो तुमने अपने पापा को समझाने कोशिश क्यों नही की?" रागिनी जिज्ञासा से पूछ उठी।
"तुम्हे पता भी है की, मुंबई में एक दिन का खर्चा कितना है! और इतना ही तुम्हे हमारी बात की कदर नही तो अपना खाना पीना धोना अपने भरोसे करना सीख लो, तेरे ऐसे सपने के चक्कर में बचे कूचे कपड़े भी नही उतरवाने!"
रागिनी जोर–जोरसे हस दी।
"क्या यार मैं तुम्हे बता रही हु, अपना दुःख और तू हस रही है। प्रतीक्षा रुआसा हो गई।"

"सॉरी यार, लेकिन एक बात बताऊं (प्रतीक्षा ध्यान ना देते देख) तू और मैं एक ही नाव के दो सवारी है।"
प्रतीक्षा की आंखे जिज्ञासा से सिकुड़ गई।
"मतलब?" आश्चर्य और सवाल दोनों झलक रहे थे उसके मुंह से।
दोनों तय किए हुए ऑटो में बैठ गई।
"मेरे परिवार वालो ने शादी के बारे में रट लगाकर मुझे परेशान कर रखा है।"
"अरे हां तुमने बताया था, मुझे वो लडको से मुलाकात और वो तुम्हारे पिता से वो आखरी प्रोमिस की लड़के ने खुद मना कर दिया तो वो तेरी शादी का पागलपन छोड़ देंगे।"
"कुछ नहीं, नहीं हुई शादी?"
"नहीं हुई शादी!"
"तो फिर तो अब यहां क्या कर रही है? लंदन क्यों नहीं चली गई? और कैलकुलेशन के अनुसार तुमने तो उसे मना नहीं किया होगा। तो उसने तुम्हे रिजेक्ट कर दिया?"
"नाही मैंने उसे मना किया नाही उसने मुझे रिजेक्ट किया।"
"तो फिर इतना भी सस्पेंस मत बढ़ाओ रागिनी,जल्दी से बताओ ना!"
जैसे कुछ देर पहले रागिनी प्रतीक्षा के बारे में जानने के लिए उत्सुक थी अभी प्रतीक्षा की उत्सुकता बढ़ गई थी रागिनी के बारे में जानने के लिए।
एक नए रिश्ते की शुरुआत आखिरकार उस व्यक्ति के बारे में जिज्ञासा से ही होती हैं।
"वो मिलने से पहले ही भाग गया।" रागिनी हल्के से आवाज में बुदबुदाई।
"क्या!?" इस बार प्रतीक्षाने अपने आवाज पर का नियंत्रण खो दिया।
इस कारण ऑटो ड्राइवर का भी ध्यान उन पर चला गया।
रागिनी ने मौके की नजाकत समझते हुए, "तू शांत हो जा अभी, मैं घर चलकर बताती हूं।"
"हां क्यों नहीं?" प्रतीक्षा मायूस होकर दुबक कर बैठ गई।
दोनों आखिरकार लंबे सफर के बाद के घर पहुंच
गए।