अपने आँसू पोंछते हुए अमर ने एक बार साधना की तरफ देखा, जिसका चेहरा आँसुओं से धुल चुका था।
आँखें रक्तिम सी हो चुकी थीं, लेकिन अपने आँसुओं को पोंछते हुए उनकी नजरों में असीम संतोष के भाव उमड़ते देखकर अमर को आंतरिक खुशी महसूस हुई।
बिरजू की बात सुनकर अनायास ही उसकी नजर अपनी कलाई में बंधी घड़ी पर चली गई। लगभग एक बजने जा रहे थे।
आगे बढ़कर साधना के कदमों में झुकते हुए अमर बोल पड़ा, "अच्छा माँ ! अब हमें इजाजत और मुझे आशीर्वाद दो कि मैं अपनी बहन बसंती को इंसाफ दिलाने के अपने मकसद में कामयाब हो सकूँ।"
कहने के बाद वह मुड़ा और बिरजू को इशारा करता हुआ कमरे से बाहर की तरफ बढ़ गया।
उसके निकलते ही बिरजू को जैसे अचानक होश आया हो, एक झटके में वह साधना के पैरों में झुका और फिर हड़बड़ी में अमर के पीछे पीछे दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
अमर और बिरजू के बाहर निकलते ही जमनादास जी भी अपने दोनों हाथ जोड़कर साधना से मुखातिब हुए और बोले, "अब मुझे भी इजाजत दो साधना ! मैं बहुत जल्द तुमसे आकर मिलूँगा और अपने गुनाहों का प्रायश्चित करने का प्रयास करूँगा। प्रयास करूँगा कि अपनी भूल सुधार सकूँ। तब तक मैं अपने स्तर पर प्रयास करता हूँ कि इन बच्चों को उनके मकसद में कामयाब होने में मदद कर सकूँ।...नमस्ते !" कहने के बाद सबसे अंत में जमनादास जी भी कमरे से बाहर निकल गए।
साधना बदस्तूर जड़वत सी अपनी कुर्सी पर बैठी रही। उसका जी तो चाह रहा था कि वह उनके पीछे बाहर तक जाकर उन्हें उनकी कार तक छोड़ कर आए, लेकिन उसके कदम जैसे जड़ हो गए हों।
कुछ देर बाद अमर और बिरजू के साथ जमनादास की कार शहर की चिकनी सड़क पर फर्राटे भर रही थी।
शहर के एक पॉश इलाके में पहुँचकर कार एक गली की तरफ मुड़ी और एक पुराने से बंगले नुमा इमारत के सामने जाकर खड़ी हो गई।
कार सड़क के किनारे लगाकर जमनादास उस बंगले की तरफ बढ़ गए। बंगले के दरवाजे के समीप दीवार पर एक काले पत्थर पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था 'अधिवक्ता बंसीलाल - हाई कोर्ट'
बिरजू और अमर उनके साथ ही थे। दरबान शायद सेठ जमनादास को जानता था, उनको देखते ही बड़े अदब से सिर झुकाकर अभिवादन करते हुए उसने बंगले का दरवाजा खोल दिया।
अमर व बिरजू सहित जमनादास ने अंदर प्रवेश किया। अंदर प्रवेश करते ही बिरजू की आँखें उस बंगलेनमा दफ्तर की आंतरिक साजसज्जा व भव्यता देखती ही रह गईं।
अंदर प्रवेश करते ही एक बड़ा सा कमरा था जिसमें तीन तरफ मोटे गद्देदार सोफे रखे हुए थे। कुछ रईस दिखनेवाली शख्सियतें इन सोफों में धंसी हुई लग रही थीं।
सामने दो और बड़े कमरे नजर आ रहे थे, जिसमें बाईं तरफ के कमरे में कुछ युवा, वकीलों का चोंगा पहने अपने अपने काम में व्यस्त नजर आ रहे थे जबकि दाईं तरफ बना एक अन्य कमरा बाहर से बंद दिख रहा था। इन दोनों कमरों के दरवाजे तक पहुँचने का रास्ता इसी बैठकनुमा कमरे से होकर गया था।
सेठ जमनादास उस बैठक से होकर सीधे दाईं तरफ वाले कमरे की तरफ बढ़ गए।
दरवाजा खोलकर कमरे में प्रवेश करते हुए मेज के पार ऊँचे पुश्तवाली रिवाल्विंग चेयर पे बैठे शख्स को देखकर बिरजू के मुख पर नफरत के भाव उभर आए, लेकिन उसने किसी तरह खुद पर काबू बनाये रखा। उस शानदार कुर्सी पर बैठे उस खुर्राट वकील को पहचानने में बिरजू से कोई गलती नहीं हुई।
वह उसे भूल भी कैसे सकता था ? यही तो वह शख्स था जिसने बसंती के अपराधियों को बाइज्जत कानून के चंगुल से सुरक्षित निकलवा दिया था। इतना ही नहीं बसंती की मौत का अगर सही मायने में कोई जिम्मेदार था तो वह यही शख्स था।
ऐसे वकीलों की वजह से ही न्याय का पवित्र मंदिर भी शक के घेरे में रहता है। दिनोंदिन अगर लोगों का कानून और न्याय पर से भरोसा उठने लगा है तो उसके सबसे बड़े जिम्मेदार हैं ऐसे लोग जो कानून व न्याय में आस्था रखने की कसम खाते हुए दिनदहाड़े न्याय की देवी का उपहास उड़ाते हैं। अपराधियों व देशद्रोहियों को बचाते हुए ये खुलेआम सही न्याय के लिए चुनौती साबित होते हैं।
जमनादास पर नजर पड़ते ही वकील बंसीलाल ने बड़े गर्मजोशी से आगे झुककर उनसे हाथ मिलाते हुए कहा, "हुजूर, आपने क्यों तकलीफ की ? एक फोन कर दिया होता, हम हाजिर हो जाते आपके बंगले पर। थोड़ी चाय शाय पी लेते, और क्या ?" खिसें निपोरते हुए बंसीलाल मुस्कुराया।
साथ आये अमर व बिरजू उपेक्षित ही रहे, लेकिन उन्हें इस बात की कोई चिंता न थी।
बंसीलाल की विशेष खिदमत और उसकी मुस्कान से अप्रभावित सेठ जमनादास ने मेज के इस तरफ रखी कुर्सियों में से एक पर बैठते हुए कहा, "कह तो तुम ठीक रहे हो वकील साहब, लेकिन वो क्या है न कि हमारे बुजुर्गों ने कहा है कि अगर प्यास लगी है तो तुम्हें खुद चलकर कुएँ के पास जाना चाहिए न कि कुएँ को अपने पास बुलाना चाहिए।"
इस बीच जमनादास के बैठते ही अमर और बिरजू भी उनके बगल वाली कुर्सियों पर बैठ गए थे।
बंसीलाल उनकी बातें सुनकर खीसें निपोरने के अलावा और क्या कर सकता था ? वह सेठ जमनादास को बड़ी अच्छी तरह जानता था और इसीलिए उनकी हर सही या गलत बात पर खीसें निपोरने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता था। हर सही गलत बात पर रईसों की जी हुजूरी उसकी आदत थी और शायद उसकी यही आदत उसकी कामयाबी का राज भी थी।
अपने पाप कानून की नजरों से छिपाने के लिए रईसों को बंसीलाल जैसे दौलत के पुजारी वकीलों की आवश्यकता पड़ती ही है और ऐसे धनपशुओं के हलक से दौलत की धारा अपनी तरफ मोड़ना ऐसे वकील बखूबी जानते हैं।
सेठ जमनादास से हाथ मिलाकर ऊंचे पुश्त वाली अपनी शानदार रिवाल्विंग चेयर पर बैठते हुए वकील बंसीलाल ने मुस्कुराते हुए उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए बड़ी आदर से उनसे पूछा, "कहिये सेठ जी, आज हुजूर ने कैसे इस नाचीज़ को याद किया ? मैं आपकी कैसे सेवा कर सकता हूँ ?"
कहने के साथ ही बंसीलाल ने अपनी नजरें सेठ जमनादास पर गड़ा दीं।
जमनादास ने उसकी घाघ निगाहों का बखूबी सामना करते हुए उससे उल्टा ही सवाल कर दिया, "सुजानपुर गाँव का नाम सुना है आपने वकील साहब ?"
बंसीलाल को इसकी बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी। वह हड़बड़ा उठा। उसके दिमाग में तुरंत ही बसंती बलात्कार कांड बिजली की मानिंद कौंध गया।
' लेकिन उस केस का भला सेठ जमनादास से क्या संबंध ? ' यही विचार करते हुए बंसीलाल ने अनमने स्वर में कहा, "जी सेठ जी, सुजानपुर गाँव का नाम मेरे जेहन में सुरक्षित है एक केस की वजह से, जिसमें अग्रवाल इंडस्ट्रीज के मालिक गोपाल अग्रवाल जी के बेटे राजीव व उसके दो दोस्तों को मैंने कानून के पंजे से बाहर निकलवाया था जबकि उनके बचने का कोई रास्ता नहीं था।"
"अच्छा !...रास्ता बचा नहीं था फिर भी आपने निकलवा दिया उनको जेल से यह तो वाकई कमाल है और आप ऐसे ही कमाल के लिए जाने जाते हैं वकील साहब !.. लेकिन क्या मैं जान सकता हूँ कि आखिर वह मामला क्या था और आपने क्या किया था ?" जमनादास ने बिल्कुल अंजान बनते हुए बड़ी होशियारी से तीर चला दिया था। उनकी इस सोच के पीछे उनकी यह मंशा थी कि किसी तरह बंसीलाल के मुँह से यह पता चल जाए कि उसने किसकी मदद से यह सारा खेल रचा था और किसका उपयोग किया था जिसकी वजह से वह तीनों लड़के दोषी होते हुए भी बरी हो गए थे।
उन्हें अंदाजा था कि बंसीलाल उस केस की बात करने पर शायद उनका केस लड़ने से ही इंकार कर देगा क्योंकि वकील बंसीलाल के बारे में एक बात काफी मशहूर थी कि 'वकील बंसीलाल बेईमानी के मुकदमे बड़ी ईमानदारी से लड़ता है और अपने मुवक़्क़ीलों के प्रति काफी वफादार रहता है ' यह बात वह जानते थे। मतलब वकील बंसीलाल किसी भी हाल में अपने पेशे और अपनी ईमानदारी के लिए प्रतिबद्ध था। पैसे का लालची था, लेकिन किसी भी परिस्थिति में अपने मुवक्किल से गद्दारी नहीं करता था। अगर उसने एक बार यह केस लड़ने से इंकार कर दिया तो फिर उससे किसी भी तरह उस केस के बारे में जानकारी नहीं निकलवाई जा सकती थी।
जमनादास अपने मन के इसी डर की वजह से पहले ही उससे अधिकतम जानकारी निकलवा लेना चाहते थे, ताकि आगे मुकदमे के दौरान उस जानकारी से लाभ उठाया जा सके।
और जमनादास के लिए यह एक सुखद संयोग ही था कि उनके अदृश्य जाल को भाँपने में विफल बंसीलाल आत्ममुग्ध होता हुआ बोला, "हाँ सेठ जी, मैं आपको पूरी बात बताऊँगा। सुनिए ....." कहकर बंसीलाल ने बसंती के केस से संबंधित बातें बताना शुरू कर दिया ......
क्रमशः