स्नेही मित्रों को स्नेहमय नमस्कार
नववर्ष में नव कामना, नव अर्चना, नव साधना
नाव चिंतन, नव आलोकन, नव आलोड़न ---??
हर बार आता है, साल जाता है, बताएँ तो क्या बदल पाता है ? नहीं दोस्तों, मैं कोई नकारात्मक बात नहीं कर रही हूँ |
मैं तो अपने आपको आईना दिखाने की एक छोटी सी कोशिश भर कर रही हूँ |
भई, कहते हैं न किसी भी बात की शुरुआत खुद से करो, बस --वही तो --
मुझे तो लगता है ये गाना, बजाना, मस्ती केवल एक ही दिन क्यों ? वो भी नए साल की प्रतीक्षा में !
रात बारह बजे तक, जब तक पटाखों का शोर कानों में न पड़ गया, टूलते हुए जागने का बहाना ही तो करती रहती हूँ हर साल |
वो भी किससे ? खुद से ही तो | किसी ने कहा थोड़े ही है कि भैया जब तक 2023 की पगडंडियाँ न दिखाईं दें जागते रहियो|
कहीं वो और सबमें सब कुछ बाँटकर उड़नछू न हो जाए |
कुछ ऐसा ही लगा जैसे बड़े दिन को कभी साँटा बाबा हमें छोड़कर न जाने किस किसको गिफ्ट्स बाँटकर चले जाते थे |
ज़रा सी आँखें ही तो लग जाती थीं, कौनसा इतना बड़ा अपराध हो जाता था कि हमें चॉकलेट्स तक न मिलें |
ये न्याय हुआ क्या ? सोचिए, फिर बताइए ---
शायद मेरी बात तो समझ गए न? नहीं समझे? फिर तो खोलकर बताना पड़ेगा |
बात ऐसी है कि हमारे जमाने में साँटा बाबा होते ही नहीं थे |
होते होंगे कहीं विलायत, सिलायत में, हमारे भारत में तो होते नहीं थे |
हो सकता है, मैं ही उससे वाकिफ़ न हूँ और वो कहीं आस-पास से टहलकर निकल जाते हों |
बरसों बाद कहीं शहर से बाहर निकली | नहीं, कोई बंधन नहीं है, ज़रा सा कमर का दर्द, ज़रा सी बैलेनसिंग की प्रॉबलम, ज़रा सी हिचक --
लोग तो भाग लेते हैं, अब अगर मेरे ऊपर कोई पहाड़ टूट पड़ा तो मैं कैसे और कहाँ भागूँगी, अपने डार्लिंग के साथ ?
खैर, कुछ नहीं हुआ--जहाँ गई थी, वहाँ पहाड़ था ही नहीं तो गिरता कहाँ से ?
हाँ, समुद्र ज़रूर था, दमन की बात कर रही हूँ | होटल भी फर्स्टक्लास ! सी-शोर पर !
डिनर से पहले बच्चों ने बाज़ार में सैर कराने की ज़िद की | पहले सोचा, होटल-रूम में से ही बाहर के नज़ारे देखती रहूँ |
बाहर जाऊँगी तो दर्द बढ़ेगा, फिर दिमाग की बत्ती जल-बुझ-जल हुई | क्यों ? वैसे पेनकिलर नहीं खाती हो क्या ? कुछ और वृद्धि ही तो हो जाएगी उनमें |
इससे ज्यादा क्या होगा ? बड़ी आश्वस्ति हुई और पूरे-दम-खम से सज सँवरकर अपने डार्लिंग को साथ लेकर गाड़ी तक चली आई |
बाल-गोपाल मुझे इतना सजा-सँवरा देखकर खुश हो गए |
"देखा, अम्मा कितनी सुंदर लग रही हैं ! बेकार ही सबको बोर करती हैं और खुद को भी डिबिया में बंद करके रखती हैं |"
सुनकर भी अनसुना किया, सोचा कहने दो, जब खुद मेरी उम्र के होंगे और अपनी उस उम्र से इश्क करना सीखेंगे, तब देखना |
मैं तो सीख चुकी थी |
खैर, मैं तो रहने वाली हूँ नहीं तुम्हारी उस उम्र का वो इश्क देखने लेकिन कहते हैं,
हम जो भी बात करते हैं ब्रह्मांड में पसर जाती हैं, वैसे तुम लोगों को खुद ही अहसास हो जाएगा |
अच्छा तो लग ही रहा था, इसमें कोई शकको शुबाह नहीं था | नियोनसाइन की लंबी कतारों ने जैसे बाज़ार के हर कोने का अंधेरा दूर करने की ठान रखी थी |
मैं तो गाड़ी में से ही आनंदानुभूति करती रही अपने डार्लिंग के साथ बैठे | दूर से बच्चों को टहलते हुए देख रही थी |
न जाने किस आनंदानुभूति में होंठ गुनगुनाने लगे अपनी पसंददीदा गज़ल ---
रंजिश ही सही, दिल ही दुखने के लिए आ,
आजा के फिर से लौट के जाने के लिए आ !
आया कोई तो जो बाहर से गाड़ी के दरवाज़े को धीरे-धीरे बजा रहा था | बाहर झाँककर देखा,
"अरे वाह ! साँटा --लाल कपड़ों में सफ़ेद फ़र लगे लिबास और टोपी में सजा एक बंदा गाड़ी से बाहर खड़ा था |
मुझे हैरानी, परेशानी हुई, इसने क्या मुझे बच्चा समझ लिया था?| हो भी सकता है भई, बुढ़ापा और बचपन एक समान !
अचानक ही मैं चौंक गई, वह बंदा कंपकंपा रहा था |
"क्या हुआ ?" मैंने बौखलाकर पूछा | बच्चों का झुंड काफ़ी दूर निकल चुका था जो उन्हें आवाज़ लगाती |
सोचा, फ़ोन करूँ ? फिर सोचा, बंदे से पूछ तो लूँ क्या बात है ?
वह लड़खड़ा रहा था | मुझे वह भूखा लग रहा था |
"भूखे हो ? कुछ खाओगे ?" उसने पनीली आँखों से मेरी ओर देखा, मैं सहम सी गई |
उसके कंधे पर लटके झोले में कुछ तो था जो मुझे दिखाई नहीं दे रहा था |
गाड़ी में मेरे पास कुछ बिस्किट के पैकेट्स और पानी की बोतल थी | मैंने उसे खिड़की में से दिए जो उसने काँपते हाथों से पकड़ लिए |
वो गाड़ी के पास सड़क पर एक ओर बैठकर खाने लगा | शायद वह दिन भर का भूख था, मैं असहज हो उठी |
उसने खाया, लगा उसके बदन में जान सी आई | वह उठ खड़ा हुआ | मेरे पास तक आया ;
"थैंक यू वेरी मच मैम ---|" उसकी आँखें पनीली थीं, हाथ मेरी तरफ़ जुड़े हुए |
मेरा मन कंपकंपा उठा, वह लगभग सत्तर/ पिचहत्तर का बंदा होगा |
"कहीं जाना है ?" वैसे मैं कोई उसे कहीं छोड़ थोड़े ही सकती थी ? बस, मूर्खतापूर्ण प्रश्न !
"बच्चे घर पर भूखे हैं, ग्रैन्ड चिल्ड्रन ---सन नो मोर ----" वह मेरी तरफ़ हाथ हिलाता हुआ आगे बढ़ गया जिधर दूर से कई साँटा बच्चों के झुंड में नाच रहे थे |
मैं उसको उधर की ओर बढ़ते हुए देखती रही, इससे अधिक उसने कुछ बताया नहीं, मैंने कुछ पूछा नहीं |
जब वह आगे बढ़ गया तब मुझे याद आया, उसे कुछ तो दे ही सकती थी लेकिन वह काफ़ी दूर निकल चुका था |
कुछ देर में बच्चे घूमकर वापिस आ गए |
"मज़े में माँ ---" उन्होंने पूछा और एक पैकेट मेरे हाथ में पकड़ दिया | न जाने उसमें क्या था ?, मेरा मन न जाने क्यों उस साँटा के पीछे-पीछे भाग रहा था |
होटल पहुँचकर देखा गहमागहमी थी जिन लोगों को खुले में इन्जॉय करना था, उनके लिए कुछ सीढ़ियाँ नीचे उतरकर स्वीमिंग पूल के पास गोल मेजें सजी हुई थीं |
सामने स्टेज पर लोकल बैंड और गायक-गायिका थे | मन जो कुछ उदास सा हो गया था पल भर में उदासी दूर हो गई |
डिनर के समय लाइव म्यूज़िक ! बल्ले-बल्ले हो गए, सोचा, बेकार ही खुद को डिबिया में बंद करके रखा है, इतने सालों से !
अब उससे निकलेंगे तो तब न पता चलेगा कि हमारे जमाने और आज के जमाने में कितने -कितने फ़र्क हो गए हैं ?
"मैडम ! आप कुछ सुनना पसंद करेंगी ?" गायक वहाँ बैठे लोगों की फ़रमाइश पूरी करते हुए हमारी मेज तक भी चला आया था |
"लागा चुनरी में दाग, गा सकेंगे ?मन्ना डे साहब का ---" फिर न जाने क्या हुआ बोली,
"शायद मुश्किल रहे, गा न पाओ --ज़रा मुश्किल है न --"अपने आपको हम समझते क्या हैं ?आखिर हम होते कौन है किसी के लिए ---
लेकिन तीर तो निकल चुका था |
"कोशिश करते हैं मैम---" उसने जाकर अपने म्यूज़िशियन्स को बताया और गाना शुरू किया |
इतना खूबसूरती से उसने उस गीत को प्रस्तुत किया कि हम सभी उसमें खो गए | तालियों की गड़गड़ाहट से सारा वातावरण जैसे संगीत में डूब गया था |
मुझे खुद पर अफसोस हुआ, मैंने ऐसा क्यों सोचा, क्यों कहा होगा ?
डिनर समाप्त हुआ, सब अपने कमरों की ओर बढ़ने लगे | सामने ही होटल के सिंहद्वार के सामने बगीचे का बड़ा गेट था |
वहाँ भीड़ लगी थी | पता चल कोई वृद्ध साँटा किसी गाड़ी के नीचे आ गया था जो अपने ग्रैन्ड चिल्ड्रन के लिए कुछ न कुछ करके पैसा कमाता था |
मेरे सामने काँपते हुए बिस्किट खाता हुआ वह वृद्ध साँटा आ खड़ा हुआ |
ज़रा सी परेशानी में हमारे चेहरे कैसे लटक जाते हैं ---और इन जैसों के युद्ध ?
अरे ! अपनी बात कर रही हूँ ---
हम सब स्नेह को फैलाते रहें, साल कोई भी हो, बीता हुआ या आने वाला --
हर साल में एक सी ही बातें, घटनाएँ होती रहती हैं, होती रहेंगी कुछ बदलाव के साथ --
सोचना हमें स्वयं होगा, हम कैसे ?क्या ? समाज को दे सकते हैं ?
प्रेम की डिबिया खोलकर उस इत्र से महक फैला सकें --
होना तो वही है जो व्यवस्थित है -----!!
स्नेह सहित
आपकी मित्र
डॉ. प्रणव भारती