Darshinek Drashti - 5 in Hindi Philosophy by बिट्टू श्री दार्शनिक books and stories PDF | दार्शनिक दृष्टि - भाग -5 - स्त्री द्वारा बाज़ार में आमदनी

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दार्शनिक दृष्टि - भाग -5 - स्त्री द्वारा बाज़ार में आमदनी

हम सब यह जानते हैं कि आज से कुछ दशक पहले स्त्रीयों को बाज़ार जा कर आमदनी करने नही करने दिया जाता था। यह बात को अचानक से स्त्री सशक्तिकरण और स्त्री स्वाभिमान के नाम पर रद्द किया जा रहा है।
यदि वास्तविकता देखे तो उस समय की अधिकतर स्त्रियां गृह उद्योग चलाकर आय करती थी। आज कदाचित ही कहीं किसी गृह में गृह उद्योग चल रहा होगा। हां स्त्रियां अपने परिवार को भावनात्मक सहयोग करने में आगे रहती है तथा अपना हल्का सा भी अपमान सह नहीं पाती।
बाज़ार में अक्सर ऐसा होता है की सब अपने धंधे रोजगार के संबंध में ही बात करते है।
बाज़ार में आमदनी के लिए कठोरता अपनानी ही पड़ती है। अपमान सहना पड़ता है। अपनी बात रखने की कला निखारनी पड़ती है। भावनाओं को काबू करना पड़ता है।
स्त्री जब अपने घर के पुरुष के होते हुए बाजार में आमदनी के लिए जाती है तो यह अनावश्यक हो जाता है। उस स्त्री के युवा पुत्र, स्वस्थ पति, भाई और उसके पिता जब तक स्वस्थ और जीवित होते हुए उस स्त्री का गृह उद्योग स्थापित करना उचित है।
यदि स्त्री यह सब होते हुए भी बाजारू बनने का प्रयास करती है तो उस स्त्री का कहीं न कहीं किसी बात से रूठना निश्चित है। बाज़ार में जब धंधा करते है तब मंदी और अथवा घाटा बार बार होने की संभावना है। यह नकारात्मकता स्त्री सह नहीं पाती और भावावेश में आ कर कुछ भी अनुचित कह सकती है अथवा कुछ भी अनुचित कार्य अथवा निर्णय ले सकती है।
आज के समय में जहां अनजान स्त्री और पुरुष बहार बाज़ार में एक साथ कार्य करते है, वहां स्त्रीयों द्वारा यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है की वे अन्य पुरुष के मत का सम्मान करे और उसे अन्यथा न लें, धंधे रोजगार में आने वाले चढ़ाव और उतार से प्रभावित न हों, बाज़ार में चल रही नकारात्मकता को स्वीकार कर के धैर्य और सामर्थ्य को धारण करे।
अधिकार स्त्रीयों में धैर्य नहीं होता, जरा सी बात में ही भावावेश में आ जाती है और क्रूर अथवा अपमान जनक कार्य / निर्णय ले लेती है। अधिकांश ऐसा भी होता है की स्त्रियां किसी भय अथवा स्वयं के असामर्थ्य अथवा स्वयं को पसंद न आने के कारण ईर्ष्या अथवा द्वेष jesi भावनाओं के कारण बिना आवश्यक्ता के अन्य पुरुष और स्वयं की गरिमा को दूर कर के किसी के भी चरित्र और धंधे रोजगार पर चरित्रहीनता का कलंक लगा देती है।
अधिकतर स्त्रीयों का एक स्वभाव यह भी रहता है की, सकारात्मकता अथवा उसके मन को जो भाता है उसे एकदम आवाज किए बगैर अपने में छुपाती है। फिर चाहे वह स्वयं की प्रसंशा हो या वस्तु हो या अन्य का स्वयं के प्रति अच्छा व्यवहार। किंतु जब कुछ भी इसे रास नहीं आता तो वह चिल्ला चिल्ला कर उसका तमाशा बनाती है। इस तमाशे की वजह से जिस व्यक्ति अथवा वस्तु अथवा धंधे के विषय में यह नकारात्मक बात छिड़ती है वह अधिक जोर से सब के ध्यान में आ जाता है। जिस वजह से वह धंधा बंद करने तक की नौबत आ जाती है।
यह बात इतने तक ही सीमित नहीं रह जाती, जो व्यक्ति यह धंधा चलाता है उसके भी चरित्र पर अविश्वास लगता है, और यह अविश्वास के अत्यंत ही भयावह परिणाम उस व्यक्ति का समग्र परिवार भी भुगतता है।
यह बाज़ार से ऐसी घटनाएं बनती है तो घर की स्त्रियों का अपने पुरुषों के सामर्थ्य और नैतिकता से विश्वास जाने लगता है। और वे अब बाजार में आमदनी करने के प्रयास में लग जाती है। किंतु जब उनके घर के पुरुषों द्वारा उनकी यह चंचल और अधीर अगंभीर इच्छा (बिना पुरुषार्थ की) को रोका जाता है तो वे विद्रोह करती है। यह विद्रोह घर के निजी वातावरण में नकारात्मकता, अशांति भर देता है और परिवार में आपसी क्लेश बढ़ने लगते है। जिससे उस व्यक्ति के स्वास्थ्य में नकारात्मक असर आता ही है। यह प्रभाव व्यक्ति, परिवार, समाज, राज्य, देश को कंगाल (श्री हीन) बना देता है।
जब स्त्री बाज़ार में अपना अस्तित्व बनाती है, तब वह अन्य किसी घर के पुरुष की एक जगह भी लेती है। जिस वजह से सामर्थ्य और पौरुष होते हुए भी उस युवा पुरुष को रोजगार नहीं मिल पाता है। यह बेरोजगारी युवा पुरुषों को अनावश्यक विचार और अनावश्यक कार्यों में लगा देती है। जहां वह पौरुष उस युवा को घोंटता है और साथ में रोजगार न होने से लोग अनावश्यक ही उस पर विश्वास भी नहीं करते।
"श्री" अर्थात "वैभव, विश्वास, प्रेम, अखुट संसाधन, निर्भयता, सामर्थ्य, हर तरह का स्वास्थ्य, आनंद, कुंठा रहित मन, उच्च कक्षा के धन धान्य और संतान आदि।
स्त्री द्वारा बाजार में आमदनी केवल तभी उचित होगा जब उस स्त्री की मजबूरी हो। जहां तक हो सके स्त्रीयों को गृह उद्योग में रुचि ले कर स्वयं के गृह और स्वयं के खर्च चलाने चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे पुरुष अपना धंधा चलाकर स्वयं का और स्वयं के धंधे का खर्च चलाते है।
कभी कभी अत्यंत आकस्मिक और आवाश्यक परिस्थियों में स्वयं और अथवा स्वयं के परिवार की सुरक्षा हेतु स्त्री का हथियार उठाना तथा आक्रमण करना अनुचित नहीं।
यदि युवा, वयस्क, स्वस्थ पुरूष के होते हुए स्त्री को यह कार्य करना पड़ता है तो यह पुरुष की वीरता, पौरुष, सामर्थ्य पर प्रश्नचिह्न हो जाता है।
सामने स्त्रीयों का और परिवार के अन्य सदस्यों का उस पुरुष पर विश्वास बनाए रखना और उसका हौंसला बनाए रखना आवश्यक हो जाता है।

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