Agnija - 87 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 87

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अग्निजा - 87

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-87

केतकी तो पहले दिन से ही समझ चुकी थी कि जीतू एकदम जड़बुद्धि और मट्ठ और अशिक्षित है। संवेदना तो उसमें है ही नहीं। उसे उसकी ओर से किसी भी सहानुभूति या अपनापन की उम्मीद नहीं थी। इस लिए जीतू के जीवन में उसका कितना और क्या स्थान होगा, इस पर विचार करने में समय खर्च करने का कोई मतलब ही नहीं रह गया था।

केतकी को अपने भविष्य में मां का भूतकाल और वर्तमान की पुनरावृत्ति दिखायी देने लगी थी। और वह कांप उठी। नहीं, नहीं...मुझे दूसरी यशोदा नहीं बनना है। लेकिन कोई विकल्प भी तो हो सामने। सबको उसे घर से बाहर निकालने की जल्दी पड़ी हुई है। वह भी यही चाहती थी। लेकिन जब तक बहन कल्पु की शादी नहीं हो जाती, तब तक जीतू शादी करने के लिए तैयार नहीं था। एक तरफ कुआँ तो दूसरी तरफ खाई। क्या किया जाए कुछ समझ में नहीं आ रहा था। इन्हीं विचारों के साथ शाम को केतकी न जाने कितनी ही देर भोलेनाथ मंदिर के चबूतरे पर बैठी रही। साथ में बिस्कुट के ढेर सारे पैकेट लायी थी। पिल्ले उसके आसपास घूम रहे थे। उसके पैर चाट रहे थे। उनमें से कुछ तो मंदिर के चबूतरे पर भी चढ़ गये थे। उसके हाथ से खेल रहे थे। केतकी के बिस्कुटों की प्रतीक्षा किए बिना ही वे उस पर प्रेम बरसा रहे थे। इस प्रेम में उनका कोई स्वार्थ नहीं था, निश्छल प्रेम था। या फिर कोई पूर्वजन्म का रिश्ता। मंदिर की पताका को निहारते हुए केतकी सोच रही थी, ‘ भोलेनाथ, मुझे विष के साथ-साथ इन मासूम पिल्लों का प्यार भी तो तुम्हीं ने दिया है। थैंक यू...’

भारी भरकम शरीर और सिर पर स्कार्फ। केतकी एकदम अजीब दिखने लगी थी। कई लोग उसकी ओर देखते साथ अपनी नजरें घुमा लेते थे। उसे लगता कि वह निरुपयोगी, अनचाही है-ऐसी नकारात्मक भावनाएं उसके दिल-दिमाग पर कब्जा करने को उतारू थीं। उसको अपनापन, दोस्ती और प्रेम की आवश्यकता थी। उस दिन उसने तारिका को फोन लगाया, “कल कोई सिनेमा देखेंगे और रात को बाहर ही खाना खाएंगे। कितने दिन हो गये हम लोग निश्चिंतता से मिले ही नहीं हैं, बातें नहीं कीं। तुम आओगी तो मजा करेंगे।” लेकिन थोड़ा भी उत्साह दिखाए बिना केतकी ने कहा, “संभव नहीं, फिलहाल बहुत व्यस्त हूं।” केतकी ने चिंता जताते हुए कहा, “सब ठीक तो है न? क्या हुआ?”

“व्यक्तिगत है...चलो बाय...” केतकी का कलेजा घायल हो गया।

.................

रणछोड़ दास एक दिन अचानक पुणे से वापस घर आ गया। केतकी को देख कर उसको झटका लगा। “इसका दिन-रात खाना-पीना बंद करो। और घर के काम करने के लिए कहो। ऐसी स्थिति में अनाज भी बरबाद होगा और यदि जीतू ने मना कर दिया तो हम सबकी खैर नहीं। ” शांति बहन ने रणछोड़ दास को केतकी के बारे में सब कुछ विस्तार से बताया तो वह अपनी मां को ही डांटने लगा कि उसे पहले क्यों नहीं बताया। उसने यशोदा पर अपना गुस्सा उतारा, “इस बदनसीब के बाल चले गये और जीतू भी छोड़ कर चला गया तो जीवन-भर इसकी देखभाल कौन करेगा, तेरा बाप?”

लेकिन राग-द्वेष, नाराजगी से परे केतकी अपने नये लक्ष्य की ओर बढ़ती जा रही थी। स्टेरॉयड बंद करने के बाद बचे-खुचे बाल भी तेजी से झड़ने लगे थे। सिर पर फिर से गंजेपन के चट्टे दिखाई देने लगे थे। धीरे-धीरे भौंहों के बाल भी कम हो रहे थे। केतकी को इससे बहुत परेशानी हो रही थी। एक दिन भावना लैपटॉप लेकर आ गयी। “केतकी बहन, तुम भी कमाल करती हो। तुमको फ्रेश होने की जरूरत होती है तब तुम घर में बैठी रहती हो। कल सिनेमा देखने क्यों नहीं गईं? मैं भी चलती न तुम्हारे साथ?”

“कल, सिनेमा देखने, यानी...? मुझे कुछ समझ में नहीं आया।”

“ये देखो, तारिका की फेसबुक पोस्ट। एन्जॉयिंग मूवी विथ क्लोज़ फ्रेंड्स, देन ग्रेट डिनर प्लान..व्हॉट ए मस्ती...”

केतकी पोस्ट देखी। फोटो में दिख रहीं तारिका की लगभग सभी सहेलियों को वह पहचानती थी। लेकिन वह तो कह रही थी कि वह बहुत बिज़ी है और इस समय कहीं जाना संभव नहीं होगा? अचानक प्रोग्राम बना होगा, लेकिन एक फोन तो कर सकती थी मुझे? वह कुछ बोली नहीं। अचानक उसे याद आया कि भावना ने उसका एफबी अकाउंट बनाया है। उसने तारिका की पोस्ट पर कमेंट किया, “हमेशा इसी तरह मजा करती रहो। सहेलियां होती ही किस लिए हैं? थैंक्स ए लॉट... ” इसे पढ़ कर भावना ने पूछा, “ऐसा क्यों लिख रही हो, तुम क्यों नहीं गईं कल उनके साथ?” केतकी दुविधा में पड़ गयी कि बताए या न बताए। आखिर दिल पर पत्थर रख कर उसने बता ही दिया, “दो दिन पहले मैंने उसे यही कार्यक्रम सुझाया था, लेकिन वह तैयार नहीं हुई। बहाने बनाने लगी। और अब खुद जब कार्यक्रम बनाया तो मुझे बताया तक नहीं। इसका मतलब तुम समझ रही हो? लोग मुझसे दूर रहने लगे हैं। मैं बहुत अजीब दिखने लगी हूं न...इस लिए।” रोना आ जाए इससे पहले ही केतकी बाथरूम की तरफ दौड़ गयी।

भावना को बहुत गुस्सा आया। उसने तुरंत तारिका को फोन लगाया। तारिका ने फोन तो उठाया लेकिन बहुत ठंडी प्रतिक्रिया दी, “हैलो...कोई अर्जेंट काम था क्या?”

“हां, खूब अर्जेंट। आपने केतकी बहन के साथ इस तरह का व्यवहार क्यों किया?”

“मैंने क्या किया?”

“उसे बिनात बताये ही सिनेमा देखने चली गयीं। और फेसबुक पर भी पोस्ट डाली कि मस्ती की...”

“अरे, प्रोग्राम अचानक तय हुआ। हर बार सभी साथ हों यह जरूरी है क्या? चल, रखती हूं, मुझे काम है..बाय।”

तारिका ने फोन रख दिया। भावना को आश्चर्य हुआ। यही वह तारिका हैं क्या जो अपने काम के लिए फोन करती थी तो केतकी से तीन मिनट और उससे तीस मिनट गप्पें मारती थीं? आज उसकी आवाज कितनी रूखी थी और ऐसा मालूम पड़ रहा था कि जबर्दस्ती खींचतान कर बात कर रही हों। आदमी ऐसे बदल सकता है? इतनी जल्दी? विश्वास ही नहीं होता।

केतकी को किसी के साथ ही आवश्यकता थी। अपनेपन की जरूरत थी। उसके रंगरूप को नहीं उसका मन देखने वाले की आवश्यकता थी। ऐसे किसी रिश्ते की आवश्यकता थी जिसमें स्वार्थ नहीं, प्रेम हो, स्नेह हो। दूसरे दिन केतकी ने तारिका से कोई बात नहीं की और तारिका भी उसके सामने पड़ने से बच रही थी। सुबह स्कूटी पंक्चर हो गयी थी। केतकी ने सोचा कि इसे सुधरवाते बैठने की बजाय कुछ दूर पैदल चला जाए और कुछ दूर रिक्शे से। वह अपने ही विचारों में खोई चली जा रही थी तभी बस स्टैंड पर उसने देखा कि कोई रिक्शे को हाथ दिखा रहा है। ‘नहीं, वह नहीं होंगी। मुझे भ्रम हो रहा होगा। वह तो मुंबई में हैं। यहां किस लिए आएंगी? आवाज देकर देखूं? लेकिन उन्होंने यदि मुझे नहीं पहचाना तो? उन्होंने नंबर तो दिया था लेकिन उन्होंने कभी फोन नहीं किया। मिलूं या न मिलूं?’

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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