Nafrat ka chabuk prem ki poshak - 2 in Hindi Love Stories by Sunita Bishnolia books and stories PDF | नफरत का चाबुक प्रेम की पोशाक - 2

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नफरत का चाबुक प्रेम की पोशाक - 2

माली काकी ने अपने घर के बाहर एक घंटी टांग रखी थी और एक रस्सी से उसे बांध रखा था रस्सी का दूसरा छोर उसने बेटे की खाट से बांध रखा था ताकि जरूरत पड़ने पर वो उसे खींच कर घंटी बजा दे।
उसका बेटा यों तो लगभग तीस साल का था परन्तु दिमाग बच्चों की तरह था। वह ठीक से बोल नहीं पाता था और चल भी नहीं पाता। एक खाट पर ही लेटा रहता था। बहुत ही कम बार ऐसा हुआ कि उसने उस घंटी को बजाया हो। वो बहुत समझदार बच्चे की तरह उस खाट पर सोया रहता था।
जब कभी उसे खास जरूरत होती तो वो उस रस्सी को खींचता।घंटी की आवाज सुनकर पीपल के नीचे बैठे लोग उसे संभाल लिया करते। माली के घर टीन शेड के नीचे गाँव वालों की लाकर रखी गई दो तीन खाट पड़ी रहती थी। जरूरत पड़ने पर वो लोग उन खाटों को बाहर पीपल की ठंड़ी छाया में आराम करने के निकाल लाते और रात को वहीं वापस लाकर रख देते थे।
यों तो माली का बेटा घंटी बजाता ही नहीं था पर जब कभी बजा देता था तो सारे के सारे भागते थे उसे संभालने के लिए। कोई खाना खिला देता तो कोई पानी पिला देता।
समय के साथ सगीर की उम्र बढ़ी तो हड्डियों का वजन भी बढ़ गया। किसी अकेले के बस की बात तो है नहीं इसलिए कभी कभार कुछ लड़के मिलकर उसे बाहर ले आते और पीपल के पेड़ के नीचे छाया में खाट पर सुला देते है। वो भी बाहर आकर बहुत खुश होता है क्योंकि उसके चारों और बच्चे दौड़ भाग करते रहते ।
बच्चों को देखकर वो हँसता रहता था। पर कभी-कभी उसका मन भी मचल उठता था बच्चों के साथ खेलने-कूदने दौड़ने भागने का।
बहुत कोशिश करता था वो खाट से उठने की पर केवल छटपटाकर रह जाता और बह निकलती उसकी आँखों से अश्रुधार ।
माँ के तांगे की आवाज को वो बहुत अच्छी तरह पहचानता था। इसलिए वो माँ के आते ही बच्चों की तरह अ...म..म्मी के नाम की किलकारी मार उठता था।
माली काकी तांगे को सीधा घर के अन्दर ले जाती थी। आते ही 'बन्ने खां ' को भी चारा-पानी देती। वो बन्ने खां को कभी बांधती नहीं थी उसे पता था कि वो घर से बाहर कहीं नहीं जाएगा। फिर भी वो बड़ा दरवाजा बंद करती और घूंघट निकालकर आ जाती बेटे के पास।
हालांकि यहाँ उसका कोई सगा रिश्तेदार तो नहीं था कुछ उसके समुदाय के, कुछ अन्य समुदायों के बुजुर्ग वहाँ बैठे रहते थे। जिनमें किसी को वो जेठ किसी को ससुर तो किसी को देवर का दर्जा देती थी।
जब सगीर छोटा था तब तो वो उसे अकेली ही घर के भीतर ले आती थी पर अब वो उसे अंदर ले जाने के में मोहल्ले के लड़के उसकी मदद कर देते थे।
बेटे को सुलाने से पहले लड़कों की मदद से वो उसे शौचालय में बिठा देती थी ईट - पत्थरों से उसेने ऐसी सीट बनवा रखी थी जो कुर्सी जैसी थी उस पर से आराम से सहारा लेकर बैठता था।
क्रमशः..


सुनीता बिश्नोलिया