नफ़रत का चाबुक प्रेम की पोशाक
पूरे मोहल्ले में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो 'म्माली' काकी को जानता नहीं था या उनसे बातचीत नहीं थी। मैं समझने लगी तब उनकी उम्र पचास -पचपन की रही होगी।
नाटा कद, तीखे नयन-नख्श और गेहुंआ रंग। दोनों हाथों में चांदी के एक-एक कड़े कड़े । जिन्हें देख-देख जिया करती थी काकी मैंने कभी ना उन कड़ों को हाथ से उतारते देखा ना कभी बदलते । कुर्ती-कांचली और घेरदार घाघरे पर सदा हल्के रंग की ओढ़़नी उन पर खूब फबती थी।
तेल पिला-पिलाकर चूं-चर्र की आवाज करती चमकती हुई जूतियां पहनकर जिधर से भी वो निकलती उनके सम्मान में लोग हाथ जोड़ दिया करते । उम्र के इस दौर में भी जब वो हँस दिया करती तो सबको बाँध लेती थी अपने आकर्षण में ।
सुबह आठ बजे तक घर के सारे काम निपटा लेती और जैसे ही ‘बन्ने खाँ’ को आवाज लगाती, बन्ने खां भी हिनहिना उठता। बन्ने खां को तांगे से जोतकर माली काकी हाथ में हंटर लेकर बैठ जाती तांगे की ड्राइविंग सीट पर और निकल पड़ती सवारी को हाँक लगाती।
सुबह आठ बजे की घर से निकली माली काकी दोपहर को साढ़े-बारह-एक बजे स्कूल के बच्चों की फिक्स सवारियों को घर छोड़ते हुए आती अपने घर।
घर आते ही बीमार बेटे को खाना खिलाती और थोड़ी देर आराम करके तीन साढ़े तीन बजे तक फिर निकल जाती रेलवे स्टेशन की तरफ जहाँ बाहर से आए यात्रियों को मंजिल तक पहुँचाती। स्टेशन पर दो तीन फेरों के बाद साढ़े छह-सात बजे के बीच वापस घर आ जाती और बीमार बेटे को संभालती ।
एक बेटी है जिसकी शादी कर दी वो अपनी गृहस्थी पूरी तरह रम चुकी हैं। उसके चार बच्चे हैं इसलिए एक ही शहर में होने के बावजूद भी उसे माँ के पास आने की फुर्सत ही नहीं मिलती है।
माली काकी खुद भी बीमार बेटे को ज्यादा देर अकेला नहीं छोड़ सकती थी इसलिए वो भी विशेष रूप से बेटी के घर नहीं जाती। कभी कभार अगर उधर जाने वाला मुसाफ़िर मिल जाता तो जरूर वो बेटी से मिलकर आ जाती थी।
मोहल्ले के सभी लोग माली काकी का बहुत सम्मान करते थे। पड़ोस की महिलाएं हों या बच्चे सब उनके बेटे का खूब ध्यान रखते थे। जब किसी दिन काकी को लौटने में देर हो जाती तो मोहल्ले से कोई भी उनके बीमार और अपाहिज बेटे को खाना या फल दे आता । म्माली काकी दिन में कभी अपने घर को ताला नहीं लगाती थी क्योंकि बेटा अकेला रहता था और कहीं पीछे से उसे किसी की जरूरत पड़ जाए भला कोई घर कैसे आए। वो तो खुद कहती थी कि मोहल्ले वालों के सहयोग से ही वो यहाँ रुक पाई और बेटे को भी उन्हीं के भरोसे छोड़ जाती है।
घर सामने पुराना पीपल का पेड़ था जिसके चारों तरफ गाँव वालों ने एक पक्क चबूतरा बना लिया था। उस पीपल के पेड़ के ऊपर जहाँ दिनभर भाँति-भाँति के पक्षी कलरव करते रहे थे वहीं उसके नीचे गाँव के बड़े-बुजुर्ग दिनभर बतियाते, हुक्का गुड़गुड़ाते, चौपड़ खेलते रहते। आस-पास के घरों के छोटे बच्चे भी वहीं धमा-चौकड़ी मचाते रहते।
क्रमशः..
सुनीता बिश्नोलिया