साधना के सामने से हटकर बिरजू ने अमर के बगल में खड़ा होते हुए जवाब दिया, "पापा एकदम ठीक हैं बुआ ! वहाँ सब लोग आपको बहुत याद करते हैं, लेकिन आपकी दी गई कसम की वजह से पापा ने किसी को आपके बारे में नहीं बताया।"
मुस्कुराते हुए साधना ने कहा, "बहुत अच्छा लगा बेटा, रामलाल भैया के बारे में जानकर...."
तभी उसकी नजर काँच के दरवाजे से अंदर दाखिल हो रहे सेठ जमनादास पर पड़ी।
आँखों पर चढ़ा सुनहरे फ्रेम का चश्मा उतारकर मेज पर रखते हुए उसने आँखें मसल कर पुनः जमनादास की तरफ देखा। यही वो पल था जब जमनादास तेजी से उसकी तरफ बढ़े। साधना की तरफ बढ़ते हुए उनके दोनों हाथ जुड़े हुए थे और आँखों में नमी स्पष्ट झलक रही थी।
नजदीक पहुँचकर जमनादास जी उसके पैरों में झुकने का प्रयास करते हुए बोल पड़े, "मुझे माफ़ कर दो साधना !"
हड़बड़ा कर पीछे हटते हुए साधना अनुमान लगाते हुए धीरे से बुदबुदाई, "जमनादास ....!"
"हाँ, तुमने सही पहचाना साधना !" कहते हुए जमनादास उठकर सीधे खड़े होते हुए बोला, "मैं ही हूँ तुम्हारे सपनों का, तुम्हारे अरमानों का लुटेरा। मैं ही हूँ वह दरिंदा जिसकी वजह से तुम्हारी बसी बसाई दुनिया उजड़ गई, लेकिन ......!" कहते हुए जमनादास की साँसें उत्तेजना से किसी धौंकनी की मानिंद तेज तेज चलने लगी थीं।
एक पल रुककर अपनी उखड़ी साँसों पर काबू पाने का प्रयास करते हुए जमनादास ने आगे कहना शुरू किया, "..लेकिन मैं ईश्वर की सौगंध खाकर कहता हूँ कि यह मात्र अर्धसत्य है। हाँ, अर्धसत्य यानी अधूरा सच !"
कहने के बाद वह साधना के चेहरे पर उठ रहे भावों को पढ़ने का असफल प्रयास करने लगा।
अपनी बेगुनाही साबित करने के प्रयास में वह आगे अपनी बात कहता गया, "अंजाने ही सही, मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई, मुझे इस बात से कोई इंकार नहीं लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मैंने जानबूझकर कुछ भी गलत नहीं किया। यहाँ तक कि मेरी जगह कोई और भी होता तो वह भी यही करता। उस दिन गोपाल की माँ को इतना अधिक अस्वस्थ देखकर और डॉक्टर की यह बात सुनकर कि अब गोपाल के आने से ही उनकी जान बचेगी, मैं परेशान हो गया था और भागा भागा आ गया था यहाँ गोपाल को कुछ समय के लिए उसकी माँ से मिलवाने के लिए। बस ! यहीं मुझसे गलती हो गई। एक माँ का चोला ओढ़े एक पाखंडी औरत को मैं तब समय रहते पहचान नहीं पाया था, और जब मुझे हकीकत का पता चला, समय हाथ से गुजर चुका था। मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर सका।" चेहरे पर लाचारी के भाव लिए हुए जमनादास कुछ पल के लिए रुककर अपनी साँसें नियंत्रित करने लगे।
साधना की आँखें नम हो गई थीं। अनायास ही दिल के जख्म कुरेदने से हुई पीड़ा को होंठ भींचकर जज्ब करने के प्रयास में उसका चेहरा बनने बिगड़ने लगा।
धीरे से उसके होंठ लरजे और साथ ही आँसुओं से गंगा जमुना की धार बहने लगी, "लेकिन भैय्या, तुम बाद में आकर मुझसे मिल तो सकते थे ?.. मुझे वास्तविकता बता तो सकते थे ? उनका क्या हुआ मुझे आज भी पता नहीं है। मेरे मन को इसी बात का यकीन नहीं हो रहा कि चाहे जो भी हुआ हो, लेकिन वो मुझे कैसे भूल गए ?" कहते कहते साधना के सब्र का बाँध टूट गया और वह फफककर रो पड़ी।
अमर और बिरजू की आँखें भी नम थीं लेकिन अमर की आँखों में नमी के साथ जमनादास के लिए आक्रोश अभी कम नहीं हुआ था।
"आज मैं तुम्हें सब बातें बताऊँगा साधना और तब तुमसे दरख्वास्त करूँगा कि मुझे माफ़ कर दो !" कहते हुए जमनादास ने अपने दोनों हाथ पुनः जोड़ लिए और कहना जारी रखा, " उस दिन गोपाल के पिताजी सेठ शोभालाल की असलियत और उनकी नियत जानकर मैं ठगा सा रह गया था। ऐसे में अचानक गोपाल की खराब तबियत की खबर जानकर मेरे हाथ पाँव फुल गए। इनकी बात पर अब भरोसा करने की मेरी हिम्मत नहीं थी सो अस्पताल में जाकर डॉक्टर से मिला जहाँ हकीकत पता चली। डॉक्टर ने बताया कि उसे माइनर ब्रेन हैमरेज हो गया था जिसका इलाज उन दिनों भारत में सुरक्षित नहीं माना जाता था। इसके अलावा कंजूस शोभालाल के लिए इतनी रकम खर्च करना भी बेहद मुश्किल था यह मैंने उनकी मानसिकता को समझकर अंदाजा लगा लिया था। विकट परिस्थितियों को देखते हुए खुद को असहाय मानकर बेहद निराश था कि एक दिन दोपहर में अचानक तुम्हारे पिताजी मास्टर साहब मेरे घर आ धमके।
उनकी दशा देखकर किसी अनहोनी की आशंका से मेरा मन काँप गया था लेकिन किसी तरह खुद को संभाले रहा। उनके द्वारा ही यह जानकारी मिली कि गोपाल सेठ अंबादास के खर्चे पर अमेरिका जा चुका है इलाज कराने के लिए।
यह बेहद चौकानें वाली खबर थी मेरे लिए। मास्टर साहब के सामने मैंने खुद को सहज रखने का प्रयास करते हुए उनको समझाने का भरपूर प्रयास किया कि गोपाल कुछ ही दिनों में अमेरिका से वापस आ जायेगा। उन्हें मेरी बात पर यकीन था लेकिन उनका कहना था कि यह बात वह तुमसे कैसे कह पाएँगे कि गोपाल अमेरिका गया हुआ है।..तब मैं मास्टर जी के साथ आकर तुमसे मिला था तुम्हारे घर पर। गोपाल की हालत जानकर तुमने भी भगवान का शुक्रिया अदा किया था कि जो हुआ अच्छा हुआ।
तुमसे मिलकर वापस आने के बाद मैं अपने व्यापार में व्यस्त हो गया। हालाँकि व्यस्तता के बावजूद समय निकालकर मैं गोपाल की खबर कभी कभार पता कर ही लेता था, लेकिन शायद मैं एक बहुत बड़े सच से बहुत दूर था।
उस दिन सेठ अम्बादास जी की तरफ से सेठ शोभा लाल की कोठी पर मिठाइयाँ बँटवाने की खबर के पीछे छिपे राज ने मुझे अंदर तक हिलाकर रख दिया। मेरे हाथ पाँव फूल गए थे यह जानकर कि गोपाल को उसके इलाज के लिए खर्च की गई रकम के बदले में सेठ अंबादास की चरित्रहीन और पहले से ही गर्भवती लड़की से शादी करनी पड़ी थी और उसी लड़की के बेटा पैदा होने की खुशी में सेठ अम्बादास जी अपनी तरफ से मिठाइयाँ बाँट रहे थे।
विदेश में रहते हुए गोपाल की बेबसी को मैं अच्छी तरह समझ रहा था। मेरी समझ से उनकी बात मानने के अलावा उसके पास और कोई चारा भी तो नहीं था,.. लेकिन मेरे सामने समस्या यह थी कि मैं यह खबर तुमको कैसे सुना पाता ?
उस दिन मुझे काफी बुरा भला कहके तुम्हारे पिताजी मुझसे नाराजगी जाहिर करके चले तो आये लेकिन उनके शब्द मेरे कानों में अक्सर गूँजते रहते। मेरा कारोबार में ध्यान नहीं लगता था। नींद और चैन तो कोसों दूर थे। बार बार मास्टरजी का चेहरा और उनके कहे शब्द ख्यालों में दस्तक देते। मेरा मन इन सब घटनाओं के पीछे कहीं न कहीं खुद को दोषी मान रहा था और किसी भी हालत में तुम्हारा सामना करने से बचना चाहता था। तुमसे ही नहीं मैं तो खुद से भी बचने की कोशिश करने लगा था। खुद से खुद ही नजरें चुराने लगा था। दर्पण देखते ही खुद से घृणा करने लगता, और इसी मनःस्थिति में एक एक कर मेरी जिंदगी के ढेर सारे दिन गुजर गए।
मेरी भी शादी हो गई थी और जल्दी ही ईश्वर ने रजनी नाम की एक गुड़िया से हमारी खाली झोली भर दी। अब मैं सामान्य होने लगा था। जिम्मेदारियों के अहसास ने अब मुझे जिम्मेदार इंसान बना दिया था। अब अपना व्यापार ही मेरे लिए सबसे जरूरी कार्य लगने लगा था।
रजनी के जन्म के बाद संध्या के ब्रेस्ट कैंसर का पता चला। एक परेशानी से अभी निकला भी नहीं था कि अपनी पत्नी की इस लाइलाज बीमारी ने मुझे तोड़कर रख दिया। मैं धीरे धीरे भावशून्य होता गया। धर्म कर्म और इंसानियत पर से मेरा भरोसा ही उठ गया था। भरोसा करता भी कैसे ? इतनी छोटी सी उम्र में ही मुझे अनुभव हो गया था कि प्यार मोहब्बत, इंसानियत, धर्म और ईश्वर ये सब सिर्फ कहने की बातें हैं। हकीकत से इनका कोई नाता नहीं। मैं निरंकुश होता गया। पैसा ही मेरे लिए सब कुछ हो गया और धीरे धीरे मैंने खुद को पैसा कमाने की मशीन बना लिया।
सब कुछ अच्छा चल रहा था। अपने क्षेत्र में सबसे सफल व्यापारियों में मेरी गिनती होने लगी। धन संपत्ति, नौकर चाकर और मान सम्मान में लगातार इजाफा मुझे और पैसा कमाने के लिए प्रेरित करता रहा, इतना कि मैंने अपनी पत्नी संध्या और बेटी रजनी के लिए भी समय निकालना मुनासिब नहीं समझा।
देखते ही देखते पाँच वर्ष पंख लगाकर कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला और एक दिन तूफान ने मेरी जिंदगी में फिर दस्तक दी ....."
कहते हुए जमनादास की आँखों से अश्रु छलक पड़े। साधना भावनाशून्य होकर बस जमनादास को अपलक निहारती हुई उसकी बातें सुनती जा रही थी।
अमर और बिरजू वह बातें जानने के लिए उत्सुक नजर आ रहे थे जो वह नहीं जानते थे।
क्रमशः