प्लूटो!
कितना अच्छा था- कितना अधिक! उसके जीवन का पहला-पहला प्यार। प्यार का प्रथम अनछुआ सा अनुभव- उसका दुखदर्दों का साथी- प्लूटो। प्लूटो एक वास्तविकता। एक कठोर, कभी भी न भूलनेवाला सच, जिसके साथ वह बचपन से खेली थी। एक साथ पढ़ी भी थी। बचपन के कितने ढेरों-ढेर वर्ष उसने प्लूटो के साथ गुजार दिये थे। तब जबकि वह भरतपुर में रहती थी। आज से लगभग छ: वर्ष पूर्व। प्लूटो तब उसके घर के सामने ही रहता था। एक ही महल्ले में। प्लूटो और उसके पिता में एक अच्छी मित्रता थी। वह दोस्ती जो आज तक अचल और अटल है।
किरण तब प्लूटो के साथ-साथ बचपन से ही पढती आयी थी। कक्षा चार से उसने साथ पकड़ा था और उसका ये संग हाई-स्कूल की परीक्षा के बाद छूट गया था, क्योंकि प्लूटो के पिता का स्थानांतरण हो चुका था। मगर प्लूटो और वह, दोनों में से कोई भी किसी को नहीं भूला था। बचपन का प्यार जब जवान होने लगा तो दोनों के स्वभाव में एक अन्तर स्वत: ही आता गया। किरण को यह अन्तर तब महसूस हुआ था, जब प्लूटो एक बार भरतपुर में उसके घर आया था. इन तीन-चार वर्षों के अरसे में प्लूटो कितना अधिक निखर गया था। एक अच्छा-खासा व्यक्तित्व उसे प्राप्त हुआ था। श्यामला रंग, स्वस्थ शरीर और एक सुन्दर लम्बाई, पाकर किरण क्षणभर को प्लूटो पर से अपनी नजरें हटा नहीं सकी थी। वह काफी देर तक उसे देखती ही रही थी- गहरी-गहरी दृष्टि से, खोयी-खोयी-सी, हसरतभरी एक नजर- अपलक टकटकी लगाये। उस दृष्टि से जिससे कोई भी युवा नारी, यौवन की दहलीज पर कदम रखने के पश्चात प्रथम बार किसी युवक को देखती है। किरण की इन नज़रों में चोर समाया हुआ था। आँखों में परख थी और मुख पर गम्भीरता। प्लूटो उसे पहली ही दृष्टि में भा गया था। बेहद अपना-सा उसे महसूस हुआ तो स्वत: ही उसका दिल धडकने लगा। धड़कनों पर जोर पड़ गया। साँसें भी कुछ तीव्र हो गयी। वह लजाकर प्लूटो की दृष्टि से बच पाती, इससे पूर्व ही प्लूटो ने उसे टोक दिया- प्रश्न-सूचक दृष्टि से किरण को निहारकर, वह बोला,
"क्या बात है किरण! क्या मेरी शक्ल ज्यादा खराब हो गयी है?"
किरण स्वयं में ही सिमट गयी। लाज के कारण, वह कुछ कह भी नहीं सकी, परन्तु कुछ तो कहना ही था; नहीं कहती तो प्लूटो ना जाने क्या समझ बैठता। वह उसकी खामोशी का कोई दूसरा अर्थ भी तो ले सकता था ।
किरण को गुमसुम पाकर प्लूटो को अवसर मिला तो उसने आगे फिर कहा कि,
"यदि ऐसी बात है तो कल से 'मेक-अप' करके आया करूँगा।"
"जी नहीं ! बिना 'मेक-अप' के ही भला है।"
जाने किस भावावेश में किरण ने कह दिया था। तब प्लूटो उसके इस कथन पर हल्के-से मुस्कुरा दिया था. साथ ही किरण भी एक मुस्कान छोडकर उसके समक्ष से घर के भीतर भाग गयी थी।
फिर जब प्लूटो उसके घर से लौटने को हुआ तो अवसर पाकर किरण फिर उसके पास आ गयी। उदास-उदास, खामोश-सी। वह उसके करीब आकर खडी हो गयी। मुख से वह कुछ भी नहीं बोली, परन्तु गर्दन झुकाकर, मानो वह प्लूटो के इस प्रकार जाने पर प्रसन्न नहीं थी। उसको प्लूटो का क्षणभर को आना जितना अधिक आनन्ददायक लगा था, उतना ही अधिक वह उसके जाने पर दुःखित भी हो गयी थी।
प्लूटो ने जब किरण की इस मुद्रा में देखा तो उसे भी समझते देर नहीं लगी। किरण के दिल का मर्म वह भली-भांति समझ ही नहीं रहा था, बल्कि हृदय से महसूस भी कर चूका था. तुरन्त ही वह किरण का दिल रखते हुए बोला,
"किरण."
"?" किरण ने खामोशी से उसको निहारा। वह कुछ भी नहीं बोली। केवल प्लूटो को एक बार निहारकर फिर अपनी पूर्व मुद्रा में आ गयी, तब प्लूटो ने आगे कहा,
"मैं यहाँ पर एक सप्ताह के लिए आया हूँ।"
"सच!" किरण के मुख से तुरन्त ही निकल गया ।
"हाँ!" प्लूटो ने कहा । फिर थोड़ा रुककर आगे बोला,
"कल 'सनडे' भी है, तुम्हारी छुटूटी भी होगी। यदि तुम्हारा हृदय कहे तो मैं कल 'मैटिनी शो' मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा- 'रीगल टॉकीज' में। तुम आओगी?"
“... ?”'
किरण ने इतना सब सुना तो वह एक बार प्लूटो पर विश्वास भी नहीं कर सकी, इसीलिए वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से प्लूटो को निहारने लगी ।
"आओगी न? ज़रूर आना, मैं वहीं मिलूँगा।"
ये कहकर प्लूटो चला गया, तो किरण बडी देर तक वहीं खड़ी रही। खड़ी-खड़ी उसी के विषय में सोचती रही, सोचती रही- यही कि, प्लूटो उसका बचपन का साथी था। कितना अच्छा! किस कदर प्यारा!! अनुपम- लाजवाब, लाखों में एक- उसका चहेता! उसके दिल का राजकुमार। कितना अधिक उसे प्यार करता होगा! इतना अधिक कि जिसका कोई मापदण्ड भी नहीं है। प्लूटो का प्यार कितना गहरा है। कितना अधिक अथाह। जिन्दगी में उसे भाग्य से एक अच्छा होनहार साथी मिला है। अपने इस साथी के लिए वह कुछ भी कर लेगी और वही उसका सब-कुछ भी होगा। उसका प्रथम प्यार ही उसके भावी जीवन की नाव का माँझो भी बनेगा। आज या कल, अथवा आनेवाले वक्तों में वह बेधड़क प्लूटो से अपना विवाह कर लेगी। प्लूटो में सब-कुछ है। सब ही कुछ। उसका प्यार। उसकी खुशियाँ। उसका दु:ख-दर्द और उसके जीवन का प्रत्येक सपना प्लूटो के साथ ही पूर्ण होगा। प्लूटो में ही उसका प्रकाश है। उसकी 'किरण' की ज्योति भी है। प्लूटो के बिना तो वह कुछ भी नहीं है… खड़े-खड़े किरण पलभर में जाने क्या-क्या सोच बैठी?
सहसा ही जब उसे अपनी दशा का खयाल आया तो स्वत: ही उसके होंठों पर एक मुस्कान आकर थिरक गयी- थिरक गयी, इसलिए कि आज उसे प्रथम बार ज्ञात हुआ था-- प्यार! प्यार का वास्तविक अर्थ, उसकी लौ…. लगन और दीवानगी का परिणाम। प्यार की दीवानगी में तो ये सबकुछ होता ही है।
दूसरे दिन जब किरण 'रीगल टाकीज' पर पहुँची तो फ्लूटो उसको तुरन्त ही मिल गया। प्लूटो को देखते ही वह स्वयं में ही खिल गयी। खुद प्लूटो भी मुस्करा पड़ा। दोनों ने एक-दूसरे को देखकर अपनी भेंट का उत्तर अपनी-अपनी मधुर मुस्कानों से दिया। फिल्म आरम्भ होने में अभी देर थी। पहलेवाला शो भी अभी समाप्त नहीं हुआ था, इसलिए प्लूटो ने अवसर देखकर किरण से पूछा कि,
"चलो कहीं चलकर बैठते हैं, फिल्म तो अभी देर में आरम्भ होगी। "
तब किरण चुपचाप उसके साथ चल दी। वह स्वयं भी भीड़ से अलग हटकर प्लूटो से बातें करना चाहती थी। ढेर सारी बातें। प्यार की मधुर-मधुर बातें, जिनमें उसके आनेवाले दिनों का वर्णन होगा। उसके सुनहले सपनों का संसार बसा होगा… और ये सारी बातें वह एकान्त में ही कर सकती थी। फिर वैसे भी दो प्रेमी सदैव एकान्त ही तलाशते हैं, क्योंकि निर्जन स्थानों में वे अपने प्यार की बातें जो कर लेते हैं।
पास ही में एक रेस्टोरेंट था ।
प्लूटो किरण के साथ उसमें भीतर प्रविष्ट हो गया। किरण भी चली गयी। उसने आज स्वयं को और दिनों की अपेक्षा कहीं अधिक ही सँवारा था। हल्की हरी छींटदार साड़ी में उसका शरीर यूं प्रतीत होता था कि जैसे प्रकृति की ढेर सारी वनस्पति एक स्थान पर एकत्रित हो रही है। किरण की इस साड़ी से 'मैच' करता हुआ ब्लाउज भी था। लम्बे-लम्बे बालों को उसने एक लम्बी चोटी का रूप देकर सँवारा था। चेहरे पर हल्का-सा मेक-अप भी था। आँखें इस कदर गहरी थीं कि जो भी उन्हें देखे, ठिठक अवश्य ही जाता था। होंठों की लाली इतनी अधिक थी कि वे किसी प्रसाधन के मोहताज नहीं थे। कानों में पतली-पतली गोल बालियाँ अपनी एक अलग ही सुन्दरता जाहिर कर रही थीं ।
प्लूटो जब भी किरण को चोर-दृष्टि से निहारता तो आँखें हटाने का उसका मन ही नहीं करता था। किरण का भोला ओर कोमल मुख-मण्डल तथा उसकी सारी सुन्दरता को पाकर वह अपनी पसन्द पर गर्व कर रहा था। बात भी सही थी। किरण किसी भी दृष्टिकोण से ऐसी नहीं लगती थीं कि कोई भी उसमें जरा भी खोट निकाल सकता। इस पर वह प्लूटो के साथ वह प्रेमिका नहीं, परन्तु पत्नी समान सुन्दर लग रही थी। स्वयं प्लूटो भी उसके साथ अच्छा-भला लगता था। शायद ईश्वर ने भी पहले ही से उन दोनों की जोड़ी बना दी थी।
रेस्टोरेंट के अन्दर आकर प्लूटो ने बैरा को 'कोल्ड ड्रिक' लाने को कह दिया। किरण अभी तक चुप ही थी- गुमसुम- शून्य-सी।
उसे इस मुद्रा में देखकर प्लूटो ने बात छेड़कर कहा,
"किरण!"
"... ? "
किरण ने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा ।
"कुछ बातें करो ना।"
"क्या बोलूँ?" किरण ने गम्भीर, पर मुरुकुराते हुए कहा।
"कुछ भी। तुम बचपन में तो खूब बोलती थीं। बात-बात पर लड़ती भी थीं।" प्लूटो ने कहा।
"वह तब बात दूसरी थी।" किरण ने लजाकर कहा।
"तो क्या अब तीसरी हो गयी है। तुम भी वही हो। मैं भी वही हूँ, लेकिन अब तुम्हारी आवाज़ कहाँ चली गयी है? बहुत खामोश रहने लगी हो क्या?"
प्लूटो ने हँसकर कहा तो किरण जोर से मुरकुरा पड़ी। इस प्रकार कि उसके छोटे-छोटे सफेद दाँतों की पंक्ति भी एक झलक मार गयी। प्लूटो को किरण का ये स्वभाव बहुत ही प्यारा लगा। तभी बैरा 'कोल्ड ड्रिंक' रखकर चला गया। प्लूटो ने एक ड्रिंक किरण की ओर बढाया और दूसरा स्वयं हल्के-हल्के सिप करने लगा ।
कुछेक मिनट दोनों शान्त बने रहे। फिर प्लूटो ने ही आगे कहा कि,
"तुम एम. ए. के पश्चात क्या करोगी?"
"अभी तो कुछ भी नहीं कह सकती।" किरण ने एक संक्षिप्त उत्तर दिया तो प्लूटो क्षणभर को चुप हो गया। फिर तुरन्त ही बोला,
"मेरा भी अभी तक कोई प्लान नहीं बना है। "
"तुम्हें तो अपना कोई उददेश्य बनाना ही चाहिए।" किरण ने कहा।
"हाँ ! वह तो, ठीक है, मग़र… "
"मगर क्या?"
"मेरे समक्ष तो एक अजीब उलझन सी रहती है।"
"उलझन?" किरण ने आश्चर्य किया ।
"हां, उलझन ही समझो।"
"वह क्या?"
"मेरी माँ कहती है कि पहले विवाह कर लो और बाद में कुछ भी…. तथा पिताजी कहते हैं कि यदि देश की सेवा ही करनी है तो विवाह के झँझट में मत पड़ो।"
"देश सेवा? मैं समझी नहीं?" किरण बोली ।
"हां किरण! मैंने भारतीय वायु सेना में भर्ती हेतु फॉर्म भरा हुआ है।"
"?" किरण कुछ पल को मौन हो गयी. फिर गम्भीर होकर बोली,
"तो सोच लो कि तुम्हें क्या करना है?" .
"मेरा इरादा चाहे कुछ भी हो मगर तुम क्या कहती हो?" प्लूटो ने किरण से ही पूछा,
“... ?”
इस पर किरण ने प्लूटो को देखा- गौर से- गम्भीर होकर- फिर बोली,
"मैं भला क्या कह सकती हूँ? फिर तुम्हारी पसन्दों में दखलअन्दाजी करने का मुझे क्या अधिकार?"
"अधिकार?" ये तुम क्या कह रही हो?" प्लूटो ने किरण को गम्भीरता से निहारा। कुछेक पल वह भी खामोश रहा. फिर आगे बोला,
"यदि तुम्हें कोई भी अधिकार नहीं होता, तो मैं तुम्हें यहां क्यों बुलाता? क्यों तुम्हारा साथ लेता? किरण, कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें समय से पूर्व कहकर उनका अपमान नहीं किया जाता है।' प्लूटो कहते-कहते गम्भीर हो गया ।
"?" इस पर किरण ने प्लूटो को निहारा। उसके गम्भीर, कुछ-कुछ उदास से चेहरे को देखा, फिर हल्का सा मुस्कुराकर बोली,
"मैँ ये सब पहले ही से महसूस कर रही थी।"
"मगर फिर भी मुझ पर विश्वास नहीं था?" प्लूटो ने जैसे शिकायत सी की।
"नहीं! विश्वास तो था। थोडा नहीं, बहुत ही अधिक विश्वास था, परन्तु फिर भी मैं तुम्हारे मुख से ये सब सुनना चाहती थी।"
"इसका मतलब तुम मेरी परीक्षा ले रही थीं?"
"नहीं!''
"तो फिर?"
"तुम्हें परेशान देखना चाहती थी।" कहकर किरण फिर मुस्कुरा दी। प्लूटो किरण की इस बात पर पलभर को चुप हो गया। फिर कुछ देर पश्चात वह भी हँस पड़ा… तब बाद में बोला कि,
"तुम्हारा बचपन अभी भी कुछ बाकी है।"
"बाकी नहीं है, परन्तु जब बचपन के लोग मिल जाया करते हैं, तो पुरानी बातें फिर से पहले ही जैसी हो जाया करती है।" किरण ने कहा तो स्वयं ही हँस पडी। साथ ही प्लूटो भी।
बातों के सिलसिले के बीच ही फिल्म समाप्त हो गयी थी और लोग बाहर आ-जा रहे थे। प्लूटो भी किरण के साथ रेस्टोरेंट के बाहर आ गया। टिकटें उसने पहले ही ले ली थीं। इस कारण वह शीघ्र ही अन्दर जाकर बैठ गया। किरण भी उसके साथ ही बैठ गयी, फिर दोनों साथ ही फिल्म देखने लगे… ।
इस प्रकार किरण और प्लूटो प्रतिदिन ही मिलते रहे. हर रोज़ उनकी भेंट होती। एक निश्चित स्थान पर। उनकी प्रत्येक दिन की भेंट में पहले से भी अधिक तड़प होती। अत्यधिक लालसा। मिलन की प्यास प्रत्येक दिन की मुलाकात से भी अधिक होती। ऐसा था उनका प्यार। प्यार की रूपरेखा- ऐसी रेखायें कि जिनके अक्स उन दोनों के दिलों पर हर पल बनते जा रहे थे। कभी भी न मिटनेवाले 'टेटूज' (गोदने) के समान।
प्लूटो एक सप्ताह भरतपुर में रहा।
इस एक सप्ताह के दौरान वह प्रतिदिन किरण से मिलता रहा। स्वयं किरण भी। दोनों अक्सर जब भी मिलते तो जाने-अनजाने एक-दूसरे का हाथ थाम लेते। घण्टों एक ही स्थान पर बैठे रहते। एक-दूसरे को निहारते! आपस में खो जाते। प्यार की बातें करते- मीठी-मीठी बात- ऐसी बातें जो एक बार आरम्भ होकर फिर जैसे समाप्त होने का नाम ही नहीं लेतीं- ऐसा था किरण का प्यार। प्लूटो की चाहत। दोनों ही एक-दूसरे को बे-हद चाहने लगे थे। बे-हद एक-दूसरे पर मर-मिटे थे। क्षणभर को भी यदि दोनों की भेंट में देर हो जाती थी, तो दोनों ही व्याकुल हो उठते- परेशान हो जाते थे।
किरण और प्लूटो प्रतिदिन ही मिलते थे। प्रतिदिन ही वे प्यार की कसमें खाते रहे। एक-दूसरे से वादे करते रहे। फिर अन्त में जब सप्ताह समाप्त होने को आया तो किरण उदास हो गयी। साथ ही प्लूटो भी गम्भीर हो गया। दोनों में से कोई भी एक-दूसरे को नहीं छोडना चाह रहा था, मगर प्लूटो को तो जाना ही था। आज़ नहीं तो कल। कभी तो उसे अलग होना ही था, इसलिए अपने प्यार को अमर बनाने के लिए, उसे सदैव याद रखने के लिए वह किरण के साथ सप्ताह के अन्तिम दिन, संध्या ढले तक साथ-साथ रहा। संध्या से पूर्व ही वह बाजार भी गया। वहां उसने बाजार से एक पतली-सी पीतल की गले की चेन खरीदी। अपने प्यार की निशानी के तौर पर वह इसे किरण को देना चाहता था ।
और जब साँझ घिरने लगी… क्षितिज पर सूर्य की किरणें सिंदूर बनकर चमक उठी, तो वह किरण के साथ एक पुरातन खण्डहरों के एकान्त में गया. सरकार ने इस स्थान को ऐतिहासिक दृष्टि से सुरक्षित कर लिया था। यहां किसी राजा का बनाया हुआ महल था, जो अब आकर इस युग में क्षत-विक्षत हो गया था। उसकी पुरानी दीवारें, टूटे हुए खम्भे आज भी अपनी युगों पुरानी स्मृतियों को दोहरा रहे थे। राजा का बनवाया हुआ ये महल शहर से एक तरफ, एक निर्जन और एकान्त में था। इसी कारण यहाँ पर अधिकांश प्रेमी-युगल अपने-अपने प्यार की झूठी-सच्ची कसमें खाने आते थे। सरकार ने पास ही में एक पार्क भी बनवा दिया था…'गोल्डन पार्क'। इसलिए इस स्थान को पर्यटक भी देखने आया करते थे। किरण और प्लूटो भी इससे पूर्व यहां पर दो-तीन बार आ चुके थे. . . आकर उन्होंने प्यार की बातें की थीं। एक-दूसरे का साथ देने की कसमें खायी थीं। एक-दूसरे से वायदे किये थे और आज भी जबकि प्लूटो कल जाने को था…. आज के पश्चात वह कल यहाँ नहीं आ सकेगा। वह किरण के साथ यहाँ चला आया था। किरण से अलग होने का उसे भी दु:ख था, परन्तु इस दुख से कहीं अधिक किरण को कष्ट हो रहा था और होता भी क्यों नहीं? वह तो एक नारी थीं…नारी समान ही उसका अकेला और कोमल ह्रदय भी था। फिर दुनिया के इस भरे माहोल में वह खुद भी अकेली थी। संसार में उसके पिता के अतिरिक्त उसका अन्य कोई सहारा था भी नहीं। माँ बचपन में ही उसे छोड़कर परलोक सिधार गयी थी। पिता अपनी नौकरी के कार्यों में व्यस्त रहते। एक वकील होने के कारण वे वैसे भी अपना अधिक समय किरण को नहीं दे पाते थे। प्लूटो किरण का ये दर्द समझता था। आज से नहीं, बचपन से ही। ऐसी परिस्थितियों में किरण को क्यों नहीं बुरा लगता, क्यों नहीं वह उसके जाने पर उदास होती। वैसे भी मानव से दो समयों की जुदाई सहन नहीं हो पाती है…एक तो किसी की भी मृत्यु की जुदाई का गम और दूसरी प्यार की विदाई। फिर किरण तो दोनों ही स्थितियों से परिचित हो रही थी। अपनी माँ की मृत्यु का सदमा वह पहले झेल चुकी थी और प्यार का गम उसको आज मिल रहा था ।
किरण से स्वयं को सँभाला नहीं गया, तो वह पास ही में बने हुए कुएँ की मनि पर जाकर बैठ गयी। ये कोई बहुत बड़ा और पुराना कुआँ था। बेहद चौड़ा, जिसका पानी भी गंदला हो चुका था, और जिसकी दीवारों से काई लग रही थी। घास भी उग आयी थी। अन्दर की इंटें भी गलने लगी थीं। प्लूटो ने किरण की इस उदासी को देखा तो उसका भी दिल एक बार को तड़प गया। किरण की उदासी उससे देखी नहीं जा रही थी। फिर उससे जब नहीं रहा गया तो वह बोल पड़ा,
"किरण!"
"? " किरण ने खामोशी से उदासी भरी नजरों से उसे निहारा।
"क्या ऐसे ही मुझे विदा करोगी?"
“?”
किरण फिर भी चुप ही रही। उससे कुछ कहा ही नहीं गया। फिर वह कह भी क्या सकती थी? प्लूटो ने तब बात आगे बढाकर कहा,
"किरण! मैं चाहता तो बहुत था कि तुमको जाते समय कोई बहुत कीमती भेंट, अपने प्यार की निशानी के रूप में देता, मगर मेरी परिस्थिति अभी ऐसी नहीं है । फिर भी, मेरी तरफ से ये पीतल की चेन रख लो। इस आशा पर कि एक दिन मैं स्वय ही आकर इसके स्थान पर तुम्हें सोने का हार पहना दूंगा- तब, जब कि मैं कमाता हूँगा- नौकरी कर रहा हूँगा।"
“... ?”
इस पर किरण ने प्लूटो की तरफ खामोशी से निहारा, उसे प्यार से देखा। उसके प्यार की निशानी को देखा। प्लूटो उसकी ही ओर निहार रहा था। बहुत आशा से, प्यार-भरी नजरों से उसे देख भी रहा था। तब किरण ने तुरन्त प्लूटो के बारे मैं सोचा, 'प्लूटो। कितना अच्छा है? किस कदर प्यारा। कितना महान्! उसके साथ-साथ उसका अपनत्व, प्यार और त्याग भी कितना उच्च है। कितना बड़ा! अभी इसके पास कुछ भी नहीं है, मगर कितने प्यार से वह ये पीतल की चेन लेकर आया है, उसे और क्या चाहिए? चाहिए भी क्या? लड़की को यदि उसका चाहनेवाला मिल जाये, तो यही उसके लिए बहुत होता है। यहीं उसका प्यार सफ़ल हो जाता है। सपने साकार हो जाया करते है। प्लूटो भी उसका ही है। केवल उसका अपना। उसके अतिरिक्त किसी गैर का जरा भी उस पर अधिकार नहीं है।' तब सोचते-सोचते, भावनाओं के भीषण दौर के प्रवाह में किरण प्लूटो से बोली,
"ऐसा मत कहो प्लूटो! तुम मुझे मिल गये हो, तो सारा संसार मुझे प्राप्त हो गया है। तुम मेरे अपने कहलाते रहोगे, तो भी मैं इसी में जीवित रह लूँगी। अब, जबकि तुम इसको इतने प्यार से लाये हो तो स्वयं अपने हाथों से पहना भी दो।"
इस पर प्लूटो ने तुरन्त चेन किरण के गले में पहना दी। पहनाकर जैसे ही उसने किरण की आँखों में देखा तो किरण स्वत: ही उसके अंक में समा गयी- प्यार से। प्यार की बातें सुनने के लिए- उसके सीने से चिपक गयी। सारे संसार से बेखबर! मानो अपने भावी जीवन के साकार होनेवाले सपनों के चित्र देख लेना चाहती थी। क्षणभर को ही- भविष्य के इन सपनों में उसका प्यार था। प्यार-भरा उसका घर-संसार था। उसकी एक छोटी-सी दुनिया थी। उसकी अपनी समस्त खुशियाँ थीं। किरण की इन खुशियों में बहुत से चेहरों की मुस्कानें भी सस्मिलित थीं। उसकी, प्लूटो की और उन दोनों के परिवार की भी।
अन्धकार जब घिरने लगा तो प्लूटो किरण को उसके घर तक छोड़ने आया। सड़क की बत्तियां पहले ही जल चुकी थीं। शहर में रौनक थी। शोर-शराबे के कारण शाम का वातावरण जैसे अधिक व्यस्त प्रतीत होता था। ऐसे ही में प्लूटो जब किरण के साथ उसके घर के सामने रिक्शे में से उतरा, तो उसने देखा कि किरण के पिता अपने कमरे में थे। शायद कुछ कागजों में उलझे होंगे। उनके कमरे की जलती हुई बत्ती देखकर, प्लूटो ने मन-ही-मन विचार किया।
रिक्शेवाले को पैसे देकर जब विदा कर दिया गया, तो किरण घर के आस-पास के अन्धकार का सहारा लेकर प्लूटो के और करीब आ गयी। बिलकुल पास। दिल की धड़कनों के करीब- मानो उससे अलग ही नहीं होना चाहती थी। अलग होने का मन ही नहीं कर रहा था। उसका जी चाहता था कि वह प्लूटो के पास सदा ही बनी रहे। प्लूटो उसी के पास खड़ा रहे। सदैव- कभी भी वे अलग न होंगे- यही सोचकर वह प्लूटो के करीब आ गयी थी। बहुत आहिस्ता से। अपना समझकर उसके दिल की धड़कनों से जा लगी थी। किरण ने बहुत खामोशी से अपना सिर उसके सीने पर रख दिया था। प्यार से। अपनी आँखें भी बन्द कर ली थीं- जी भरके- शायद वह अपने भविष्य के सपनों में खो जाना चाहती थी।
काफी देर के पश्चात जब प्लूटो को एहसास हुआ, और जब उसने ये महसूस किया कि अब उसे चलना चाहिए, तो वह किरण के सिर पर हाथ फेरने लगा, फिर एक हाथ से उसके मुख को ऊपर उठाकर उसने किरण को देखा- अन्धकार में उसकी आँखों में झाँका- प्यार से- तब कहा,
"क्या जाने नहीं दोगी?"
किरण इस पर कुछ भी नहीं बोली, बल्कि उसने पुन: अपना सिर प्लूटो के सीने पर रख दिया- रख दिया तो उसने दुबारा कहा,
"जाने दो किरण! नहीं तो मेरी ट्रेन छूट जायेगी। मैं वायदा करता हूँ कि तुमको शीघ्र ही लेने आऊँगा और अकेले नहीं, बैंड-बाजों के साथ। मैं जाते ही अपने माता-पिता से विवाह की बात आरम्भ कर दूंगा।"
“... ?”
इस पर किरण ने उसके दोनों हाथों को शीघ्र ही अपने हाथों में थाम लिया। एक नजर भरकर उसकी आँखों में निहारा- तब कहा कि,
"जाते ही पत्र लिख देना- अवश्य ही।"
"अवश्य! तुम निश्चित रहना।" प्लूटो ने उसको विश्वास दिलाया, दिलासा दी, तब किरण ने उसके दोनों हाथों का एक चुम्बन लेकर छोड़ दिया। प्लूटो ने इस पर मुस्कुराकर देखा, फिर तुरन्त चलने लगा-चलने लगा तो किरण ने पुन: उसका हाथ पकड़ लिया।
"... ?" प्लूटो ने आश्चर्य किया. रुककर वह किरण को देखने लगा।
"तुम्हारा हाथ तो बिलकुल खाली है।" ये कहकर किरण ने अपने हाथ की अँगुली का छल्ला निकालकर ब्लूटो को पहनाया- पहनाते हुए वह आगे बोली।
"इसे मेरे प्यार की निशानी समझकर पहने रहना।"
"मैं सदैव इसे अपने पास रखूंगा।" प्लूटो ने कहा ।
फिर अन्त में प्लूटो चला गया- किरण बड़ी देर तक उसे जाते हुए देखती रही- तब तक, जब तक कि वह उसकी दृष्टि से ओझल नहीं हो गया- और प्लूटो चला भी गया। उसकी नजरों से छिप भी गया, तो भी किरण बहुत देर तक वहीं खड़ी रही। खड़ी-खड़ी सोचती ही रह गयी। गुमसुम- उदास- मायूस-सी, निराश हो गयी, परन्तु इस निराशा में भी उसकी जिन्दगी को किसी अनमोल खुशी की आशा थी. यही कि, वह प्लूटो की है। प्लूटो उसका है। सदैव उसका ही बना रहेगा और आगे आनेवाले दिनों में वह बड़ी शान से उससे बँध भी जायेगी, उसकी होकर, उसी की बनकर रहेगी और फिर यही उसका प्यार होगा। प्यार की तपस्या होगी। तपस्या का फ़ल कि, उसकी आराधना, उसके जीवन की सारी आकांक्षाओं की पूर्ति बनकर एक वरदान के रूप में उसके घर के आँगन में प्रतिदिन आरती के पुष्प चढाया करेगी।
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