Maanbhanjan - 3 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | मानभंजन--भाग(३)

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मानभंजन--भाग(३)

प्रयागी की समझ में नहीं आ रहा था कि वो अपने पति की बात माने या नहीं,क्योंकि उसकी अन्तरात्मा इस बात को मानने के लिए कतई राजी नहीं थी,वो मन ही मन सोच रही थी कि कैसे कोई पति अपनी पत्नी से परपुरूष से प्रेम का अभिनय करने को कह सकता है,उसे अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल रहे थे और वो सोच रही थी कि वो अपने प्रश्नों के उत्तर किससे जाकर पूछें....
तभी एक रोज़ ऐसा हुआ जो प्रयागी ने कभी सोचा ना था,रूद्रप्रयाग ने तो मन में ठान ही लिया था प्रेमप्रताप से बदला लेने का और इस बदले को पूरा करने के लिए वो किसी भी सीमा को लाँघने को तैयार था जो कि उसने किया,उसे पता था कि प्रेमप्रताप किसी मोतीबाई के कोठे पर जाता है,इसलिए उसके मन में एक योजना का उद्गम हुआ,वो भी एक दिन मोतीबाई के कोठे पर जा पहुँचा.....
मोतीबाई भीतर थी,तभी एक बाँदी उसके पास जाकर बोली....
बाई जी!कोई जमींदार रूद्रप्रयाग तशरीफ़ लाएं हैं और आपको याद फरमाते हैं,
मोतीबाई का माथा ठनका और वो कुछ भयभीत सी हुई कि आखिर रूद्रप्रयाग यहाँ किसलिए आएं हैं,वो तो किसी तवायफ़ के यहाँ नहीं जाते,उन्हें कहीं ये तो पता नहीं चल गया कि मैं ही प्रेमप्रताप को प्रयागी के पास ले गई थी,इन्हीं कश्मकश़ों के साथ मोतीबाई रूद्रप्रयाग के सामने हाजिर हुई और पूछा.....
जी!हुजूर!कहिए मैं आपकी खिदमत किस तरह कर सकती हूँ?
जी!आप ही मशहूर तवायफ़ मोतीबाई हैं,रूद्रप्रयाग ने पूछा।।
जी!मैं ही मोतीबाई हूंँ,मोतीबाई बोली।।
तो आप जमींदार प्रेमप्रताप को तो जानती ही होगीं,रूद्रप्रयाग बोला।।
जी!जानती हूँ,मोतीबाई बोली।।
सुना है वें आपके कोठे पर अक्सर आते रहते हैं,रूद्रप्रयाग बोला।।
जी!आते हैं,मोतीबाई बोली।।
तो क्या आपको मालूम है कि वो किसी से मौहब्बत करते हैं लेकिन उन्होंने उनका प्रेम ठुकरा दिया,रूद्रप्रयाग ने पूछा।।
जी!ये तो मुझे नहीं मालूम,मोतीबाई साफ झूठ बोल गई।।
तो कभी भी उन्होंने आपसे नशे की हालत में उसका जिक्र नहीं किया,रूद्रप्रयाग ने पूछा,
जी!नहीं!मोतीबाई बोली।।
ये तो बड़ी अजीब बात है कि उन्होंने आपसे इस बात का जिक्र ही नहीं किया,रूद्रप्रयाग ने पूछा।।
लेकिन आप ये सब मुझसे क्यों पूछते हैं?मोतीबाई बोली।।
ठीक है जब आपको कुछ मालूम नहीं तो मैं ही आपसे सब खुलकर बता देता हूँ,मुझे आपसे एक काम है और इस काम के मैं आपको मुँहमाँगे दाम दूँगा,रूद्रप्रयाग बोला।।
क्या काम करना होगा मुझे?मोतीबाई ने पूछा।।
तो क्या आप राजी हैं इस काम के लिए,रूद्रप्रयाग ने पूछा।।
पहले मुझे इस के बारें में कुछ तो पता चले तब तो हाँ बोलू,मोतीबाई बोली।।
काम थोड़ा टेड़ा है लेकिन ये काम आप ही कर सकतीं हैं,रूद्रप्रयाग बोला।।
लेकिन काम तो पता चले,मोतीबाई बोली।।
आपको करना यूँ होगा कि प्रेमप्रताप को विश्वास हो जाएं कि प्रयागी उससे सच्ची मौहब्बत करती है,रूद्रप्रयाग बोला।।
प्रयागी.....मोतीबाई इतना ही बोल पाई थी कि तभी रूद्रप्रयाग बोल पड़ा....
हाँ....प्रयागी....वो मेरी पत्नी है।।
जी आपकी पत्नी और प्रेमप्रताप से मौहब्बत,ये सब क्या कहते हैं आप?अपनी पत्नी का नाम कोई परपुरुष के संग कैसे जोड़ सकता है?लज्जा नहीं आती आपको ये कहते हुए,मैं ये काम हरगिज़ ना करूँगी,मोतीबाई ने कहा।।
लेकिन क्यों?मैं आपको इसके दाम दे रहा हूंँ ना!रूद्रप्रयाग बोला।।
लेकिन किसी औरत की इज्जत रूपयों से बड़ी नहीं हो सकती,मोतीबाई बोली।।
मुझे ये मालूम है लेकिन मेरे पास सिवाय इसके और कोई चारा नहीं,रुद्रप्रयाग बोला।।
जब आपकी स्त्री का नाम समाज किसी परपुरुष के साथ जोड़ेगा तो क्या आपको अच्छा लगेगा?इसमें आपकी स्त्री के साथ साथ आपकी भी तो बदनामी है,किसी स्त्री की आबरू इतनी सस्ती नहीं होती कि उसका मोल लगाया जाएं ,वो तो अनमोल होती है और अगर एक बार किसी स्त्री के चरित्र पर दाग लग जाएं तो फिर वो कहीं की नहीं रहती,मोतीबाई बोली।।
वो सब मुझे मालूम है,रूद्रप्रयाग बोला।।
तब भी आप ऐसी बातें करते हैं,आपकी आँखों में शरम-हया बची है या नहीं,मैं तो आपको महान समझती थी लेकिन आप तो एक गिरे हुए इन्सान निकले,जिस इन्सान की मैं इतने सालों से बंदगी करती आ रही थी वो तो शैतान निकला,ना चाहते हुए भी मोतीबाई के मुँह से ये सब निकल गया,
कह कहती हैं आप!आप और मेरी बंदगी,रूद्रप्रयाग बोला।।
जी!कुछ नहीं,वो तो आवेश में मेरे मुँह से निकल गया,मोतीबाई ने पुरानी बातों को छुपाते हुए कहा।।
नहीं!कोई बात तो जरूर है,आप मुझसे कुछ छुपा रहीं हैं,रूद्रप्रयाग बोला।।
जी!नहीं!कुछ भी नहीं छुपा रही,मुझे क्या जरूरत है आपसे कुछ भी छुपाने की? मैं तो आपको जानती भी नहीं,आज पहली बार मिली हूँ आपसे,मोतीबाई ने झूठ बोलते हुए कहा...
अब तो आपको बताना ही होगा,आपको मेरी कसम,रूद्र जिद करते हुए बोला।।
देखिए जिद मत कीजिए,मैं आपको कुछ भी नहीं बता सकती,मोतीबाई बोली।।
आपको बताना ही होगा कि आप मुझे कैसें जानती हैं?,रूद्र बोला।।
ठीक है तो आप अगर जानना ही चाहते तो एक मिनट यहीं ठहरे मैं अभी आई, फिर मोतीबाई भीतर अपने कोठे में गई और हाथों में कुछ लेकर लौटी और रुद्र से पूछा.....
इन्हें पहचानते हैं?
रूद्र ने देखा तो वो जूतियाँ थी और वो वहीं जूतियाँ जो उसने बचपन में मोती को दी थीं,तब रूद्र बोला....
हाँ....हाँ....कुछ कुछ याद आ रहा है,ये तो मेरी जूतियाँ है,ये तो मैनें किसी लड़की को दी थीं,ये आपके पास कैसे पहुँचीं?
उस लड़की का नाम याद है आपको,मोतीबाई ने पूछा।।
हाँ....हाँ....उसने अपना नाम मोती बताया था,मुझे याद आया,रूद्र बोला।।
तो मेरा नाम क्या है?मोती ने पूछा।।
मोती.....मोती तो तुम वही मोती हो और तुमने अब तक इन जूतियों को सम्भाल कर रखा है,रूद्र ने पूछा।।
जी!ये मेरी जिन्दगी का पहला तोहफा था,इन्हें तो सम्भालकर रखना ही था,मोतीबाई बोली।।
सच!तो तुम अब तक नहीं भूली मुझे,रूद्र बोला।।
अपने ख़ास दोस्त को क्या कोई भूलता है कभी,मोतीबाई बोली।।
मैं और ख़ास,वो भी आपके लिए,रूद्र बोला।।
जी!उस समय आपने मुझे अपना दोस्त माना था,जब मैं बिल्कुल अकेली थी,अनाथ थी,अप्सरी जान ने मुझे चंद दामों में खरीदा था ,बचपना क्या होता है ये मैनें कभी जाना ही नहीं,अप्सरी जान ने मुझे समय से पहले जवान बनाकर इस नरक में झोंक दिया,मैं अपनों के लिए तड़पती थी,रोती थी,मेरी जिन्दगी में केवल तनहाई,रूसवाई और अप्सरी जान की झिड़कियाँ थी,इतनी तकलीफ़ में जब तुमने मुझे अपना दोस्त बनाया तो ऐसा लगा कि किसी ने मेरें घावों पर ठंडा मरहम रख दिया हो,इतने सालों में मैं जब भी जिन्दगी से निराश और हताश होती थी तो इन जूतियों को सहलाकर अपना मन हल्का कर लेती थी,इन्हें सहलाकर ऐसा लगता था कि जैसे तुम कह रहे हो कि चिन्ता मत करो मैं हूँ ना!बस इसी आस में मैनें इतने साल बिता दिएं,मोतीबाई बोली।।
तो तुमने मुझसे कभी मिलने की कोशिश क्यों नहीं की?रूद्र ने पूछा।।
उसकी भी वजह थी,मोतीबाई बोली।।
क्या वज़ह थी?रूद्र ने पूछा।।
वो ये कि मेरी जैसी बदनाम औरत भला तुम्हें बदनामी के सिवाय और क्या दे सकती थी?जब कभी मेरा जी चाहता तो तुम्हें छुपकर देख लेती थी,तुम्हारी झलक देखने भर से ही मेरे कलेजे को ठंडक मिल जाती थी,फिर पता चला कि तुम्हारा ब्याह हो गया है,इसलिए तुम्हें वो छुप छुपकर देखना भी बंद कर दिया मैनें,ये कहते कहते मोतीबाई की आँखें छलक पड़ी....
ये सब सुनकर रूद्र का मन भी द्रवित हो उठा और वो बोला.....
मोती!अब मैं तुमसे वादा करता हूँ कि तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ूगा,जब भी तुम्हें मेरी मदद की जरुरत होगी तो मैं हमेशा हाजिर रहूँगा,रूद्रप्रयाग बोला।।
बस मेरे लिए इतनी ही हमदर्दी काफी है,मोती बोली।।
अब से मैं तुम्हारा हमदर्द हूँ,तुम अपनी तकलीफ़ मुझसे बाँट सकती हो,रूद्र बोला।।
मैं इतनी ज्यादा उम्मीद किसी से नहीं करती,मुझे पता है कि तकलीफ़ के सिवाय मुझे कभी कुछ नहीं मिलेगा,क्योंकि एक तवायफ़ का नसीब ऐसा ही होता है,मोती बोली।
ऐसा ना कहो,तवायफ़ भी इंसान होती हैं और उसके पास भी दिल होता है,जो हमदर्दी और अपनापन चाहता है,रूद्र बोला।
नहीं!तवायफ़ इन्सान नहीं होती,वो तो केवल एक जिस्म होती है जिसे हर कोई नोंचना चाहता है,वो बाजारू सामान होती है,जिसकी नुमाइश होती है,बोलियाँ लगतीं हैं,उस के पास केवल घुँघरू और जमाने भर की बदनामियों के सिवाय कुछ नहीं होता,उसके दिल के बारें में कौन पूछता है भला कि वो क्या चाहता है?जैसे तुम मुझसे ये कहने आएं हो कि मैं प्रेमप्रताप को ये विश्वास दिलाऊँ कि तुम्हारी पत्नी प्रयागी उससे सच्ची मौहब्बत करती है और इसके लिए मुँहमाँगे दाम भी देने को तैयार हो,लेकिन मेरा दिल ये नहीं चाहता कि किसी सती स्त्री के पवित्र चरित्र पर मैं कलंक लगाऊँ,लेकिन तुम मुझे ये करने पर मजबूर कर रहे हो,मोतीबाई बोली।।
तो अब दोस्त के नाते ही मेरी बात सुन लो,मैं सिर्फ़ प्रेमप्रताप को मात देना चाहता हूँ,समाज में उसका रूतबा कम करना चाहता हूँ,रूद्र बोला।।
अपनी पत्नी को कलंकित करके तुम उसका रूतबा कम करना चाहते हो,क्या ये तुम्हें शोभा देता है?मोतीबाई बोली।।
मुझे नहीं मालूम कि क्या सही है ,क्या गलत लेकिन मुझे इतना पता है कि इश़्क और जंग में सब जायज होता है,रूद्र बोला।।
तुम इस वक्त यहाँ से चले जाओ,मैं बस इतना चाहती हूँ,मोती बोली।।
तो तुम मेरी मदद करने से इनकार करती हो,रूद्र बोला।।
मुझे मजबूर मत करो ,मोतीबाई बोली।।
केवल इतना ही तो चाहता हूँ,तुम्हें हमारी दोस्ती का वास्ता,मान लो ना मेरी ये बात,फिर कभी कुछ ना माँगूगा,रूद्रप्रयाग बोला।।
अब मोतीबाई रूद्रप्रयाग की बात मानने पर मजबूर थी लेकिन उसका दिल इस बात को मानने को गँवारा ना करता था,व़ह बड़ी दुविधा में थी,एक तरफ दोस्ती और दूसरी तरफ एक सती नारी का चरित्र,वो किसे चुने वो इस सोच में पड़ी थी.....


लेकिन अन्त में दोनों के मध्य हो रही बहस का ये परिणाम निकला कि रूद्रप्रयाग ने मोतीबाई को आखिर अपनी बात मनवाने के लिए मना ही लिया,लेकिन मोतीबाई ने भी एक शर्त रखी कि अगर इस बात को प्रयागी मानने से इनकार कर देती है तो फिर आप उस पर जोर नहीं डालेगें कि वो प्रेमप्रताप से प्रेम का अभिनय करें,रूद्र ने मोती की बात मान ली....
लेकिन मोती ये नहीं जानती थी कि ये तो रूद्र का झूठा आश्वासन था क्योंकि उसने तो पहले ही कहा था कि इश़्क और जंग में सब जायज है इसलिए वो प्रेमप्रताप से बदला लेने के लिए किसी भी हद तक गिर सकता था,अब उसके मन में ना तो प्रयागी के लिए पहले वाला प्रेम था और ना उसके लिए कोई अभिमान,वो तो केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता था,उनके बीच वो कड़ी भी ना थी जिससे दोनों के मन पुनः जुड़ जाते और वो कड़ी थी बच्चा, जो अब तक उन दोनों की दुनिया में ना आया था,अगर बच्चा होता तो शायद रूद्रप्रयाग उसी के बारें में सोच कर पीछे हट जाता, आज तक सफल होकर जो उसमें अपने शक्ति और वैभव के प्रति दुर्दमनीय अभिमान था,वह फिर जाग उठा और उस अभिमान में खोकर वो अपनी गृहस्थी की सुन्दर सी बगिया को उजाड़ने पर उतारू हो चला था.....
उसने प्रयागी से भी कहा कि मैनें आज तक तुमसे कभी कुछ नहीं माँगा,हमारी वंश बेल को भी बढ़ाने वाला अभी तक ना आया लेकिन मैनें तब भी तुमसे कभी कोई शिकायत नहीं की ,क्या औरों के घर की किलकारियाँ सुनकर मेरा भी जी नहीं करता कि मेरे घर में किलकारी गूँजे,मैं तुमसे प्यार करता हूँ इसलिए तुम्हें दुख देने के लिए कभी कुछ नहीं कहता,तुम्हारी खुशी में ही अपनी खुशी समझता हूँ तो क्या तुम मेरी खुशी के लिए मेरी ये बात नहीं मान सकती,अब रूद्रप्रयाग ने जो पासाँ फेंका था उसमें प्रयागी की मात निश्चित थी,उसने आज युधिष्ठिर का रूप धरकर प्रयागी को दाँव पर लगा दिया था,ये परवाह किए बिना कि जिसके सामने वो प्रयागी को द्रौपदी बनाकर हार रहा है वो प्रेमप्रताप दुशासन से भी बततर है और अगर प्रयागी फँस गई तो उसकी लाज बचाने यहाँ कान्हा भी नहीं आने वाले....
लेकिन रूद्रप्रयाग तो प्रतिशोध के मद में इतना डूब चुका था कि उसे ना तो अपनी द्रौपदी की चिन्ता थी और उसके स्वाभिमान की चिन्ता थी,प्रयागी रूद्र की भावनात्मक बातों के भँवरजाल में फँस गई,जिससे उसका बाहर निकलना नामुमकिन था,जब प्रयागी ही रूद्र की बात मान गई तो मोतीबाई भी कुछ ना कर सकी,वो अपने काम में फिर से लग गई,प्रेमप्रताप का पहला पत्र प्रयागी को देते हुए तो उसे डर और संकोच दोनों लग रहे थें लेकिन अब वो डर और संकोच दोनों ही लुप्त थे,क्योंकि जब सुहाग ही अपनी सुहागन का बलिदान देना चाहें तो अन्य प्राणी उसमें कुछ नहीं कर सकते,मोती भी मूक कठपुतली सी रूद्र के इशारों पर नाचने लगी.....
अब रूद्र के इशारें पर मोती फिर से प्रेमप्रताप का पत्र प्रयागी तक पहुँचाने का कार्य करने लगी,प्रयागी को पत्र मिलता, वह पढ़ती और उसके मन में तरह-तरह के विचार उठते,उसे ये पाप लगता,लेकिन जब उसके सुहाग को ये पाप नहीं लगता तो वो किस बात का पाश्चाताप करें,वो ये सोचकर बात को बढ़ाने का प्रयास करने लगी और उसकी ओर से भी पत्र जाने शुरु हो गए,प्रेमप्रताप की तो जैसे बाँछें ही खिल उठीं,वो प्रयागी से मिलने को आतुर हो उठता,लेकिन प्रयागी मिलने से मना कर देती,क्योंकि उसके लिए घर की दहलीज़ एक पहाड़ थी जिसे लांघ जाना उसके लिए असम्भव था,
प्रेमप्रताप के वैभव को वो जानती थी,लोग कहते थे, सब उससे डरते हैं और फिर प्रयागी का मन और कितने दिन शांत रहता ,प्रयागी के मन की स्पर्धा जाग उठी,उसने भी प्रतिस्पर्धावश पत्र लिखने का सोचा, उसने कुछ दिन चुप रहकर अंत में रूद्र के कहने पर प्रेमप्रताप को एक पत्र लिखा, वह एक आमंत्रण-पत्र था जिसमें लिखा था कि ....
"प्रिय प्रेमप्रताप,
तुम्हारा लिखा पत्र मिला,मैं राज़ी-ख़ुशी हूँ और तुमसे मिलने कहीं नहीं आ सकती,तुम केवल सुबह शाम नदी के घाट पर मुझसे मिलने आ सकते हो,आखिर तुमने मेरा मन जीत ही लिया,पत्र काफी संक्षेप में था,
ये पत्र प्रयागी रूद्रप्रयाग को पढ़वाती और रूद्रप्रयाग जाकर मोतीबाई को पढ़वाता,फिर रूद्रप्रयाग अपनी योजना की सफलता पर मंद मंद मुस्काता, धीरे-धीरे दोनों ओर से कई कई पत्र, प्रश्न और उत्तर के रूप में, हाथों में बदलने लगे, फिर भी आग कोयले में ढकी रही,धुआँ ना उठा,अगर धुआँ उठता तो जमाने को खबर लग जाती, प्रयागी का स्नान नदी के घाट पर सुबह शाम अधिक देर तक होने लगा,
प्रेमप्रताप उसे अनेकों बार वहांँ आकर अकेले मिलकर चला जाता,लेकिन फिर एक दिन....
वह एक मद-भरी सांझ थी,प्रयागी और प्रेमप्रताप नदी के घाट की सीढ़ियों पर बैठें,दृश्यों का आनंद उठा रहे थे, प्रेमप्रताप की आंखों में अजीब सा सुरूर था,प्रयागी के गुलाब समान होंठों की मुस्कुराहट उसे बेचैन कर गई,वो स्वयं को उसके रूप के सामने पराजित समझ रहा था,नदी पर डूबता सूरज,चिड़ियों का चहचहाना,ठंडी बयार और पानी में उठती हिलोरें प्रेमप्रताप को इतना बेचैन कर गई कि वो अपने मन में उठती हिलोरों को दबा ना सका और भूलवश प्रयागी के होठों का प्रगाढ़ चुम्बन ले बैठा,प्रयागी स्वयं को छुड़ाती रही लेकिन प्रेमप्रताप ना माना,
प्रेमप्रताप को तब होश आया जब उस की वासना शान्त हुई,प्रयागी ने आव देखा ना ताव और जोर का थप्पड़ प्रेमप्रताप के गालों पर धरकर बोली.....
निर्लज्ज!पापी!तू मुझसे प्रेम करता है अगर तेरा प्रेम सच्चा होता तो तुझमें धीरज होता लेकिन तू जिसे प्रेम कहता है वो प्रेम नहीं वासना है और इस वासना में तू अन्धा हो चुका है,आज के बाद मुझसे मिलने का कभी भी प्रयास मत करना,मैं तुझ जैसे पापी से मिलना नहीं चाहती और इतना कहकर प्रयागी अपने आँसू पोछते हुए वहाँ से चली आईं....
रात हो चुकी थी,उस दिन चाँदनी रात थी इसलिए चारोँ ओर चांदनी फैली हुई थी, वह चांँदनी जो आसमान से उतकर फिर आसमान में समा जाती है, जिसके उजाले में दूधिया हिलोरें उठती हैं,जो धरती को छूती तो हैं पर छूते हुए दिखाई नहीं देतीं,लेकिन प्रयागी के मन में तो अँधेरा छाया हुआ था,प्रयागी ने रसोई बनाकर रख दी थी लेकिन खाया नहीं था उसका मन ब्यथित था फिर वो सारे दीपक बुझाकर एकांत में घर के द्वार से सटकर बैठ गई,तभी किसी ने धीरे से द्वार के किवाड़ो की साँकल खटखटाई, प्रयागी ने पहले लालटेन जलाई फिर काँपते हाथ से किवाड़ खोले,रूद्रप्रयाग चुपचाप आया और कोठरी में चला गया,उसने खाना भी नहीं माँगा,तब आधी रात का समय हो चुका था,चारों ओर वहीं निःस्तब्धता और शांति थी,मुहल्ले के सब लोग सो रहे थे,कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ भी नहीं आ रही थी और फिर प्रयागी भी बिस्तर पर जाकर लेट गई,प्रयागी अब अपने कोठरी की खिड़की से उदास मन से चांँद को देखने लगी, चाँद तो शीतल था पर वो शीतल ना थी,क्योंकि उसके अंगों में एक अतृप्त दाह अब भी दहक रही थी,क्रोध की अग्नि उसके गले को सुखा रही थी,वो इतनी क्रोधित थी कि प्रेमप्रताप का खून पीकर अपने प्यासे गले को तर करना चाहती थी,
रूद्र ने उससे पूछा भी कि....
खाना खाया तुमने,मैं तो खाकर आया हूँ।।
नहीं मन नहीं,तुम कहाँ से खाकर आएं हो?
वो किसी ने बुलाया था इसलिए वहीं खा लिया,रूद्र बोला।।
ये सुनकर वो करवट बदलकर उठ बैठी और पूछा.....
किसके यहाँ?
हैं जान पहचान वाले,तुम नहीं जानती उन्हें,रूद्र बोला,
वह डटकर खा आया था,कपड़े बदलकर पलंग पर लेट गया और थोड़ी ही देर में सो भी गया लेकिन प्रयागी देर तक जागती रही,उसे अपने होठों फर प्रेमप्रताप का स्पर्श अभी भी महसूस हो रहा था,उसे स्वयं से घिन आ रही थी,परपुरुष का स्पर्श वो भी अपने अधरो पर...छीः...छीः....ये तो मेरे लिए डूब मरनेवाली बात है....
यही सब सोच सोचकर कब उसकी आँख लग गई उसे पता ही नहीं चला....



क्रमशः....
सरोज वर्मा.....