aada vaqt- novel of a indian former in Hindi Book Reviews by ramgopal bhavuk books and stories PDF | आड़ा वक्त – किसान का उपन्यास

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आड़ा वक्त – किसान का उपन्यास

आड़ा वक्त – किसान का उपन्यास

                                                                                 रामगोपाल भावुक

 

           आदमी धन-सम्पदा कमाकर अपने पास रखता है आड़े वक्त के लिए। किसान आदमी अपनी जमीन तो सदा से आड़े वक्त के लिए रखता आया है,वह कहता है 'जमीन हमारे पुरखों ने इसलिए सौंपी थी कि इसकी रखवाली करते रहें ,इसे कम न करें ,अपने बच्चों को ज्यों की त्यों सौंप जाएं।'    आजकल सबका आड़ा वक्त चल रहा है , ईमानदार कर्मचारियों से लेकर हर श्रेणी के मजदूर और किसान  तक , तो इन्ही वर्गों के आड़े वक्त की दास्तान कही जाय तो बड़ी ख़ास होगी।

     आज देश में किसान जाग्रत हो चुका है,हर प्रदेश में आन्दोलन अपने चरम पर है। सरकार और किसानों में अपने- अपने अस्तित्व की लड़ाई शुरू हो गई है। बात जमीन अर्थात् कृषि भूमि से जुड़  गई है। किसान अपनी कृषि भूमि को पुरखा मानकर चलता है जबकि सरकार कहती है सब भूमि गोपाल की। गोपाल यानी सरकार, सो जब चाहे सरकार किसी भी जमीन को अधिग्रहीत कर लेती है । इसी कारण यह लड़ाई और अधिक वेग पकड़ रही है। खैर ..बात करें आड़ा वक्त की।

           कथाकार राजनारायण बोहरे ने अपने उपन्यास का "आड़ा वक़्त"  नाम देकर एक किसान की कथा विस्तार से कहते हुए हमें खेतों, किसानों के जीवन,उनकी खुशियां,उनकी चिंता और भविष्य में खेतों के अस्तित्व के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया है।

           उपन्यास का सृजन बड़े  मनमोहक तरीके से किया गया है, जो पाठक को शुरू से ही बाँध लेता है। कथानक को दस सोपानों में विभक्त कर लिखा गया है।

             पहला अध्याय जंगल है। दादा का भाई रामस्वरूप हैं, उसी स्वरुप को दादा  भवन एवम पथ महकमे में सब इन्जीनियर की  नौकरी पर जॉइन कराने  छत्तीसगढ़ के   आदिवासी गांव में साथ ले कर पहुंचे हैं। दादा को सुबह जल्दी पांच बजे उठने की आदत है, लेकिन स्वरूप आठ बजे तक सोता रहा। जब स्वरूप उठता है तो देखता है कि दादा जाने कहां चले गये हैं। वह उन्हें खोजते हुए वह दादा के पास ईब  नदी के किनारे  पहुंचता है। वे वहाँ बेफिक्र बैठे हुए हैँ ।

     ‘देखो, यहां कितनी शांति है स्वरुप ! अपने इधर कितना हल्ला मचा रहता है?’ कहते दादा ने दूर के एक दृश्य की तरफ अंगुली उठाई-‘ देखो स्वरूप ,वे  मजूर दिख रहे हैं न, अंदाज लगाओ कै क्या कर रहे होंगे ?’ (पृष्ठ 4)

            वहीं कुछ दूरी पर मजूर रेत छान- छानकर नदी में बहता बारीक सोना निकाल रहे हैं। छत्तीसगढ़ की नदी ईब की इस विलक्षण खनिज सम्पदा और विरासत का लेखक ने जो वर्णन किया है, इससे पाठक चौंकता है और वहाँ के सन 1971 के मजदूरों की आर्थिक  स्थिति का पूरी तरह आकलन करता है।

                दूसरे दिन दादा एक किसान परिवार में बैठने जाते हैं । लोक निर्माण विभाग ने उस  की कुछ जमीन पर कब्जा में करने की प्रक्रिया आरम्भ कर ली है। दादा लौटकर स्वरूप से कहते हैं, "तुम उसका पक्ष लेकर उसे जमीन वापस दिलाने में मदद करो। "

       ‘उसके साथ सहानुभूति रखना मेरे लिए तो धर्म विरूद्ध है दादा!’  स्वरूप ने हथियार डाल दिए। ।(पृष्ठ 15)

     अगले दिन कुनकुरी गये । वहाँ चर्च की मुख्य बिल्डिंग में माँ मरियम व प्रभु यीशु की करुणा में डूबी मूर्ति, प्रार्थना भवन, पुस्तकालय और घने जंगल, दूर दराज के इलाके में इतना सजा-सम्हरा एक बहुत विशाल अस्पताल देखने को मिला।उन्हें आश्चर्य हुआ। दादा यूं तो शुद्ध पुरातन पंथी थे, लेकिन उन्होंने  साष्टांग दंडवत की प्रभु यीशु के सामने । (पृष्ठ 12)

              चर्च के पादरी फादर भरपूर सम्मान देते हुए उन्हें विदा करते हैं।

              अगले दिन स्वरूप बिना पूछे ही दादा की घर वापसी के लिए रेल टिकट का आरक्षण करवा देता है। 

       उपन्यास का दूसरा सोपान है बैल।  दादा ट्रेन द्वारा छत्तीसगढ़ से वापस लौट रहे हैं । उनकी स्मृतियों में जीवन की घटनायें एक- एक करके सामने आती जा रहीं हैं,

       स्वरुप को पॉलिटेक्निक का सर्टिफिकेट प्राप्त करने का वर्ष सन 1971 था जब देश मे लड़ाई छिड़ जाने से सारी भर्तियां रोक दी गयी थीं। साल भर बाद जुगलकिशोर दादा ने जाना था कि अब सरकार नई भर्ती खोल रही है , तो स्वरूप को बताया था।   परीक्षा हुई और  स्वरूप की नौकरी का आदेश आया था।

       इस अध्याय में दादा का चरित्र एक सच्चे किसान के रूप में  है। दादा ने किस तरह मेहनत करके अपनी जमीन बचाकर रखी है। अकाल के समय सड़क निर्माण के काम में मजदूरी भी करना पड़ी है। उसमें ठेकेदार की मनमानी का सही चित्रण दिखया है।कुछ अंश देखिए-

         भाँय !भाँय ! भाँय ! 

        लू बदस्तूर जारी थी । जुगलकिशोर  ने छैलियों की छाँव में बैठकर साइट की निगरानी का काम उचित समझा,  छैलियों में भीतर सरककर आल्थी-पाल्थी मार ली । माथे पर गमछा बाधँते -बाधँते उसे अनजाने में ही गाँव में सुना गीत याद आ गया ।

             सब पै बिपत पड़ी, रे भैया सब पे...। (पृष्ठ 45)

            खन्ना साहब उससे मजदूर रेजा को डाकबंगले पर लाने को कहता है। उसे लगता है- अंजान मजदूर को नही बल्कि  उसकी होने वाली पत्नी को ही ठेकेदार के यहां ले जा रहा है। इससे उसका चित्त बदलता है तो वह खन्ना को गाली देता है और उस रेजा को डाकबंगले की बजाय उसके गांव पहुंचा देता है, जुगलकिशोर का चरित्र यहां ऊंचाई  छू जाता है। (पृष्ठ 52)

          बड़ा होकर जुगलकिशोर  बहुत समर्पित भाव से खेती शुरू करते हैं, वे बेलारूस ट्रैक्टरों के माध्यम से ढाई फिट तक की खेत की मिट्टी पलटवाते हैं (पृष्ठ 58) और जमीन में जमे बंबूल और छेवले के पेड़ कटवाते हैं। (पृष्ठ 53) दादा ध्यान रखते हैं कि खेत की मेड़ पर कभी भी पानी सुखाने वाले यूकेलिप्टस के पेड़ न लगें, विदेशी बीज और खाद खेत मे प्रवेश न करने पाए। परिन्दों और चरिन्दों से खेत की रखवाली करने के लिए न केवल बिजूका खड़ा करते हैं, वे खुद भी गोफना ले कंकड़ फेंक कर हुर्रर की आवाज से उन्हें भगाते रहते हैं ( पृष्ठ 20) जबकि रात के समय वे नील गायों से रखवाली के लिए पटाखे और धमाकेदार बन्दूक भी चलाते हैं। खेती की बहुत सूक्ष्म जानकारी रोचक अन्दाज़ में लेखक ने पाठक से साझा की हैं ।         

           इस उपन्यास का तीसरा सोपान विस्थापन है। बहन सुभद्रा का ब्याह धर्मपुर गाँव में हुआ । यकायक एक छोटी सी नदी पर जलाशय बनने की  घोषणा होती है तो सुभद्रा  का पूरा गाँव धर्मपुर  ही तालाब की डूब में आने लगा ।  गाँव वाले तहसील दफ्तर पहुंचे थे।     "बाद में पता लगा कि गांव वालों से तहसीलदार का लिया कागज कलेक्टर तक गया और कलेक्टर ने आगे नहीं बढ़ाया बस अपने यहाँ  फाइल में लगा लिया। क्योंकि बांध बनाने का निर्णय प्रदेश सरकार ने किया था जिसे बदलने का हक कलेक्टर को ना था। "(पृष्ठ 74)

               अंत में कुछ नहीं हुआ । गाँव को छोड़ते समय विवश गांव वाले  द्वंद्व में रहते हैं। पीढ़ियों की स्मृतियों को सहेजे खड़े मकान,मोहल्ले में  क्या क्या ले चलें?क्या छोड़ें ?  नयी जगह सुविधाओ के अभाव और खेती की जमीन न मिलने की जद्दोजहद आदि विस्थापन की अनेक समस्याओं से लेखक पाठकों को रू-ब-रू कराने में सफल रहता है।

      चौथा जादूटोना नामक अध्याय पत्र शैली में है। जिसमें एक सामान्य मजदूर होने के बावजूद बड़ी ईमानदार और समर्पित रही वँशो के निश्छल  कार्य कलापों को उजागर किया है।वँशो अपने प्राण दाव पर लगाकर सांप के जहर से स्वरूप के प्राणों की रक्षा करती है। साइट पर जाकर वह स्वरूप का पक्ष लेती है इसलिये ठेकेदार द्वारा उसे काम से निकाल दिया जाता है, उस पर जादू टोना किया जाता है। स्वरूप ही उसका इलाज और झाड़-फूंक कराता है।  वँशो  ठीक होकर मजबूरी में मिसनरी में पहुंच जाती है। " एक दिन वँशो अपने परिवार सहित गाँव से चली गयी मिशनरी में बसने के लिए।आजकल वह वहीं हैं।वह अब वंशो नहीं, मिस बेट्टीकन है, वह अंग्रेजी बोलती है,अंग्रेजी ढंग से रहना शुरू कर रही है। (पृष्ठ 59)

             पांचवे अध्याय  में ईमानदारी से काम करने की स्वरूप की निष्ठा पुष्ट हुई है।     दरअसल स्वरूप एक ईमानदार अधिकारी बनने का संकल्प ले लेता है। लम्बे समय बाद उसका  स्थानांतर  मैदानी इलाके में हो जाता है। छत्तीसगढ़ में जो ईमानदारी सबसे बड़ा गुण था , मैदानी इलाके में उसकी वही ईमानदारी दूसरे बड़े अधिकारियों को खटकने लगती है।

       छठवें  सोपान आदत में पड़ोस  में रहने वाले पत्रकार शिव शर्मा द्वारा स्वरूप की ईमानदारी के किस्से यादव जी नाम के छदम नायक के नाम से कहानी के रूप में प्रकाशित करते हैं। दरअसल भवन एवम पथ महकमे में निर्माण कार्य  गवर्मेंन्ट के होते नुकसान का आकलन करना स्वरूप की आदत में आ गया है,वह हर हालत में  नुकसान रोकता है। बड़े अधिकारी अपने हिस्सा न मिलने के चक्कर में उस पर जबरन दोष लाद देते  हैं और हर माह कटती वेतन की एक तिहाई राशि स्वरूप के घर का बजट बिगाड़ देती है, उसके घर अखबार,दूध व सब्जी तक के लाले पड़ जाते हैं। लेकिन स्वरूप  ईमानदारी  से काम में लगा रहता है।

        सातवे सोपान में स्वरूप को काम के तनाव में गुस्सा आने से  ब्लडप्रेसर की बीमारी रहने लगती है।  इससे स्वरूप को किडनी का रोग हो जाता है।    जब दादा स्वरूप को देखने अस्पताल में आते हैं तो स्वास्थ्य सम्बन्धी फालतू उपदेश देकर, जमीन बेचने, पैसे देने की बात को टालते हुए कहते थे कि जमीन आड़ा वक्त के लिए होती है। हर बार वे जमीन बेचना टाल जाते हैं। एक दिन रेलवे स्टेशन पर स्वरूप और उनकी पत्नी कौशल्या की अचानक ही छत्तीसगढ़ वाली स्नेही महिला वँशो से भेंट होती है जो उनका हौसला बढ़ाती है- "मैं अपनी छुट्टी कैंसल करा लेती हूं। मद्रास चलते हैं अपन लोग।किडनी का कोई डोनर न मिलेगा तो साहब को अपनी किडनी दूँगी मैं।" (पृष्ठ 134)   लेकिन मद्रास जाना नही हो पाता।

          आठवें  अध्याय में किसान आन्दोलन का वर्णन है। दादा अपने लड़के के पास भोपाल जाते हैं। उन्हें स्वरूप की बीमारी बाबत कोई दर्द नहीं है, बल्कि वे भोपाल में किसान आन्दोलन में चाय पार्टी का आनन्द लेते एक टेलिविजन न्यूज चैनल संवाददाता से किसानों की समस्याएं और सरकार व समाज की लापरवाही बहुत कुशल अन्दाज़ में गिनाते हैं।

    नौवें अध्याय में सुभद्रा के पति धन खोदने के लालच में, तांत्रिकों के चक्कर में फंसकर बीमार पड़ जाते हैं और उनकी मृत्यु हो जाती है।

    दसवां सोपान आड़ा वक्त  कहानी ही है, जिसने एक सफल उपन्यास का रूप धारण कर लिया है। गाँव की पूरी जमीन इडंस्ट्री एरिया के लिए एक्वायर कर ली जाने से दादा मूर्छित हो कर अस्पताल में भर्ती हो चुके हैं।  सुभद्रा भोपाल जाते समय अपने गांव के पास से गुजरती है तो बड़ी हसरत से खेतों को देखती है जिनमें खड़ी जेसीबी मशीनें देख कर उसे अपने खेत, किशोरावस्था में खेले गए अक्षय तृतीया के खेल औऱ रक्कस की पूजा याद आती है।  वह अस्पताल पहुंच कर दादा की हालत से व्यथित हो जाती है। उसी समय स्वरूप का लड़का टिंकू दादा को देखने आता है, जिसने जमीन जाने की खबर पाते ही अपने हिस्से की जमीन किसी बाहुबली को बेच डाली है। उससे हुए वार्तालाप का असर यह होता है कि उसके जाने के बाद सुभद्रा अड़गड़ वाणी में किसान के दुर्भाग्य की बातें दादा के बेटे पप्पू को सुनाने लगती हैं।

 "सहसा सुभद्रा को खुद महसूस हुआ कि इस अड़गड़ वाणी में उसके मुंह से जो शब्द निकल रहे हैं, उनका न पूरा उच्चारण हो पा रहा है , न उनका कोई अर्थ है। जनम जिंदगी से मंत्र, तंत्र और जादू में विश्वास   करती आ रही सुभद्रा को एक बारगी लगा कि मानो किसी शव को जगाने के लिए श्मशान भैरवी की तरह मरघट में खड़ी वह अघोरीतंत्र के औघड़ वाक्य (शाबर मंत्र) बोल रही है।

भौंचक्का होकर बुआ की बातें सुनते पप्पू को लग रहा था कि बुआ किसी लोकनाटय की कलाकार हो गयी है , जो बिना किसी पांडुलिपि , बिना स्वांग और पोशाक के खेले जा रहे किसी नुक्कड़ नाटक में किसानों को जगाने के लिए सहज और मार्मिक संवाद बोल रही है-दिल से निकले दिल पर चोट करते संवाद।

 सहसा वे दोनों चौंके । बेहोश पड़े दादा में एकाएक जाग्रति का बोध दिखाई दे रहा था।

नये उत्साह और भरपूर आशा के साथ वे दोनों दादा को संभालने लगे।

 अब चिंता नही, सब संभाल लेगे दादा!

 सुभद्रा के चेहरे पर आशा छलक उठी थी। (पृष्ठ 148 )  

    अगर उपन्यास के नकारात्मक पक्ष को देखा जाय तो इस उपन्यास में तमाम त्रुटियां नजर आती  हैँ। ...स्वरूप जैसे ईमानदार व आदर्शवादी व्यक्ति को तम्बाखू खाने जैसी आदत खटकती है। ...इस उपन्यास में दलित विमर्श एवं स्त्री विमर्श का भी अभाव है।  जिसकी वजह  से उपन्यास का कथ्य सीमित सा लगता है। पॉलिटेक्निक का सर्टिफिकेट प्राप्त करने आदि  प्रसंग  उपन्यास में दुहराये गए हैँ ।

        भाषा के नजरिये  से देखें तो पाठक को पूरी तरह बाँधे रहने में सफल रही है। प्रभावशाली दृश्य उपस्थित करने वाली मुहावरेदार भाषा, जो पात्रों के अनुसार अपना रूप बदलती रही है।

     पहले अध्याय से ही मजदूरों के साथ खड़े दादा अजनबी किसान का भी पक्ष लेते हैं औऱ निजी जमीन को सरकार द्वारा बिना समुचित तर्क के अधिग्रहीत किये जाने का विरोध करते हैं।पूरे कथानक में उनके यह तेवर दिखाई देते हैं। उपन्यास कलात्मक रूप से बहुत सफल है।

     किसानों के आंदोलन अक्सर इसलिए असफल होते हैं क्योंकि किसान असंगठित है। किसानों के तथाकथित नेता रोज कुँआ खोद के पानी पीने वाले दूधियों, छोटे सब्जी उत्पादकों का सामान छीन के सड़क पर फेंकने लगते हैं, रास्ते के मुसाफिरों के साथ मारपीट की जाने लगती है तो स्त्रियों और बच्चों से भरी बस में आग लगा दी जाती है, जिसे देख कर जन सामान्य की सहानुभूति खत्म हो जाती है और इस असंतोष का लाभ उठा कर सरकार सख़्ती से आंदोलन को कुचल डालती है, जिसका दूसरा जन सामान्य न तो विरोध करता न कोई किसानों के पक्ष में खड़ा होता है।इस उपन्यास में यह तथ्य बड़े साफ रूप से दिखाई देता है।

          लम्बे अरसे बाद हिन्दी में  ऐसा उपन्यास सामने आया है जिसमें विशुद्ध खेती-किसानी, विदेशी बीज और खाद, रखवाली,बिजूका,पटाखे और धमाकेदार बन्दूक, दावन,उडावनी आदि खेती के भीतरी उपक्रम, समस्याओं  से जूझते किसानों, खेत की मेड़ पर पानी सुखाने वाले यूकेलिप्टस के पेड़, विस्थापन,छोटी सी नदी पर बांध, जलाशय, किसानों के जीवन,रीति रिवाज, बिडम्बनाओं को अनुभति के स्तर पर डूब के लिखा गया है।... नौकरपेशा वर्ग भवन एवम पथ महकमे में सब इन्जीनियर, के  बारे में विमर्श किया गया है,  जमीन के प्रति नयी पीढ़ी की बदलती दृष्टि व बाजारवादी नजरिया भी खुलकर आया है।, ईमानदार कर्मचारियों से लेकर हर श्रेणी के मजदूर और किसान के वर्गों के आड़े वक्त की दास्तान इस उपन्यास में है।     उपन्यासों से गायब होता किसान एक बार फिर  यहाँ हाजिर है।

पुस्तक-आड़ा वक्त     (उपन्यास)

लेखक-राजनारायण बोहरे

प्रकाशक-लिटिल वर्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली

पृष्ठ-148

मूल्य-280₹

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रामगोपाल भावुक,कमलेश्वर कॉलोनी, सन्त कवरराम गल्र्स स्कूल, भवभूतिनगर, डबरा,जिला ग्वालियर 475010       

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