शाम का सूरज श्रीकृष्ण की आँखों में दहक रहा था । श्रीकृष्ण के नेत्रों में आँसू ठहरे हुए जल की तरह थे । जब उनके कमल रूपी नेत्रों पर ढलते सूरज की मद्धम किरणें पड़ती तो ऐसा जान पड़ता जैसे कमल के पत्तो पर जल की बूंदे मोतियों की तरह झिलमिला रहीं हैं ।
शाम ख़त्म होने की कगार पर थीं । रात गहरा रहीं थीं , अंधकार के साथ ही श्रीकृष्ण का दुःख भी बढ़ता जा रहा था।
आसमान ऐसा जान पड़ता था मानो धरती ने अब सितारों जड़ी धानी चुनरी ओढ़ ली हैं । टिमटिमाते तारे औऱ उनके बीच चमकता अकेला चाँद अपनी चाँदनी को धरा पर छिटक रहा था।
चंद्रमा को देखकर श्रीकृष्ण उद्धव से बोले - ये चाँद मैं हूँ उद्धव ! ये तारें गोपियां हैं औऱ ये आकाश ब्रजमंडल हैं। चाँद घटता हैं बढ़ता हैं औऱ एक दिन अमावस्या को लुप्त हो जाता हैं। पर ये तारें औऱ ये आकाश तब भी ऐसे ही रहतें हैं..जानतें हो क्यों...?
उद्धव जिज्ञासु स्वर में बोलें - क्यों माधव ...?
श्रीकृष्ण - " क्योंकि ये तारे अपने प्रियतम चंद्रमा का इंतजार करतें हैं "
श्रीकृष्ण की बात सुनकर उद्धव अचरज में पड़ गए । आज माधव को क्या हो गया हैं ? कैसी बातें कर रहें हैं माधव..?
योगेश्वर कृष्ण उन ग्वालन गोपियों के प्रेम में इतने व्याकुल हो रहें हैं..उद्धव ने अपने योगगुरु श्रीकृष्ण के कंधे पर अपना हाथ रखते हुए कहा - माधव ! आप तो जानतें ही हैं जीवन में आगें बढ़ने के लिए प्रेम को पीछे छोड़ना ही पड़ता हैं। ज्ञान प्रेम से अधिक महत्वपूर्ण हैं। आप प्रेम जाल में उलझ रहें हैं।
श्रीकृष्ण ने उद्धव की बातों का कोई भी जवाब नहीं दिया । उनकी नजरें तो अब भी वृंदावन की औऱ थीं।
हवा का एक तेज़ झोंका आया जिसके कारण मयूरपंख श्रीकृष्ण के मुकुट से सरक कर उनके कानों की तरफ़ झुक गया , मानों श्रीकृष्ण के कानों में हौले से कह रहा हो - " वृंदावन चलों कान्हा , यहाँ जी नहीं लगता "
अचानक श्रीकृष्ण मूर्छित हो गए। उद्धव ने अपने दोनों हाथों से श्रीकृष्ण को थाम लिया ।
उद्धव विचलित हो उठे वे सेवकों को पुकारने लगें।
श्रीकृष्ण को उनके कक्ष में लाया गया। उद्धव एकटक कृष्ण को निहार रहें थे। उनके नेत्रों से अश्रुधारा बह रहीं थीं। श्रीकृष्ण के मूर्छित होने की बात जंगल की आग की तरह फैल गई । महल के बाहर भीड़ लग गई । महल में तो जैसे हंगामा मच गया। वासुदेव श्रीकृष्ण मूर्छित हो गए। यह खबर सुनते ही सब दौड़े चले आए। सेवकों को मथुरा के हर विशेषज्ञ वैद्यों को लिवा लाने भेजा गया। मथुरा की सड़कों पर रथ दौड़ पड़े। माता देवकी श्रीकृष्ण का सर सहला रहीं थीं उद्धव श्रीकृष्ण के पैर दबा रहें थे। अपने नाती को अस्वस्थ देख महाराज उग्रसेन के बूढ़े चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच गईं । मथुरा का भविष्य मुर्छित पड़ा था। जिसने पलभर में शक्तिशाली कंस का वध कर दिया था औऱ मथुरावासी को कंस के अत्याचारो से मुक्त कर दिया था वहीं आज प्रेम के बंधन में बंधकर प्रेम में कमजोर हो गया।
शेष अगलें भाग में....