Meet - 2 in Hindi Love Stories by Vaidehi Vaishnav books and stories PDF | मीत (भाग-२)

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मीत (भाग-२)

मन कभी-कभी थोड़ा ठहरना चाहता है, खोजता है ज़रा सा सुकून और अपने हिस्से का शांत कोना।

मीत की यादें जो बिन बुलाए मेहमान की तरह वक़्त - बेवक्त चली आती थीं - छीन रहीं थीं मेरे मन का सुकून।

मैंने फ़िर एक गहरी साँस छोड़ी और धीमे से बुदबुदाई – “मीत, आई मिस यू!”

“मिस यू टू प्रिया !” ख़ामोशी ने हूबहू मीत की आवाज़ में ज़वाब दिया, उदासियों में उम्मीद के मोती पिरोती आवाज़! मन किया मीत को फ़ोन करूँ औऱ पूछ लूँ वो सारे सवाल जो मेरे भीतर किसी ज्वाला से धधक रहें हैं , जो हर लम्हा मुझें कचोट रहें हैं। मैंने घड़ी पर नजरें डाली। रात के 11 बज रहें थें। मन था कि मीत से आगे ही नहीं बढ़ रहा था औऱ दिमाग था कि मुझें मीत की औऱ बढ़ते अपने कदमों पर लगाम लगाने को कहता। मन औऱ दिमाग के जंजाल से मैं बाहर निकल आई लेकिन अब भी मीत का चेहरा मेरी आँखों के सामने था। शांत , सागर सा गम्भीर चेहरा उस पर सितारों सी चमकती आँखे , जिनमें अनगिनत सपनें थें। उफ्फ ! कितना सुकून था उसके खयाल भर में।

तेज़ रफ़्तार से हॉर्न बजाती गाड़ी की आवाज़ ने मुझे ख़यालों से बाहर लाकर खड़ा कर दिया, बहुत बाहर! इस असल दुनिया में ।

एक मुस्कुराहट तले मन दबाकर मैं बॉलकनी में आ गई । फिर बॉलकनी से देखती रही रौशनियों के आलिंगन में शर्माते शहर को, सरपट दौड़ती सड़कों को, धुंधलके के पार टिमटिमाने की कोशिश करते तारों को। पर मन अतीत के निशान कुरेद रहा था।

अतीत ! जिसके जख्म आज दर्द दे रहें थें। वो शाम का समय था जब मैं औऱ मीत ऑफिस से छूटकर मेरे पसंदीदा चटकारा चाट भंडार पर पहुँचे। मीत को बाहर का खाना कुछ खास पसन्द नहीं था , फिर भी मेरी पसन्द की छोले-टिकिया उसकी भी पसन्द बन गई थीं। हम अक्सर यहाँ आया करते थे। मेरे मन की सभी उलझनें भी इसी जगह से शुरू हुई थीं। मैं छोले-टिकिया के स्वाद में खोई हुई मगन हुए खाए जा रहीं औऱ मीत मुझें एकटक देख रहा था..मैंने आँखों के इशारे से उससे सवाल किया - क्या हुआ ? वो बोला - " कितना अच्छा होता न कि तुम भी मेरे साथ रहतीं "

उसकी इस बात पर मैं बस मुस्कुरा दी थीं। मीत मुझें मेरे फ़्लैट तक छोड़ने आया। ये उसका रोज़ का काम था। वह बोला तुमनें मेरी बात का जवाब नहीं दिया...? मैंने हँसकर कहा - किस बात का जवाब..? वो बोला - यहीं की तुम मेरे साथ रहो, तुम शिफ़्ट क्यों नहीं कर लेतीं ?

साथ...? हम साथ ही तो हैं न मीत.. मैंने अचकचाकर कहा। मुझें लगा वो मेरी बात को समझ जायेगा..

मीत ने कहा - " नहीं ऐसा साथ नहीं " वह मेरे क़रीब आया औऱ मुझें अपनी बाहों में भरकर बोला ऐसा साथ। रहोगीं न हमेशा मेरे पास,, मेरे साथ...?

पहली बार मुझें मीत पर इतना गुस्सा आया था। उसका यूँ मेरे इतने करीब आ जाना मुझें सहन नहीं हुआ। उसे ख़ुद से दूर धकेलते हुए मैं कार से बाहर आ गई औऱ दौड़कर अपने कमरें में आ गई।
नहीं जानती थी मैं, सही ग़लत की तराजू के पलड़े किस तरह तय होते हैं। किसे सब खुले मन से अपना लेते हैं और किसे हाशिये पर धकेल देते हैं।
लिव इन में रहक़र ही अपने प्रेम को प्रमाणित करना हैं तो नहीं हैं मुझें मीत से प्रेम..


शेष अगलें भाग में.....