गीत-गोविंद के प्रणेता प्रसिद्ध भक्त कवि जयदेव का जन्म पाँच सौ वर्ष पूर्व बंगाल के वीरभूमि जिले के अन्तर्गत केन्दुबिल्व नामक गांव मे हुआ था । इनके पिता का नाम भोजदेव और माता का नाम राधादेवी था। ये भोजदेव कान्यकुब्ज से बंगाल मे आये हुए पंच-ब्राह्मणो मे भरद्वाजगोत्रज श्रीहर्ष के वंशज थे। जब जयदेव बहुत छोटे थे तभी इनके माता पिता का देहांत हो गया था। ये भगवान् का भजन करते हुए किसी प्रकार अपना जीवन निर्वाह करते थे। पूर्व-संस्कार बहुत अच्छे होने के कारण इन्होने कष्ट मे रहकर भी बहुत अच्छा विद्याभ्यास कर लिया था और सरल प्रेम के प्रभाव से भगवान् श्रीकृष्ण की परम कृपा के अधिकारी हो गये थे।
पिता का देहान्त हो जाने के बाद इनके हृदय में राधाकृष्ण की प्रगाढ भक्ति का उदय शीघ्रता से होने लगा। केन्दुबिल्व गांव के निवासी निरन्जन नामक ब्राह्मण से उनके पिता ने ऋण लिया था जिसकी भरपायी वे न कर सके थे। एक दिन ब्राह्मण ने जयदेव जी से ऋण माँगा, जयदेव ने उसकी रुचि के अनुकूल ऋणपत्र पर हस्ताक्षर कर दिया, कहा कि मैं तो केवल राधाकृष्ण को जानता हूँ, वे ही मेरे सर्वस्व है, शेष धन तथा घर से अपना ऋण पूरा कर लो। ब्राह्मण निरंजन उनकी भक्ति से लाभ उठाकर मन-ही-मन प्रसन्न हो रहा था कि उसकी छोटी कन्या ने घर में आग लग जाने की सूचना दी। निरंजन को अपने घर की ओर दौड़ते देखकर राग-द्वेष से रहित निष्कपट जयदेव भी चल पड़े। जयदेव ने निरञ्जन के घर में प्रवेश किया ही था कि क्षणमात्र में आग ठंडी हो गयी, घर जलने से बच - गया, सारे सामान सुरक्षित थे। जयदेव के इस असाधारण और अद्भुत चमत्कार से निरंजन के मन में बड़ी आत्मग्लानि हुई, उसने बनावटी ऋणपत्र फाड़ डाला और जयदेव के चरणो में गिर कर क्षमा माँगी, अपने पाप का प्रायश्चित किया।
भगवान् की अपने ऊपर इतनी कृपा देखकर जयदेव का हृदय द्रवित हो गया। उन्होने घर द्वार छोड़कर पुरुषोत्तम-क्षेत्र-पुरी जाने का विचार किया और अपने गाँव के पराशर नामक ब्राह्मण को साथ लेकर वे पुरी की ओर चल पड़े भगवान् का भजन-कीर्तन करते, मग्न हुए जयदेव जी चलने लगे । एक दिन मार्ग मे जयदेवजी को बहुत दूर तक कही जल नही मिला। करुणासागर हरि ने स्वयं बालक के रूप में पधार कर जयदेव और उनके साथी को जल पिलाया।
जयदेवजी प्रेम मे डूबे हुए सदा श्रीकृष्ण का नाम-गान करते रहते थे । एक दिन भावावेश मे अकस्मात् उन्होने देखा मानो चारो ओर सुनील पर्वत श्रेणी है, नीचे कल कल-निदालिनी कालिन्दी बह रही है। यमुना तीरपर कदम्ब के नीचे खड़े हुए भगवान् श्री कृष्ण मुरली हाथ मे लिये मुसकुरा रहे हैं। उन्होने अपने प्रसिद्ध काव्य गीत-गोविन्द की रचना का चित्र नयनो में उतार लिया, भगवान ने इस प्रकार उनको गीत-गोविन्द की भूमिका दी गीत-गोविन्द का समारम्भ जयदेव ने इसी मानस -चित्र की दिव्यता के आधार पर किया।
पुरुषोत्तम क्षेत्र में पहुँच कर उन्होने जगन्नाथ का दर्शन किया। वे पुरुषोत्तम क्षेत्र– पुरी मे एक विरक्त सन्यासी की भाँति रहने लगे। उनका कोई नियत स्थान नही था । प्रायः वृक्ष के नीचे ही वे रहा करते और भिक्षा द्वारा क्षुधा निवृत्ति करते दिन-रात प्रभु का ध्यान, चिन्तन और गुणगान करना ही उनके जीवन का एकमात्र कार्य था। कहां जाता है पूरी यात्रा के समय उन्हें भगवान् विष्णु के दस अवतारों का दर्शन भी हुआ और उन्होंने 'जय जगदीश हरे' की टेर लगाकर दसों अवतारों की क्रमशः स्तुति गाई।
उनके वैराग्य और भगवद्भक्ति की प्रसिद्धि पुरी में अनवरत बड़ने लगी। बड़े-बडे रसिक महात्मा और सन्त जन उनके सरस सत्संग और कीर्तन से अपने आपको धन्य मानने लगे ।
विवाह की इच्छा न होने पर भी सुदेव नाम के एक ब्राह्मण ने भगवान् की आज्ञा से अपनी पुत्री पद्मावती जयदेव जी को अर्पित कर दी। जयदेव जी को भगवान् का आदेश मानकर पद्मावती के साथ विवाह करना पड़ा। कुछ दिनो बाद गृहस्थ बने हुए जयदेव पतिव्रता पद्मावती को साथ लेकर अपने गॉव केन्दु बिल्व लौट आये और भगवान् श्रीराधा-माधव की युगल श्रीमूर्ति प्रतिष्ठित करके दोनो उनकी सेवा मे प्रवृत्त हो गये ।
जयदेव ने अपने एक अत्यन्त श्रद्धालु शिष्य के आग्रह पर उसके गाँव की यात्रा की । शिष्य अत्यन्त समृद्ध और उदार था। उसने सन्त जयदेव की बड़ी आवभगत की। वह जानता था कि विदा के अवसर पर चलते समय जयदेव धन स्वीकार नहीं करेगे क्योंकि उनके परम धन तो भगवान नन्दनन्दन है। उसने आग्रह किया कि वे अपनी पत्नी की सेवा के लिये कुछ स्वीकार कर ले । सन्त जयदेव ने शिष्य की बात मान ली। गाड़ी पर बहुत सा धन रख दिया गया, जयदेव जी आनन्द-मग्न होकर कीर्तन करते और राधाकृष्ण की निराली झाकी का स्मरण करते चले जा रहे थे। शिष्य ने उनके साथ दो रक्षक भेजे थे, वे घर लौट गये। जयदेव सहसा एक सघन और भीषण वन मे पहुँच गये। चोरो ने उनका पीछा किया, उन्होने धन लूट लिया, और जयदेव के हाथ-पैर काट कर एक कुएं में डाल दिया।
भगवत् कृपा से कुए मे जल बिल्कुल नहीं था इसलिए वे डूबे नही। जयदेव जी ने सोचा कि हो-न-हो यह मेरे धन ग्रहण करने का ही परिणाम है! भक्त जयदेव इस घटना को भगवान का परम मंगलमय विधान समझकर भगवन्नाम-कीर्तन से वनप्रान्त को पवित्र करने लगे।
कुछ देर बाद उधर से गौड़ेश्वर राजा लक्ष्मणसेन की सवारी निकली। कुऍ मे से आदमी की आवाज आती सुनकर राजा ने सेवक को देखने की आज्ञा दी। एक सेवक ने जाकर देखा तो मालूम हुआ, कोई मनुष्य सूखे कुएं में बैठा श्रीकृष्ण-नाम-कीर्तन कर रहा है। राजा की आज्ञा से उसी क्षण जयदेव बाहर निकाले गये और इलाज कराने के लिये उन्हें साथ लेकर राजा अपनी राजधानी गौड़ को लौट आये। श्रीजयदेवजी की विद्वत्ता और उनके श्री कृष्ण प्रेम का परिचय प्राप्त कर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई और उनके लोकोत्तर गुणो को देख वह उनका भक्त बन गया । राजा ने हाथ-पैर काटने वालो का नाम पता और हुलिया पूछा। जयदेव जी नाम-पता तो जानते ही नहीं थे, हुलिया भी उन्होंने इसलिये नहीं बताया कि कहीं राजकर्मचारी उनका पता लगाकर उन्हे तंग न करे।
चिकित्सा होने से जयदेव जी के घाव सूख गये। राजा ने उन्हें अपनी पंचरत्न सभा का प्रधान बना दिया और सर्वाध्यक्षता का सारा भार उन्हे सौप दिया। इसके कुछ दिनों बाद इनकी पत्नी पद्मावती भी श्रीराधा-माधवी युगल मूर्ति को लेकर पतिके पास चली आयी राजा हर तरह से धनादि देकर जयदेव जी का सम्मान करना चाहते, परंतु धन-मान के विरागी भक्त जयदेव मामूली खर्च के सिवा कुछ भी नहीं लेते थे। एक दिन राजमहल मे कोई महोत्सव था। उसमे भोजन करने के लिये हजारो दरिद्र, भिक्षुक, अतिथि, ब्राह्मण, साधु आदि आये थे। उन्ही में साधुवेषधारी वे चारो डाकू भी थे जिन्होने जयदेव जी को धन के लोभ से उनके हाथ-पैर काटकर कुऐ मे फेक दिया था।
डाकुओं को क्या पता था कि हमने जिसे मरा समझ लिया था, वही यहाँ सर्वाध्यक्ष है। डाकुओ ने दूर से ही जयदेव जी को देखा और लूले-लंगड़े देखकर उन्हें तुरंत पहचान लिया। वे डरकर भागने का मौका देखने लगे। इतने मे ही जयदेवजी की दृष्टि उन पर पड़ी। देखते ही वे वैसे ही आनन्द मे भर गये, जैसे बहुत दिनों के बिछुडे बन्धुओ को देखकर बन्धु को आनन्द होता है। जयदेवजी ने मन मे सोचा, 'इन्हें धन की आवश्यकता होगी। राजा मुझसे सदा धन लेने को कहा करते हैं, आज इन्हें कुछ धन दिलवा दिया जायगा तो बड़ा सन्तोष होगा।' जयदेव जी ने राजा से कहा- 'मेरे कुछ पुराने मित्र आये है आप चाहे तो इन्हे कुछ धन दे सकते है।' कहने भर की देर थी। राजा ने तुरंत उन्हें अपने पास बुलाया और उनकी इच्छा के अनुसार बहुत-सा धन-धान्य देकर आदरपूर्वक अलंकारों से सम्मानित करके प्रेमपूर्वक उनको विदा कर दिया। जयदेव ने उनकी रक्षा के लिये चार कर्मचारी भी साथ कर दिये। रास्ते में उन कर्मचारियो ने उन साधुवेष वाले ठगो से जयदेव के सम्बन्ध में बात की और यह जानना चाहा कि जयदेवजी ने उनके प्रति इतना आदर क्यों दिखाया। सन्त तो दूसरे के उपकार में रातदिन दत्तचित्त रहते है पर दुष्ट अपनी दुष्टता का ही परिचय देते है। ठगो ने कहा कि जयदेव कुछ दिन पहले एक राजा के मन्त्री थे। राजा ने जयदेव के एक बड़े अपराध से चिढ़ कर प्राण-दण्ड दिया पर हम लोगो ने केवल हाथ-पैर काट कर कुएं में डाल दिया, इस तरह उनके प्राण बच गये, जयदेव हमारे आभारी है इसलिये उन्होने विदा के समय हम दोनों को पुष्कल धनराशि दी। ठगों ने इतना कहा ही था कि पृथ्वी फट गयी और वे उसमें समा गये। कर्मचारियों ने महाराजा लक्ष्मणसेन को जब इस घटना का विवरण दिया तो जयदेव ने सही-सही बात बता दी। उन्होने निष्कपट होकर कहा कि मैं कितना अपराधी हूं कि मेरे कारण उन बेचारो के प्राण चले गये, उन्होने पश्चाताप किया कि अपने समद्ध शिष्य का थोडा-सा धन स्वीकार करने का इतना बडा दुष्परिणाम हुआ। राजा लक्ष्मणसेन जयदेव के दयापूर्ण चरित्र से अमित प्रभावित हुए, जयदेव ने उनसे कहा कि इस माया मोह पूर्ण संसार में केवल कृष्ण प्रेम ही सारतत्व है, वे निस्सन्देह परम अभागे है जो अखिल सौन्दर्य-सार-सर्वस्व वृन्दावनचन्द्र श्रीकृष्ण से प्रेम नही करते है।
जयदेव के हाथ-पैर ठीक हो गये तथा भगवत्सेवा ही उनके जीवन की अक्षय निधि हो गयी।
जयदेव ने राजा लक्ष्मण सेन के विशेष आग्रह पर अपनी पत्नी पद्मावती को राजधानी में ही बुला लिया था। उनकी पत्नी साध्वी, सती और सुशीला थी । भगवान् के प्रति उसका प्रेम भी असीम था। पातिव्रत धर्म का महत्व वह अच्छी तरह जानती थी। जयदेवजी राजपूज्य थे। इससे रानी, राजमाता आदि राजमहल की महिलाएँ भी उनके यहां पद्मावती जी के पास आकर सत्संग का लाभ उठाया करती थीं। रानी बहुत ही सुशीला, साध्वी धर्मपरायणा और पतिव्रता थी । परंतु उसके मन में कुछ अभिमान था, इससे किसी-किसी समय वह कुछ दुस्साहस कर बैठती थी। एक दिन पद्मावती जी के साथ भी वे ऐसा ही दुस्साहसपूर्ण कार्य पर बैठी।
सत्संग हो रहा था। बातों ही बातों में पद्मावती ने सती-धर्म की महिमा बतलाते हुए कहा कि जो स्त्री स्वामी के मर जाने पर उसके साथ जलकर सती होती है वह तो नीची श्रेणी ही सती है। उच्च श्रेणी की सती तो पति के मरण का समाचार सुनते ही प्राण त्याग देती है।' रानी को यह बात नहीं जंची । उसने समझा, पद्मावती अपने सतीत्व का गौरव बढाने के लिये ऐसा कह रही है। मन मे ईर्ष्या जाग उठी, रानी परीक्षा करने का निश्चय करके बिना ही कुछ कहे महल को लौट गयी। एक समय राजा के साथ जयदेव जी कही बाहर गये थे। रानी सुअवसर समझ कर दन्भ से विषादयुक्त चेहरा बनाकर पद्मावती के पास गई और कपट-रूदन करते-करते कहा कि पण्डित जी को वन में सिंह खा गया। उसका इतना कहना था कि पद्मावती 'श्रीकृष्ण-कृष्ण कहकर धडाम से पृथ्वी पर गिर पड़ी। रानी ने चौककर देखा तो पद्मावती अचेतन मालूम हुई— परीक्षा करने पर पता लगा कि पद्मावती के प्राणपखेरु शरीर से उड़ गए है। रानी के होश उड़ गए। उसे अपने दुःसाहसपूर्ण कुकृत्य पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वह सोचने लगी, 'अब में महाराज को कैसे मुंह दिखाऊँगी। जब पतिदेव अपने पूज्य गुरु जयदेवजी की धर्मशीला पत्नी की मृत्यु का कारण मुझको समझगै तब उन्हें कितना कष्ट होगा| जयदेवजी को भी कितना सन्ताप होगा! हां दुर्देव! इतने में ही जयदेव जी आ पहुँचे। राजा के पास भी मृत्यु-संवाद जा पहुँचा था, वह भी वहीं आ गया। राजा के दुःख का पार नहीं रहा। रानी तो जीते ही मरे के समान हो गयी। जयदेवजी ने रानी की सखियों से सारा हाल जानकर कहा 'रानी मां को कह दो घबराएँ नहीं। मेरी मृत्यु के संवाद से पद्मावती के प्राण निकल गये तो अब मेरे जीवित यहां आ जाने पर उन प्राणों को वापस आना भी पड़ेगा।' जयदेवजी ने मन ही मन भगवान् से प्रार्थना की। कीर्तन आरम्भ हो गया। जयदेवजी मस्त होकर गाने लगे। धीरे-धीरे पद्मावती के शरीर में प्राणों का संचार हो आया। देखते-ही-देखते वह उठ बैठी। रानी आनन्द की अधिकता से रो पड़ी। उसने संकटभंजन श्रीकृष्ण को धन्यवाद दिया और भविष्य मे कभी ऐसा दुःसाहस न करने की प्रतिज्ञा करी। सब ओर आनन्द छा गया। जयदेवजी की भक्ति और पद्मावतीजी के पातिव्रत का सुयश चारों ओर फैल गया।
कुछ समय गौड़ मे रहने के बाद पद्मावती और श्रीराधा- माधव विग्रह को लेकर राजा की अनुमति से जयदेव जी अपने गॉव को लौट आये। यहाँ उनका जीवन श्रीकृष्ण के प्रेम में एकदम डूब गया। उसी प्रेम रस मे डूबकर इन्होंने मधुर गीत-गोविन्द की रचना की।
एक दिन श्रीजयदेव जी 'गीत-गोविन्द' की एक कविता लिख रहे थे, परंतु वह पूरी ही नहीं हो पाती थी। पद्मावती ने कहा "देव! स्नान का समय हो गया है, अब लिखना बंद करके आप स्नान कर आयें तो ठीक हो।" जयदेव जी ने कहा– पद्मा जाता हूँ। क्या करू। मैने एक गीत लिखा है, परंतु उसका शेष चरण ठीक नहीं बैठता। तुम भी सुनो–
स्थलकमलगंजनं मम हृदयरंजनं
जनितरतिरंगपरभागम्।
भण मसृणवाणि करवाणि चरणद्वयं
सरसलसदलक्तकरागम्।।
स्मरगरलखण्डनं मम शिरसि मण्डनम् —
'इसके बाद क्या लिखूँ, कुछ निश्चय नहीं कर पाता!' पद्मावती ने कहा "इसमें घबराने की कौन-सी बात है! गंगा-स्नान से लौटकर शेष चरण लिख लीजियेगा।"
‘अच्छा, यही सही। ग्रन्थ को और कलम-दवात को उठाकर रख दो, मैं स्नान करके आता हूँ।'
जयदेव जी इतना कहकर स्नान करने चले गये। कुछ ही मिनटों बाद जयदेव का वेष धारण कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण पधारे और बोले- "पद्मा! जरा ‘गीत-गोविन्द‘ देना।"
पद्मावती ने विस्मित होकर पूछा, ‘आप स्नान करने गये थे न? बीच से ही कैसे लौट आये?’
महामायावी श्रीकृष्ण ने कहा "रास्ते में ही अन्तिम चरण याद आ गया, इसी से लौट आया।" पद्मावती ने ग्रन्थ और कलम-दवात ला दिये। जयदेव-वेषधारी भगवान ने—
"देहि मे पदपल्लवमुदारम्"
लिखकर कविता की पूर्ति कर दी। तदनन्तर पद्मावती से जल मँगाकर स्नान किया और पूजादि से निवृत्त होकर भगवान को निवेदन किया हुआ पद्मावती के हाथ से बना भोजन पाकर पलँग पर लेट गये।
पद्मावती पत्तल में बचा हुआ प्रसाद पाने लगी। इतने में ही स्नान करके जयदेव जी लौट आये। पति को इस प्रकार आते देखकर पद्मावती सहम गयी और जयदेव भी पत्नी को भोजन करते देखकर विस्मित हो गये। जयदेव जी ने बोले "यह क्या? पद्मा, आज तुम श्रीमाधव को भोग लगाकर मुझको भोजन कराये बिना ही कैसे जीम रही हो? तुम्हारा ऐसा आचरण तो मैंने कभी नहीं देखा।"
पद्मावतीजी ने कहा "आप यह क्या कह रहे हैं? आप कविता का शेष चरण लिखने के लिये रास्ते से ही लौट आये थे, कविता की पूर्ति करने के बाद आप अभी-अभी तो स्नान-पूजन-भोजन करके लेटे थे। इतनी देर में मैं आपको नहाये हुए-से आते कैसे देख रही हूँ!" जयदेव जी ने जाकर देखा, पलँग पर कोई नहीं लेटा था। वे समझ गये कि आज अवश्य ही भक्त वत्सल की कृपा हुई है। फिर कहा "अच्छा, पद्मा ! लाओ तो देखें, कविता की पूर्ति कैसे हुई है।"
पद्मावती ग्रन्थ ले आयी। जयदेव जी ने देखकर मन-ही-मन कहा "यही तो मेरे मन में था, पर मैं संकोचवश लिख नहीं रहा था।" फिर वे दोनों हाथ उठाकर रोते-रोते पुकारकर कहने लगे 'हे कृष्ण! नन्दनन्दन, हे राधावल्लभ, हे व्रजांगमाधव, हे गोकुलरत्न, करुणासिन्धु, हे गोपाल! हे प्राणप्रिय! आज किस अपराध से इस किंकर को त्यागकर आपने केवल पद्मा का मनोरथ पूर्ण किया!' इतना कहकर जयदेव जी पद्मावती की पत्तल से श्रीहरि का प्रसाद उठाकर खाने लगे। पद्मावती ने कितनी ही बार रोककर कहा "नाथ! आप मेरा उच्छिष्ट क्यों खा रहे हैं?" परंतु प्रभु-प्रसाद के लोभी भक्त जयदेव ने उसकी एक भी नहीं सुनी।
इस घटना के बाद उन्होंने ‘गीत-गोविन्द’ को शीघ्र ही समाप्त कर दिया। तदनन्तर वे उसी को गाते मस्त हुए घूमा करते। वे गाते-गाते जहाँ कहीं जाते, वहीं भक्त का कोमलकान्त गीत सुनने के लिये श्रीनन्दनन्दन छिपे हुए उनके पीछे-पीछे रहते। धन्य प्रभु!
केन्दुबिल्व-निवास काल में उनके जीवन में बड़े-बड़े चमत्कारो का दर्शन हुआ। एक दिन वे छप्पर छा रहे थे, कड़ाके की धूप पड़ रही थी। पद्मावती फूस पकड़ा रही थी, फिर अधिक समय हुआ जानकर वह रसोई बनाने चली गई। धूप में जयदेव को अकेले कार्य करते देख कर राधामाधव को दया आ गई। राधामाधव ने फूस और खर उठा-उठा कर देना आरम्भ कर दिया। जयदेव तो भगवद्भक्ति में मग्न थे, वे बाह्य ज्ञान से शून्य होकर छप्पर छाने में लगे हुए थे, उन्होने समझा कि इस काम में उनकी पत्नी सहायता कर रही हैं। काम समाप्त होने पर जब वे राधामाधव के श्रीविग्रह की सेवा करने गये तो सारा शरीर रोमान्चित हो उठा, वे प्रभु की ओर एकटक निहारने लगे, प्रभु ने उनके लिये श्रम किया था, हाथ में कालिख लगी थी, जयदेव के नयनो से अश्रु की धारा प्रवाहित हो उठी, भगवान को उनके लिये कष्ट करना पड़ा, उनका भक्तहृदय मार्मिक वेदना से घायल हो गया, वे दयामय कृष्ण के नाम का कीर्तन करने लगे।
जयदेव भगवती गंगा के भी बड़े भक्त थे। गंगा उनके गाँव से दूर थी। वे नित्यप्रति पैदल चलकर स्नान करने जाया करते थे। जब जयदेव जी का शरीर अत्यन्त वृद्ध हो गया, तब भी ये अपने गंगा स्नान के नित्य नियम को कभी नहीं छोड़ते थे । इनके प्रेम को देखकर इन्हें सुख देने के लिये रात को स्वप्न में मां गंगा ने कहा "अब तुम स्नानार्थ इतनी दूर मत आया करो, केवल ध्यान में ही स्नान कर लिया करो।"
श्री जयदेव जी को धारा में न जाने पर अच्छा नहीं लगता था। अतः इस आज्ञा को स्वीकार नहीं किया । तब मां गंगा ने स्वप्न में कहा "धारा में जाकर स्नान करने का हठ मत करो। मैं ही तुम्हारे आश्रम के निकट सरोवर में आ जाऊँगी।" तब जयदेव ने कहा "मैं कैसे विश्वास करुंगा कि आप आ गयी हैं।" मां गंगा ने कहा "जब आश्रम के समीप जलाशय में कमल खिले दिखे, तब विश्वास करना कि मैं (माता गंगा) आ गयी हूं।
ऐसा ही हुआ, खिले हुए कमलो को देखकर श्री जयदेव जी ने वहीं स्नान करना आरम्भ कर दिया।
भक्ति जगत के लिये 'गीत-गोविन्द' जयदेव जी की बहुत बड़ी देन है। वह नितान्त अपार्थिव तथा दिव्य पदार्थ है
एक बार एक मालिन की कन्या वाटिका में बैंगन तोड़ती हुई पाँचवें सर्ग की एक अष्टपदी “धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनवारी” आदि गाती हुई बैंगनों के लिये इधर-उधर फिर रही थी और जगन्नाथ देव भी गीत सुनते उसके पीछे-पीछे फिर रहे थे। परिणाम स्वरूप उनका महीन जामा काँटों में लग कर कई स्थानों से फट गया और उनके श्रीमुख पर धूलि के कण भी पड़ गए। पुरी के राजा जब उनके दर्शनार्थ मंदिर गये तो उन्होंने भगवान् का फटा हुआ जामा, उसमें लगे काँटे और मुख पर धूलि के कण देखकर इसका कारण पूछा। भगवान् ने अशरीरी वाणी से सब वृत्तान्त बता दिया। तब से जगन्नाथ जी के मन्दिर में नित्य गीत-गोविन्द का पाठ होता रहता है।
उक्त घटना से गीत-गोविन्द के गायन को अति गम्भीर रहस्य जानकर पुरी के राजा ने सर्वत्र यह ढिंढोरा पिटवा दिया कि कोई राजा हो या निर्धन प्रजा, सभी को उचित है कि गीत-गोविन्द का मधुर स्वरों से गान करे। उस समय ऐसी भावना रखे कि प्रियाप्रियतम श्री राधा-श्यामसुन्दर समीप विराजकर श्रवण कर रहे हैं ।
गीत-गोविन्द के महत्व को मुलतान के एक मुगल सरदार ने एक ब्राह्मण से सुना। उसने घोषित रीति के अनुसार गान करने का निश्चय करके अष्टपदियों को कंठस्थ कर लिया। जब वह घोड़े पर चढकर चलता था तो उस समय घोड़े पर आगे भगवान् विराजे हैं। ऐसा ध्यान कर लेता था, फिर गान करता था । एक दिन उसने घोड़े पर प्रभु को आसन नहीं दिया और गान करने लगा, फिर क्या? मार्ग में घोड़े के आगे आगे उसकी ओर मुख किये हुए श्यामसुन्दर पीछे को चलते हैं और गान सुन रहे हैं । घोड़े से उतरकर उसने प्रभु के चरणस्पर्श किये तथा नौकरी छोड़कर विरक्त वेश धारण कर लिया।
अतः आगे जो भी गीत-गोविन्द का गान् करना चाहे वे लोग भगवान् को पहले आसान निवेदन करे। ऐसी घोषणा राज्य में कर दी गई। गीत-गोविन्द का अनन्त प्रताप है, उसकी महिमा का वर्णन कौन कर सकता है, जिस पर रीझकर स्वयं भगवान ने उसमें अपने हाथ से पद लिखा है।
अंत काल में श्रीजयदेव जी अपनी पतिपरायणा पत्नी पद्मावती और भक्त पराशर, निरंजन आदि को साथ लेकर वृन्दावन चले गये और वहां भगवान् श्रीकृष्ण की मधुर लीला देख-देखकर आनंदित होते रहे। कहते हैं कि वृंदावन में ही दम्पती देह त्यागकर नित्यनिकेतन गोलोक पधार गये।
किसी-किसीका कहना है कि जयदेवजी ने अपने गांव में शरीर छोड़ा था और उनके घर के पास ही उनका समाधि-मन्दिर बनाया गया।
उनके स्मरणार्थ प्रतिवर्ष माघ की संक्रांति पर केन्दुबिल्व गांव में अब भी मेला लगता है, जिसमें प्रायः लाख से अधिक नर-नारी एकत्र होते हैं।
जयदेवकृतं गीतगोविन्दं (अष्टपदी)— पञ्चम सर्ग
|| गीतम ११ ||रतिसुखसारे गतमभिसारे मदनमनोहरवेशम्।
न कुरु नितम्बिनि गमनविलम्बनमनुसर तं हृदयेशम् ॥१॥
धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली गोपीपीनपयोधरमर्दनचञ्चलकरयुगशाली ॥ ध्रुवपदम् ॥
नाम समेतं कृतसंकेतं वादयते मृदुवेणुम्।
बहु मनुते ननु ते तनुसंगतपवनचलितमपि रेणुम् ॥ २ ॥ धीरसमीरे..
पतति पतत्रे विचलति पत्रे शङ्गितभवदुपयानम्।
रचयति शयनं सचकितनयनं पश्यति तव पन्थानम् ॥३॥ धीरसमीरे..
मुखरमधीरं त्यज मञ्जीरं रिपुमिव केलिसुलोलम्।
चल सखि कुञ्जं सतिमिरपुञ्जं शीलय नीलनिचोलम् ॥ ४ ॥ धीरसमीरे..
उरसि मुरारेरुपहितहारे घन इव तरलबलाके।
तडिदिव पीते रतिविपरीते राजसि सुकृतविपाके ॥ ५ ॥ धीरसमीरे..
विगलितवसनं परिहृतरसनं घटय जघनमपिधानम्। किसलयशयने पङ्गजनयने निधिमिव हर्षनिदानम् ॥ ६ ॥ धीरसमीरे..
हरिरभिमानी रजनिरिदानीमियमपि याति विरामम् । कुरु मम वचनं सत्वररचनं पूरय मधुरिपुकामम् ॥ ७ ॥ धीरसमीरे..
श्रीजयदेव कृतहरिसेवे भणति परमरमणीयम् । प्रमुदितहृदयं हरिमतिसदयं नमत सुकृतकमनीयम् ॥ ८ ॥ धीरसमीरे..
||जय श्रीराम||🙏🏻