संसार के सब पदार्थ मुख्य रूप से दो श्रेणियों में बांटे गए है। एक तो वे जो सदा बने रहते हैं। वे नष्ट नही होते। वे तीन हैं। वे हैं― परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति साम्यावस्था में। ये तीनो अव्यक्त कहाते हैं। अव्यक्त का अभिप्राय है जिनका रूप, रंग, इत्यादि नहीं होता। ये मनुष्य की इन्द्रियों की पहुँच से परे हैं। इन्द्रियों की पहुँच यंत्रो की सहायता से बहुत दूर तक जा सकती हैं। दूरबीन (टेलिस्कोप) बहुत दूर तक दृष्टि को पहुंचा देती हैं। इसकी सहायता से करोड़ो, पद्मों मील की दूरी की वस्तु भी देखी जा सकती है।
इस प्रकार क्षुद्रबीन (माइक्रोस्कोप) अतिसूक्ष्म वस्तु को देखने मे सहायक होती है। बढ़िया माइक्रोस्कोप से किसी वस्तु को लाखों गुणा बड़ा कर दिखाया जा सकता है।
परन्तु कहा जाता है कि ये तीनों पदार्थ (परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति) इन यंत्रों की पहुँच से भी परे हैं। इस कारण ये इन्द्रियों की पहुँच से भी बहुत परे हैं।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि जब ये पहुँच से ही परे हैं तो फिर इनकी उपस्थिति कैसे मानी जाए ? यही कारण है कि वर्तमान विज्ञान इनको नहीं मानता।
परन्तु यह तो बुद्धि को स्वीकार नही कि शून्य से यह दृश्य जगत् बन गया। 'कुछ नही' से कुछ, बन नही सकता। मूल में कुछ होना मानना पड़ता है। अन्यथा जगत् के विभिन्न पदार्थो का बनना बुद्धिगम्य नहीं।
अतः 'कुछ' है, जिससे इस जगत् के पदार्थ बने हैं। भारतीय विज्ञान में ऐसे पदार्थो का ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक ढंग निकाला गया है। इसको अनुमान प्रमाण कहा जाता है।
सांख्य का सिद्धांत है :―
"
नावस्तुनो वस्तुसिद्धि:।।"
अर्थात्― "अवस्तु (शून्य) से कुछ नही बनता।"
यह शुद्ध बुद्धि से विचारित तथ्य है। किसी पीर-पैगम्बर अथवा इलहामी किताब में वर्णन से मानने के लिए नहीं कहा जा रहा। इसके साथ ही सांख्य की यह भी मान्यता है :―
"मूले मूलाभावादमूलं मूलम्।।"अर्थात― "मूल में मूल का अभाव होने से मूल मूलरहित है।"
इसका अभिप्राय यह है कि अंतिम मूल पदार्थ मानना पड़ता है। यदि पदार्थ का मूल, उसका मूल और फिर उसका भी मूल ढूँढते फिरें तो एक स्थान पर सबका एक मूल मानना पड़ेगा। यह बात भी युक्ति ही से कही गई है। ऐसी युक्ति को तर्क कहते हैं।
तर्क में भी एक शर्त है। वह यह कि तर्क बिना आधार के नहीं किया जा सकता। जब तर्क आधारयुक्त हो तो इसे अनुमान-प्रमाण कहते हैं।
नैयायिक चार प्रकार का प्रमाण मानते हैं। नैयायिक का मत है कि इस कार्य-जगत् में कुछ भी प्रमाण अर्थात् तर्क-रहित नहीं है। संसार मे किसी भी वस्तु के होने की सिद्धि इन चार प्रकार के प्रमाणों से की जा सकती है। न्याय दर्शन में कहा है :―
"प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा: प्रमाणानि।।"इसका अर्थ है― "पदार्थ के होने अथवा न होने की सिद्धि निम्न चार प्रकारों से की जा सकती है १. प्रत्यक्ष २. अनुमान ३. उपमान ४. शब्द प्रमाण से।"
प्रत्यक्ष का अभिप्राय है कि, जब पदार्थ इन्द्रियों से जाना जाए, तो उसकी प्रत्यक्ष सिद्धि मानी जाती है। मनुष्य में पाँच ज्ञानेंद्रीय हैं― आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा। इनके द्वारा, अथवा इनके सहायक किसी भी यंत्र द्वारा पदार्थ के होने अथवा न होने को सिद्ध किया जा सकता है। जो प्रत्यक्ष, इन्द्रियों से जाना जा सकता है, उससे तो कोई इनकार नही कर सकता। वर्तमान युग के वैज्ञानिक भी इससे सिद्ध वस्तु को इनकार नही करते।
परन्तु इस जगत् के मूल अक्षर अतिसूक्ष्म और अव्यक्त, रूप-रंग-रहित होने से इन्द्रियों से तो अनुभव किए नही जा सकते। अतः मूल अक्षरों की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं होती।
दूसरा प्रमाण है अनुमान। हमने बताया कि अनुमान ही तर्क है। और तर्क के विषय में ब्रह्मसूत्रों ने कहा है :―
"
तर्काप्रतिष्ठानादप्यन्यथाऽनुमेयमिति चेदेवमप्यविमोक्षप्रसंग:।।"
(ब्रह्म सूत्र २-१-११)अर्थात्― "तर्क प्रतिष्ठित होना चाहिए। नही तो इससे लगाया अनुमान सिद्ध नहीं हो सकेगा।"
प्रतिष्ठित से अभिप्राय है किसी प्रत्यक्ष से सिद्ध ज्ञान पर आधारित। युक्ति किसी इन्द्रिय से सिद्ध हुई बात के आधार पर होनी चाहिए। तब ही वह प्रतिष्ठित मानी जा सकती है।
इस प्रतिष्ठित तर्क की व्याख्या सांख्य दर्शन करता है―
"प्रतिबन्धदृश: प्रतिबद्धज्ञानमनुमानम् ।।"अर्थात― "यदि दो अथवा अधिक वस्तुएँ सदा साथ-साथ देखी जाएँ तो एक की उपस्थिति से दूसरी की उपस्थिति को अनुमान से सत्य माना जा सकता है।"
अनुमान से प्रतिष्ठित बात तब है जब कि पहले वस्तुओं का संयोग कहीं देखा हो। इसका एक उदाहरण सांख्य दर्शन में ही दिया है। वहाँ कहा है :―
"अचाक्षुषाणामनुमानेन बोधो धूमादिभिरिव वह्ने: ।।"अर्थात्― "जो दिखाई न दे अथवा इन्द्रियों से पता न चले वह अनुमान प्रमाण से पता चल सकता है, जैसे धुआँ आदि देखने से अग्नि का ज्ञान होता हैं।"
धुआँ बिना अग्नि के नही देखा जाता, अतः अग्नि अदृश्य होने पर भी धुएँ के होने से उसके साथ अग्नि के होने का निश्चय हो जाता है।
वैसे तो दो प्रकार के अन्य प्रमाण भी हैं, परन्तु अक्षर और अव्यक्त पदार्थों की सिद्धि के लिए यह अनुमान प्रमाण सर्वोत्कृष्ट हैं।
अब इसी अनुमान प्रमाण से ईश्वर की सिद्धि के विषय मे तर्क इस प्रकार किया जा सकता है :―
हम अपने कमरे में कुर्सी पर बैठे हैं। जब हमारी इच्छा होती है हम कुर्सी से उठकर जहाँ चाहे जा सकते हैं, अथवा कहीं कमरे के बाहर भी जा सकते हैं। परन्तु हमारी कुर्सी कमरे से बाहर नहीं जाती―कभी नही जाती। कोई उसे उठाकर इधर-उधर हिलाए-डुलाए तो जहाँ तक वह हिलाई जाती है, वहाँ तक वह जाती है।
अर्थात प्रकृति के बने पदार्थ जब तक हिलाए-डुलाए नही जाते, अपना स्थान नहीं बदलते।
मनुष्य का शरीर भी जड़ है। जब तक मनुष्य जीवित रहता है तब तक शरीर इसमे आत्मा के बल से हिलता-डुलता है, और जब मनुष्य मर जाता है और उसमें का आत्म-तत्व निकल जाता है तब शरीर का हिलना-डुलना समाप्त हो जाता है।
अतः यह माना जाता है कि शरीर जड़ है। जब वह आत्मा के बिना होता है जड़वत, जहाँ पड़ा है वहीं पड़ा रहता है।
इसी प्रकार सूर्य-चन्द्र, तारागण इत्यादि चल रहे हैं, यद्यपि वे भी जड़ पदार्थ हैं। जैसे जीवित शरीर को चलाने वाला इसमे जीवात्मा होता है, वैसे ही सूर्य इत्यादि में भी कोई आत्म-तत्त्व रहता है जो इनको निरन्तर गति देता रहता है।
आकाश में तारे टूटते दिखाई देते हैं, और कभी उन टूटे तारों के अंश इस पृथिवी पर आ गिरते हैं। वे टुकड़े हिलते-डुलते नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि इन तारागण को भी गतिशील रखनेवाली कोई शक्ति है। वह शक्ति परमात्मा है।
इसको, अर्थात् प्रकृति को, गति देनेवाला कोई आत्म-तत्त्व है, यह ब्रह्म-सूत्र में भी कहा है :―
"व्यतिरेकानवस्थितेश्चानपेक्षत्वात् ।।"अर्थात― "प्रकृति में गति नहीं आती जब तक कोई बाहरी शक्ति उसमें आकर उसे हिलाए नहीं।"
यही बात न्यूटन की गति के सिद्धान्त में भी कही है। वहाँ कहा है―
Every particle of matter continues in a state of rest or motion with constant speed in a straight line unless compelled by outside force to change the state. (1st Law of Motion ―Neuton) इसका अर्थ है―प्रकृति का प्रत्येक कण जहाँ है वहीं ठहरा रहता है, अथवा चलता है तो सीधी रेखा में एक निश्चित गति से चलता रहता है जब तक कि कोई बाहरी शक्ति उस पर बल का प्रयोग न करे।
वह जो सूर्य, चन्द्र, पृथिवी इत्यादि नक्षत्रों को गतिशील करता है वह ही परमात्मा है। प्रत्यक्ष देखने से यह अनुमान लगाया है कि कोई बहुत बड़ी शक्ति है जो इनको लाखो वर्षो से गतिशील रखे हुए है। यहाँ तारागण इत्यादि की गति सीधी रेखा में नही है। इस कारण किसी चेतन शक्ति का निरंतर इस पर प्रभाव हो रहा है, इसका अनुमान होता है। वेद इस शक्ति को परमात्मा कहते है।
इस प्रकार अनुमान प्रमाण से परमात्मा की सिद्धि होती है। लोग इस शक्ति अर्थात् परमात्मा के गुण और कर्मों की भिन्न-भिन्न प्रकार से कल्पना करते हैं। इसका परमात्मा के होने से सम्बन्ध नही। यह तो निश्चय ही है कि इस गतिशील जगत् को गतिदेने वाली कोई महान् शक्ति है। इसका नाम भी भिन्न-भिन्न भाषाओं में भिन्न-भिन्न है यह भी विचार का विषय नहीं। यहाँ हम इसके होने को सिद्ध कर रहे हैं।
पाठकों के ज्ञान के लिए वेद में परमात्मा का कथन इस प्रकार है। वेद में कहा है―
स पय्र्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरँशुद्धमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽअर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य: ।। (यजुर्वेद ४०-८)अर्थात― ईश्वर (परमात्मा) के मुख्य गुण इस प्रकार कहे हैं। वह सर्वव्यापक, अत्यन्त बलशाली, शरीर के बिना, छिद्र-रहित, विकार-रहित, सर्वथा शुद्ध (अन-अडल्ट्रेटिड), पाप-रहित, महान्, ज्ञानवान्, मननशील, सदा उपस्थित, स्वयं ही प्रकट होने वाला, सत्य ज्ञान को देने वाला, महान् ज्ञान का स्वामी, शाश्वत ज्ञान से जगत् के पदार्थों को बनानेवाला―सब स्थान पर समान भाव से रहने वाला है।
ये परमात्मा के गुण भी अनुमान प्रमाण से सिद्ध किए जा सकते हैं।