वर्षों के बाद जब एक बार फिर से मुझे दंदियाबाड़ा कि भीषण गर्मी और कानों की कनपटियों को अपनी तमतमाती गर्म और पसीने से परेशान करती हुई लू से वास्ता करना पड़ा तो मन-मस्तिष्क के किसी कोने में चुपचाप बैठी हुई अतीत की स्मृतियों ने स्वत: ही कुरेदना आरंभ कर दिया. ध्यान आया तो आंखों के पर्दे पर बना-बनाया वह चित्र बीते हुए दिनों की कोई याद लेकर अपने आप ही फिर से उभरने लगा. वर्षों बाद मैं एक बार फिर से उसी स्थान पर आया था जहाँ पर कभी एक दिन किसी भोली-भाली ग्रामीण बाला ने मुझे गर्मी से परेशान देख कर कुएं का ठंडा पानी पिलाया था. मैं जानता था कि उस दिन की भरी गर्मी में उसका पानी पिलाना मेरे लिए एक प्रकार से अमृत समान था. पानी पीते ही मेरे सारे शरीर में एक नए जीवन की स्फूर्ति आ गई थी. पत्रकार का काम करने के कारण मुझे प्राय: ही जगह-जगह घूमना पड़ता था. यूँ भी दंदियाबाड़ा का सारा इलाका अपने सूखेपन और भीषण गर्मी के लिए मशहूर था. पिछड़ेपन और सरकार की नज़र-अंदाजी के कारण ये इलाका वैसे भी किसी विकास के लिए सदा ही मोहताज़ रहा. वर्षों पूर्व जब मैं यहां आया था तो एक विदेशी ईसाई मिशनरी के अचानक से लापता होने तथा बाद में उसका मृत शरीर एक सूनसान स्थान में पड़ा मिलने की समूची कथा लिखने का काम मुझे अपने संपादक की तरफ से दिया गया था. लोगों में ये बात प्रचलित कर दी गई थी कि उस विदेशी ईसाई मिशनरी कि हत्या मसीही विरोधी तत्वों ने कर दी थी, जब कि हत्या का कारण राहजनी और उसके पैसों की लूट थी. तब मैंने अपना ये काम समय पर पूरा करके और एक पूरी सत्यकथा लिखकर अपने संपादक को दे दी थी. इस कहानी का जब मुझे भरपूर पारिश्रमिक मिल गया और जब ये समय पर प्रकाशित हो गई थी तो समय की बनती लकीरों में मैं ये बात भूल भी चुका था. मगर आज जब मैं फिर एक बार पिछले वर्षों के समान ऐसे ही एक केस के सिलसिले में यहाँ आया तो जाहिर ही था कि भूली बिसरी घटना फिर से मस्तिष्क के किसी कोने में अपने आप ही चहलकदमी करने लगे.
सो इतने दिनों के अन्तराल के पश्चात जब मैं यहाँ आया तो बदले हुए वक्त के परिवर्तनों के तमाम चिन्ह अजीब से दिखने लगे थे. समय का पहिया कितनी तेजी से घूम कर धरती की शक्ल में ढेरों-ढेर तब्दीलियां कर सकता है, इस बात की हांमी दंदियाबाड़ा का चप्पा-चप्पा दे रहा था. सब कुछ बदल चुका था. यदि नहीं बदला था तो वास्तव में वह सब कुछ नहीं बदला था कि जिसे सरकार विकास के नाम पर अपनी सरकारी रिपोर्टों में न जाने कब से और न जाने कितनी ही बार लिख चुकी थी. एक समय था जब कि एक दिन किसी भोली-भाली ईसाई ग्रामीण लड़की ने मुझे यीशु मसीह के नाम पर यहाँ पानी पिलाया था. तब जब मैंने उस लड़की से पूछा था कि तुम ये पानी पिलाने का काम अपनी खुद की मर्जी से करती हो या फिर तुम्हें इस काम का कोई पैसा मिलता है. तब उत्तर में उस लड़की ने मुझसे कहा था कि,
‘मैं ये काम न तो अपने लिए और ना ही दूसरों के लिए करती हूँ.’
‘मेरा यीशु एक दिन भरी गर्मी में प्यास के कारण खुद एक यहूदी होकर एक सामरी स्त्री से पानी मांग रहा था. मैं उसी यीशु को पानी पिलाया करती हूँ.’
उस लड़की का उत्तर सुनकर मैं यीशु मसीह के प्रति उसकी अपार श्रध्दा और विश्वास देख कर चकित ही नहीं हुआ था बल्कि तब ये सोचे बगैर नहीं रह सका था कि सचमुच सेवाभाव की भावना किसी पर जबरन नहीं थोपी जा सकती है. ये बात तो मन में बसे हुए विश्वास की वह परम्परा है जो कि खुद व खुद अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए तरसती रहती है. इंसान अपने परमेश्वर की सेवा या फिर दूसरों की सहायता केवल अपनी मर्जी से ही कर सकता है या किसी के प्रभाव से? ये बात मुझे लड़की की आंखों में छिपी भावना ने स्पष्ट कर दी थी.
आदिवासियों के समान किसी पुराने किस्म का जंगली घास-फूस की हरी-लाल बिरंगी फूल पत्तियों से छापा गया घांघरा पहने हुए उस लडकी ने जब मुझे पानी पिलाया था तो मैं उसके गले में किसी मोटे सूत में लटकी हुई, दो छोटी पतली लकड़ियों से किसी धागे से बांधकर बनाई हुई सलीब को देख कर उसकी गरीबी का अंदाज़ा लगाये बगैर नहीं रह सका था. वह ग्रामीण बाला गरीब ही नहीं बल्कि बेहद गरीब थी. दिन में किसी मसीही स्कूल में पढ़ने जाती थी और स्कूल से वापस आकर सड़क के किनारे इस पुराने कुएं से पानी खींच कर राहगीरों को पिलाया करती थी. देखने में समझदार पर मासूम और ज़िंदगी की तमाम परेशानियों से अवगत, छोटे से कद की, बड़ी बड़ी आँखों के साथ उसके लम्बे बेफिक्रे बंधे और घुंघराले अधखुले से बालों को देखते हुए उसके गाँव के आदिवासी वातावरण में पलने और बढ़ने के बावजूद भी उसके रहन सहन में, मैं पिछड़ेपन के कोई भी चिन्ह नहीं ढूंढ सका था.फिर जब मैंने पानी पीकर उसकी गरीबी को देखते हुए अपनी जेब से पांच रुपये निकालकर दिए और कहा कि,
‘ये तुम्हारे इस भले काम का एक छोटा सा मेहनताना है, लो रख लो.’
‘?’ ये सुनकर उस लड़की की आँखों में तुरंत ही एक नाराज़गी और आश्चर्य के प्रश्न तैरने लगे. तो मैंने तुरंत ही अपना सर झुका लिया. तब उस लड़की ने कहा कि,
‘बाबू साहेब, परमेश्वर ने पानी से पतली कोई चीज़ नहीं बनाई है. ये उसी का दान है, जिसे मैं बेचा नहीं करती हूँ. मेहरबानी से अपने पैसे अपने पास रख लीजिये.’
उस लड़की की उपरोक्त बात सुनकर मुझे अपनी गलती का एहसास ही नहीं हुआ था बल्कि मेरा सिर खुद ही उस लड़की के प्रति एक अजीब ही सम्मान से झुक गया था.
‘ठीक है, मैं इन पैसों से किसी गरीब को खाना खिला दूंगा. अब तो खुश हो तुम?’
उत्तर में उस लड़की की आंखों में प्रसन्नता की चमक आ गई थी. मैं जान गया था कि मेरे प्रति उसके मन में आया हुआ क्षणिक क्रोध तुरंत ही गायब भी हो चुका था. ये देख कर मैं काफी सन्तुष्ट भी हो गया था तब.
ये सब सोचता हुआ जब मैं अचानक से आज उसी स्थान पर पहुंचा तो वहां पर एक बड़ी सी इमारत देख कर आश्चर्यचकित हो गया. उस इमारत के ऊपर एक बड़ा सा बोर्ड लगा था, ‘दंदियाबाड़ा डाओसीज़ मिशन स्कूल.’
स्कूल की उस बड़ी इमारत तथा उससे सटे हुए चर्च को देख कर मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि एक समाया था जबकि वर्षों पूर्व मैंने एक ग्रामीण लड़की के हाथों से धूल-भरी गर्मी के मौसम में पानी पिया था. तब के समय में यहाँ पर एक मात्र पुराने कुएं के अतिरिक्त इस सूनी सड़क पर कोई दूसरा साधन पानी के लिए नज़र नहीं आता था, मगर आज इतना बड़ा परिवर्तन देख कर मैं आश्चर्यचकित होऊं, मेरा ऐसा सोचना बहुत स्वाभाविक था. आज उसी स्थान पर, जहाँ पर कभी वह अनजान लड़की राहगीरों को यीशु मसीह के नाम पर पानी पिलाया करती थी, कुआं और वह लड़की न होकर अब केवल पानी की विशाल टंकी से जोड़कर पानी पीने के लिए छोटे-छोटे नल लगवा दिए गए थे.
मैं ये सब देख कर दंग तो था ही, साथ ही मन के किसी कोने से उस लड़की के बारे में बहुत कुछ जानने की इच्छा भी जागृत हो चुकी थी. सो मैं यही सब सोचता हुआ स्कूल के बाहर बैठे हुए चपरासी के पास चला गया. जाकर मैंने उससे दंदियाबाड़ा आने का अपना मकसद बताया कि इस विकसित होते हुए गांव में एक ईसाई अध्यापिका के लापता होने के बारे में समिचित जानकारी लेने और उसके बारे में लिखने के लिए आया हूँ तो वह चपरासी आश्चर्य से मेरा मुहं ताकने लगा. उसका इस प्रकार से चकित होकर मुझे देखने का मतलब था कि वह इस बारे में बहुत कुछ भेदभरी बातें जानता है. तब उस चपरासी के आधार पर दी गई जानकारी तथा अन्य प्राप्त ख़बरों के आधार पर जो दर्दभरी, शर्मनाक कहानी निकलकर सामने आई वह इस प्रकार से है,
वर्षों पूर्व दंदियाबाड़ा के इस गांव के गर्म हवाओं की भीषण गर्मी में जिस ग्रामीण मसीही लड़की ने मुझे अपने उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह की सेवा के नाम पर मुझे पानी पिलाया था, उसका वास्तविक नाम, ‘निर्मला’ था. वह प्राय: ही अपनी स्कूल की छुट्टी के पश्चात राह चलते हुए प्यासे राहगीरों को निस्वार्थ भाव से पानी पिलाया करती थी. फिर धीरे-धीरे जब और समय बीता तो वह इसी स्थान में बच्चों को पढ़ाने के लिए भी अपना समय देने लगी. तब एक दिन उसने गांव के बच्चों को पढ़ाने के लिए एक कमरे का स्कूल भी खोल लिया. बच्चे और बढ़े, और समय बीता, और परमेश्वर ने आशीषों के भंडार खोल दिए तो निर्मला ने एक दिन बाकायदा एक अच्छा स्कूल खोल लिया. वह स्कूल की प्राधानाचार्या बन गई. इतना ही नहीं उसके स्कूल खोलने और अथाह परिश्रम का ही ये फल था कि वसीयत में मिली उसके परिवार की गरीबी का भी अंत हो चुका था. मगर इतना सब कुछ होने पर भी उसने प्यासे चलते राहगीरों को पानी पिलाना बंद नहीं किया था. ये और बात थी कि काम की अधिकता के कारण अब वह खुद न पानी पिलाकर, उसने पहले वहां पर हैंडपंप लगवाया, फिर बाद में पानी के नल लगवा दिए थे. वह राहगीरों को पानी पिलाया करती, और बच्चों को भी पढ़ाया करती थी, इसी कारण उसका नाम, ‘निर्मलधारा’ पड़ चुका था.
फिर जब स्कूल बहुत बढ़ने लगा तो डाओसीज़ की लालची निगाहें उस स्कूल कि तरफ बढ़ने लगीं .किसी तरह से वहां पर डाओसीज़ का हस्तक्षेप हो, इसलिए पहले उसने मिलकर वहां पर चर्च की इमारत खड़ी करवाई और पास्टर के नाम पर अपना आदमी नियुक्त किया, बाद में धीरे-धीरे वे स्कूल में हस्तक्षेप करने लगे. स्कूल के नाम पर विदेशों से आनेवाली सहायता के नाम पर विशेष तौर पर डाओसीज़ की लालची निगाहें लगी हुईं थीं. सो स्कूल में होनेवाले हस्तक्षेप को निर्मला बर्दाश्त नहीं कर सकी. जब बात आगे बढ़ी तो एक दिन निर्मला अचानक से गायब हो गई. वह कहाँ गई, कौन उसे ले गया, ये ऐसे प्रश्न थे जो अखवारों की सुर्खियों से निकलकर आम जनता की निगाहों में खटकने लगे थे. ये एक संयोग ही था कि एक दिन जिस लड़की ने मुझे यीशु मसीह के नाम से पानी पिलाया था, उसी को उसके अनुयायिओं ने बहुत छल के साथ वहां से हटा दिया था. और मैं आज उसी निर्मला नाम की लड़की की तफतीश तथा उस पर समुचित रिपोर्ट लिखने के लिए यहाँ पर आया था. मगर ये कैसा अन्याय था कि आज मुझे पानी पिलाने के लिए वह परमेश्वर की भक्तिन लड़की वहां से नदारद कर दी गई थी.
स्कूल का नाम बदल दिया गया था और उसके सामने एक बड़ा सा शिलालेख लगवा दिया गया था इस शिलालेख पर नीचे लिखे अक्षर संगमरमर की पटिया पर अंकित करवा दिए गए थे;
‘गांव की जनता तथा ग्रामीण बालकों की समुचित शिक्षा के लिए ये स्कूल दंदियाबाड़ा की डाओसीज़ की तरफ से एक भेंट है. इसका शिला विन्यास डाओसीज़ के महान बिशप, ‘जूडा ग्रीडी होलीनैस, की तरफ से दिनांक....को सम्पूर्ण किया गया था.
मेरे लिए ये कितने दुःख की बात थी कि जिस ग्रामीण लड़की के महान और निस्वार्थ सेवा के बलिदान स्वरुप जो स्कूल दिखाई दे रहा था, उस ‘निर्मलधारा’ का वहां पर नाम-ओ-निशान तक नहीं था. स्पष्ट था कि आज एक बार फिर से यहूदा के अनुयायिओं ने न केवल यीशु मसीह को बेचा ही था बल्कि फिर से उसे काठ में ठोंक दिया था. पर ये और बात थी कि अब की बार उसकी सलीब येरुशलम की गुलगुथा की पहाड़ी पर न होकर उस भारत की भूमि पर गाड़ी गई थी जिसको ऋषियों, मुनियों और महान पुरुषों का देश कहा जाता है.