Ek Ruh ki Aatmkatha - 20 in Hindi Human Science by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | एक रूह की आत्मकथा - 20

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एक रूह की आत्मकथा - 20

मैं समर के साथ 'लिव इन' में रहने लगी।लीला समर को तलाक नहीं दे रही थी और बिना तलाक हुए हम शादी नहीं कर सकते थे।हमारे साथ रहने से मेरे ससुराल वाले,मायके वालों के साथ हम दोनों के बच्चे भी नाराज थे।अमृता मेरी बेटी कुछ समय मुझसे नाराज रही फिर मान गई।वह मुझसे बहुत प्यार करती थी।उसे पता था कि उसकी माँ किन हालातों से गुजरी है और अभी उसकी उम्र भी इतनी नहीं है कि अकेले जीवन निकाल दे।वह यह भी जानती थी कि उसके समर अंकल ने उसकी माँ के बुरे दिनों में उसका साथ दिया था और वे हर तरह से उनके साथ खड़े रहे हैं।हालांकि वह यह भी जानती थी कि समर का बेटा अमन,जो उसका सबसे अच्छा दोस्त है ,इस बात को लेकर बहुत नाराज़ है।उसने उससे अपनी दोस्ती भी तोड़ दी है ,पर अमृता को विश्वास है कि वह उसे मना लेगी।
उस दिन सुबह 'लिव इन' में रहने वाले एक कपल की हत्या की खबरों से अखबार भरा हुआ था।उस खबर को पढ़कर मैं डर के मारे कांप उठी।उस दिन चारों तरफ लिव इन को लेकर चर्चाएं होती रही ।ज्यादातर लोग 'लिव इन' को विदेशी फैशन कहकर उसकी निंदा कर रहे थे।लिव इन में रहने वालों को संस्कृति विरोधी कहा जा रहा था।
जबकि भारत में प्रचलित शब्द 'लिव इन रिलेशनशिप' और हिंदी में सहजीवन अथवा जोड़े का विवाह है । सहजीवन संबंध आधुनिकता और स्वतंत्रता के कारण उत्पन्न नयी व्यवस्था नहीं है। बल्कि इस नए दौर में वजूद बनाती सहजीवन संबंध का अस्तित्व प्राचीनकाल में भी रहा। विकास के बदलते काल में अनेक ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि स्त्री-पुरूष संबंध का आधार विवाह नहीं बल्कि प्रेम, सहयोग व सामंजस्य था। विकास के शुरूआती चरण में विधि- विधानों द्धारा स्थापित विवाह प्रथा सदैव नहीं रही। समाज स्त्री-पुरूष सहजीवन संबंध से ही चलता था। फ्रेडरिक एंगेल्स द्धारा ऐतिहासिकता के विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि निजी संपत्ति के उदय अर्थात आर्थिक कारणों से एकविवाह प्रथा का उदय हुआ। “एकविवाह प्रथा" से स्त्री-पुरूष संबंध का आधार प्रेम नहीं बल्कि आर्थिक हो गया। एकनिष्ठ विवाह इतिहास में पुरूष और स्त्री के बीच सहमति पर आधारित जोड़े के रूप में कदापि प्रकट नहीं हुआ ।उसे पुरूष और स्त्री के जोड़े का उच्चतम रूप समझना तो और भी गलत है। निजी संपत्ति और स्त्री पर पुरूष के आधिपत्यस्वरूप एकविवाह प्रथा की शुरूआत हुई। विवाह स्त्री-पुरूष संबंध का कृत्रिम व सुनियोजित आधार बना ना कि स्वाभाविक संबंध। जबकि सहजीवन स्त्री-पुरूष प्रेम और सहयोग के कारण उत्पन्न स्वाभाविक संबंध था।
भारत के महत्वपूर्ण ग्रंथों के आधार पर भी यह ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में स्त्रियों को अपनी इच्छा का वर प्राप्त करने, पुरूष से प्रणय निवेदन करने के साथ अपने इच्छानुसार साथ जीवन बिताने की स्वतंत्रता थी। एंगेल्स भी यौथ समाज की विशेषता में स्त्री-पुरूष लैंगिक संबंध नहीं बल्कि उनमें सहयोग, स्वतंत्रता, अपनत्व, प्रेम और सामंजस्य की भावना को उद्धृत करते हैं। जो साथ जीवन जीने का आधार था। विवाह के दो प्रकार – ‘जोड़े का विवाह और दूसरा स्थायी विवाह में बांटते हुए मन्मथनाथ गुप्त भी सहजीवन के स्वरूप को उद्धृत करते हैं- जोड़े की शादी में स्त्री और पुरूष थोड़े समय के लिए एकत्र होते थे, पर वे जब तक एकत्र होते थे, तब तक संपूर्ण रूप से एक-दूसरे के ही होते थे। अक्सर बालिग या कुछ बड़े हो जाने तक स्त्री और पुरूष एकत्र रहते थे।’
ऐतिहासिक साक्ष्य यह स्पष्ट करते हैं कि जोड़े की शादी या सहजीवन संबंध स्थायी एकविवाह के पहले के युग का चलन है। सहयोग, आकर्षण, प्रेम व सुरक्षा आदि के परिणामस्वरूप स्त्री-पुरूष का समूह और जोड़े के रूप में साथ रहना संभव हुआ होगा। लेकिन निजी संपत्ति के उदय, उत्तराधिकार प्राप्ति और स्त्री यौनिकता पर नियन्त्रण स्थापित करने के परिणामस्वरूप सहजीवन संबंधों की समाप्ति और उसके स्थान पर विधि-विधानों द्धारा स्थापित एकविवाह का उदय हुआ और इसी के साथ स्त्री-पुरूष संबंध का आधार प्रेम भी अपना अस्तित्व खोने लगा। एंगेल्स- प्राचीनकाल के सर्वाधिक सभ्य और विकसित लोगों में एकनिष्ठ विवाह की उत्पत्ति इसी प्रकार हुई थी। यह किसी भी हालत में व्यक्तिगत यौन प्रेम का परिणाम नहीं था। उसके साथ तो एकनिष्ठ विवाह की तनिक भी समानता नही है।
एकनिष्ठ एकविवाह व्यवस्था के उदय के बाद स्त्री-पुरूष संबंधों का स्वाभाविक सहजीवन स्वरूप ही समाप्त नहीं हुआ ,बल्कि संबंधों में प्रेम की मौजूदगी भी गैरमहत्वपूर्ण हो गयी। क्योंकि एकनिष्ठता सिर्फ स्त्री पर लागू होती थी ,पुरूष पर नहीं। जबकि प्रेम बराबरी, सहयोग, सामंजस्य आदि का तत्व शामिल रहता है। लेकिन एकविवाह की व्यवस्था में स्त्री-पुरूष संबंध प्रेम के कारण नहीं बल्कि आर्थिक कारण पर स्थापित होने लगा। भारत के प्राचीनतम ग्रंथों में भी स्त्री-पुरूष सहजीवन के उदाहरण प्राप्त होते हैं। पुरूरवा व उर्वशी का एक साथ रहने के निर्णय को हम सहजीवन कह सकते हैं। वहीं महाभारत में विधि-विधान से स्थापित विवाह के अतिरिक्त स्त्री-पुरूष स्वयं की इच्छा और समाज की अनुपस्थिति में साथ रहने का निर्णय लेते थे। जिसे गंधर्व विवाह कहा जाता था। गंधर्व विवाह में स्त्री-पुरूष विधि-विधानों से स्थापित विवाह से अलग स्त्री-पुरूष द्धारा पति-पत्नि मानने का वचन लेकर साथ जीवन बिताने लगते थे। पति-पत्नी की भाँति साथ रहना कुछ समय या जीवन भर के लिए भी हो सकता था।
ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि, गंधर्व विवाह प्रचलन के युग में स्त्री-पुरूष प्रेम और साथी के चयन की स्वतंत्रता अभी पूरी तरह से बाधित नहीं थी, ना ही उनके चयन पर समाज द्धारा दखलअंदाजी की जाती थी। साथ जीवन बिताने का निर्णय वचन और इच्छा पर निर्भर करता था। महाभारत में वर्णित अर्जुन-सुभ्रदा, भीम-हिडिंबा, दुष्यंत-शकुन्तला आदि गंधर्व विवाह के उदाहरण से कुछ समय तक पति-पत्नी की भाँति साथ जीवन -यापन का स्वरूप ज्ञात कर सकते हैं। नागकन्या उलूपी का अर्जुन से प्रणय निवेदन और युधिष्ठिर द्वारा दिए ब्रह्मचर्य के वचन से बंधे अर्जुन बीच का रास्ता निकालकर उलूपी के साथ कुछ दिन तक पति भाव से रहते हैं। भीम-हिंडिबा की बीच का संबंध सहजीवन का अच्छा उदाहरण है। सर्वप्रथम हिडिंबा के प्रणय निवेदन को अस्वीकार करने के बाद भीम माता और भाईयों की आज्ञा लेकर हिडिंबा के साथ कुछ समय तक जीवन यापन करते हैं। यह समाज का वह काल प्रतीत होता है जहाँ स्त्री का प्रणय निवेदन करना और पुरूष के साथ कुछ या लंबे समय तक साथ जीवन यापन को अपमान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। गंधर्व विवाह के रूप में प्रचलित सहजीवन और प्रेम विवाह को समाज स्थान देता था। लेकिन शकुन्तला-दुष्यंत के गंधर्व विवाह में सामाजिक स्थिति के बदलाव का पता चलता है। शकुन्तला से गंधर्व विवाह कर कुछ वक्त साथ रहने वाले दुष्यंत अपनी स्मरण क्षमता खो देने के कारण ना ही शकुन्तला से मिलने आते और ना ही पहचानकर पत्नी रूप में स्वीकार करते हैं। बाद में नाटकीय ढंग से वह शकुन्तला को पत्नी रूप में स्वीकार कर लेते हैं। प्रणय निवेदन और सहजीवन का स्वतंत्र स्वरूप सिर्फ समाज के मुख्यधारा से बाहर रहने वाली जातियों में ही पाया जाता है जैसे- राक्षसी हिडिंबा या नागकन्या उलूपी और अप्सरा उर्वशी का प्रणय निवेदन। बदलते विकासक्रम की बाद तक के काल में भी स्त्री-पुरूष सहजीवन संबंध का अस्तित्व किसी न किसी रूप में व्याप्त रहा है। कई स्थानों पर सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में संबंधों के लिए विवाह को आवश्यक नहीं माना जाता था। वनपर्व के ( 23) भाग में यह उल्लेख किया मिलता है कि- “कन्या शब्द की उत्पत्ति कम धातु से हुई है जिसका अर्थ है चाहे जिस किसी भी पुरूष की इच्छा कर सकने वाली। कन्या स्वतंत्र है उस पर किसी का भी अधिकार नहीं है। स्त्रियों और पुरूषों के बीच कोई रूकावट ना हो यही लोगों की तथा स्वाभाविक अवस्था है, विवाह आदि संस्कार कृत्रिम है।
बदलते विकासक्रम में स्त्री-पुरूष संबंध का आधार विधि-विधान से स्थापित विवाह द्धारा कठोर व्यवस्था और पितृसत्ता की मजबूत स्थिति का परिणाम है। लेकिन कठोर सामाजिक वर्जनाओं के बाद भी स्त्री-पुरूष प्रेम और सहजीवन संबंध दबे-छुपे रूप में ही सही लेकिन अपना स्थान बनाता रहा है। और वर्तमान समय में भी सहजीवन की समाज में मौजूदगी के कारण और बिना विवाह किए साथ रहने की व्यवस्था को सहमति प्रदान करने की मांग की वजह से ही कानून बनाने की आवश्यकता महसूस की गयी। मन्मथनाथ गुप्त ने सहजीवन की मौजूदगी व मांग पर कानूनी बहस के काफी पहले ही इस बात का अनुमान लगा लिया था कि- भविष्य में गंधर्व विवाह आवश्यक रूप से आम नियम हो जायेगा और दूसरी तरफ विवाह-विच्छेद अधिकाधिक आसान हो जायेगा, इसमें संदेह नहीं है।
स्त्री-पुरूष संबंध के प्राचीन स्वरूप को समाज में स्त्री-पुरूष के बीच पनप रही नवीन संबंध की व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया जा रहा है। और समाज में सहजीवन संबंध के तेजी से बढ़ते उदाहरण, कानून द्धारा प्राप्त सहमति समाज में स्त्री-पुरूष संबंध की एक सकारात्मक परिवर्तन की दिशा देने के संदर्भ में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
निष्कर्ष, वर्तमान समय में सहजीवन के अनेक उदाहरण तेजी से उभर कर सामने आये जिसने सामाजिक- कानूनी संस्थाओं को संबंधों की सहमति प्रदान करने का आभास कराया। बिना विवाह के साथ रहने की परंपरा तेजी से अपना स्थान ग्रहण कर रही है पर इसका कतई ये तात्पर्य नहीं है कि वैधानिक-सामाजिक विवाह का वजूद समाप्त हो रहा है बस स्त्री-पुरूष संबंधों का आधार विवाह के अतिरिक्त सहजीवन धीरे-धीरे अपना वजूद ग्रहण कर रहा है। सहजीवन संबंध को समझौतावादी संबंध समझना भूल कही जा सकती है क्योंकि समझौते से अधिक यह जुड़ाव, अपनत्व व प्रेम के कारण पनपा संबंध है जो संबंधों का स्वाभाविक औ प्राचीन व्यवस्था का ही नवरूप है।