Tum door chale jana - 2 in Hindi Love Stories by Sharovan books and stories PDF | तुम दूर चले जाना - भाग 2

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तुम दूर चले जाना - भाग 2

जब वह मथुरा के गर्ल्स कॉलेज में एक अध्यापिका थी। अंग्रेजी विषय में उसने ‘मास्टर ऑफ आर्ट’ की उपाधि प्रपट की थी, सो कॉलेज में भी वह अँग्रेजी ही की अध्यापिका थी। इंटर कक्षाओं की युवा लड़कियों को वह पढ़ाया करती थी। आज से लगभग ढाई वर्ष पूर्व कौन जनता था कि इतने अरसे पूर्व की कोई स्मृति उसके वर्तमान का विष बन जाएगी। कल की भूली-बिसरी बातों का महत्व उसके आनेवाली भावी जीवन की हर खुशियों पर अपना प्रभाव भी डालेगा?


कॉलेज समाप्त करके तब किरण को बस पकड़ने के लिए थोड़ी दूर पैदल ही चलना पड़ता था। उसके कॉलेज से बस का अड्डा थोड़ी ही दूर था। वृन्दावन में वह रहा करती थी, और यहीं से वह पढ़ाने मथुरा आया करती थी। वैसे वृन्दावन जाने के लिए उसको बस एक दूसरे स्थान से भी प्राप्त हो जाती थी, मगर एक लड़की होने के कारण उसके लिए ये स्थान कोई अधिक सुरक्शित भी नहीं था। इसलिए कॉलेज से छुट्टी करके वह सीधी बस-अड्डे पहुँचती थी, क्योंकि यहाँ से उसे वृन्दावन के लिए बस मिलना पूर्णत: निश्चित रेहता था। कॉलेज से निकालकर उसे कुछ दूर तो सीधा चलना पड़ता था, फिर दायें हाथ पर एक मोड़ लेकर तुरंत ही बस-स्टॉप आ जाता था। इसी प्रकार एक दिन नित्य की भांति किरण कॉलेज से छुट्टी करके बस-स्टॉप की ओर जा रही थी, कि तभी उसकी नज़रों ने सूरज को देखा था— जीवन में पहली बार— अपने कॉलेज की चारदीवारी के सहारे-सहारे ही सड़क लगी थी। किरण इसी चारदीवारी से सट कर जा रही थी कि अचानक से कॉलेज के नुक्कड़ पर एक युवक को बैठा देख वह फलभर को चौंक गयी। युवक उसकी उपस्थिति से जैसे अनभिज्ञ बना बैठा हुआ था। खामोश— बहुत गंभीर— अपने ख़यालों में खोया हुआ। गुमसुम— मानो अतीत की किसी स्मृति का मिलान वह क्षितिज की शून्य और खामोश दूरियों से करने में लीन था।


किरण ने उस अंजान युवक को इस प्रकार बैठे हुए पाया, तो वह उसके वहाँ बैठे होने का मकसद नहीं समझ सकी। उसने क्षणभर को उस युवक को निहारा तो, परंतु कहा कुछ भी नहीं। फिर कॉलेज की चार-दीवारी के नुक्कड़ तक पहुँचने से पूर्व ही वह नीचे उतरकर सड़क पर आ गयी...आ गयी, मगर उस युवक पर फिर भी कोई असर नहीं हुआ था। वह वैसा ही था, पूर्व स्थिति में। शायद कुछ-कुछ उदास— गंभीर—बहुत खामोश-सा।


किरण उस दिन घर चली आयी।

इस तरह एक दिन बीता। दो दिन समाप्त हुए। होते-होते सप्ताह होने को आया...और वह युवक प्रतिदिन ही मिलता रहा। किरण रोजाना उसको देखती। मूक भेंट होती, परंतु वह उस युवक का वहाँ इस तरह बैठने का ध्येय नहीं समझ सकी— नहीं समझ सकी और उस युवक का वहाँ प्रतिदिन बैठना नियमित ही रहा, तो किरण को स्वतः चिंता लग गयी, ना चाहते हुए भी उसको उस युवक के लिए सोचना पड़ गया। उसने सोचा कि, ‘क्यों बैठा है? ठीक छुट्टी के समय पर ही। जाने कहाँ का हैं? कौन है? ना मालूम किसकी तलाश में है? कहीं अन्य स्थान पर क्यों नहीं बैठता? यहीं क्यों? क्यों बैठा रहता है ये? उसके मार्ग में ही। जाने-अनजाने में यदि कोई भी बात बन बैठी...लोग बे-मतलब ही उसपर संदेह करने लग गये तो? वह तो एक अध्यापिका है? युवा लड़कियों को पढ़ाती है? यदि ऐसी-वैसी बात बन बैठी, तब क्या होगा? क्या पता कौन है ये? शायद बहुत गंभीर व्यक्तित्व का है यह पुरुष? बैठा-बैठा ना जाने क्या सोचता रहता है? वह भी मूर्खों के समान आकाश में टकटकी लगाये, जाने किसे ढूंढ़ता रहता है? कौन खो गया है इसका? हो सकता है कि कोई कलाकार हो? अथवा कोई लेखक आदि, जो बैठा-बैठा इस प्रकार किसी भी ‘सीन’ या कहानी का ‘प्लॉट’ तैयार करता रहता हो?’ सोचते-सोचते किरण ने जितना इस प्रकार सोचा उतना ही उसे कम महसूस हुआ। साथ ही व्यर्थ भी। यूँ खुद-ब-खुद किसी के प्रति कोई भी धारणा बना लेना सरासर मूर्खता ही थी। बिना उस युवक से कुछ भी पूछे-सुने कोई भी निर्णय नहीं लेना चाहिए था।


इस तरह किरण ने स्वयं ही निर्णय लेकर, उस युवक से एक बार पूछ लेना उचित समझा।

फिर जैसे ही उसके कॉलेज की छुट्टी हुई तो किरण बाहर आ गयी। दूर से ही उसने एक उचटती सी नज़र कॉलेज की चारदीवारी के अंतिम छोर पर डाली। वह युवक आज भी बैठा हुआ था। अपनी पूर्वत: जैसी स्थिति में। लगता था कि जैसे वह कई दिनों से लगातार इसी दशा में अब तक बैठा हुआ था?

किरण जैसे ही उसके पास पहुँची, तो धीरे-धीरे ठिठकते हुए उसके करीब गयी। कुछ सहमकर उसने उस युवक से कहा,

“सुनिए?”

“...?” उस युवक ने चौंककर देखा।

“कई दिनों से मैं देख रही हूँ कि आप यहाँ उदास से, खोये-खोये, परेशान-से बैठे रहते हैं?”

“...?”

वह युवक फिर भी खामोश ही रहा।

“क्या मैं जान सकती हूँ कि आप कौन हैं?”

“जी—सूरज।"

‘सूरज...’ किरण ने होंठों में ही उसका नाम दोहराया, फिर आगे बोली,

“लेकिन आकाश में खोये-खोये से क्या तलाशते रहते हैं?”

“अपनी ‘किरण’ को।"

“...?” फिर वातावरण में खामोशी छा गयी।

किरण अचानक ही आश्चर्य कर गयी। चौंक गयी। चौंकनेवाली बात ही थी। एक अंजान, अपरिचित युवक से अपना नाम सुनकर कौन युवती आश्चर्य नहीं करती? यही हाल किरण का भी हुआ। तुरंत ही उसने आगे पूछा,

“मैं आपका मतलब नहीं समझी?”

“मतलब यही कि मेरा नाम सूरज ‘कथाकार’ है और यहाँ पर मैं अपनी ‘किरण’ कि खोज कर रहा हूँ।"

उस युवक ने स्पष्ट किया तो किरण क्षणभर को मुस्कुरा पड़ी, फिर तुरंत ही हँसकर बोली,

“अब समझी कि आप आर्टिस्ट हैं।"

“जी हाँ मैं एक लेखक हूँ। वैसे विद्युत विभाग में नौकरी भी करता हूँ।" सूरज ने कहा।

“नौकरी? और ड्यूटी यहीं आकार देते हैं?” जाने किस भावावेश में किरण बोल गयी। इस पर उस युवक ने गंभीरता से किरण को देखा। कुछेक पल सोचा भी, फिर और भी अधिक गंभीर होकर बोला,

“आपको शायद मेरे प्रति गलतफहमी हो रही है। मैं आजकल ‘इनकैशमेंट लीव’ पर हूँ। यहाँ आकार बैठना अच्छा लगता है। यदि इसमें आपको कोई आपत्ति है, तो और बात है।"

“नहीं! नहीं! मुझे भला क्या ऐतराज हो सकता है। आप शौक से बैठा करिये। मैंने तो बस यूँ ही जरा पूछ लिया था।"

“...?” खामोशी बनी रही।

कुछेक क्षणों को दोनों के मध्य मौन छ गया। सूरज खामोश हो गया था और किरण भी चुप थी। इसके पश्चात किरण ने ही बात आगे बढ़ाई। उत्सुकता जाहिर करते हुए उसने आगे कहा कि,

“आपने कहा कि आप लेखक हैं?”

“हाँ! लेखन मेरा शौक भी है, और खुशियाँ भी।"

“तो फिर कुछेक पुस्तकें भी प्रकाशित हुई होंगी?”

“अभी तो एक भी नहीं—हाँ, दो-एक उपन्यास मेरे शीघ्र ही प्रकाशित होने को हैं।“

“इसका मतलब है कि आप उपन्यासकार हैं?”

“हाँ! सामाजिक उपन्यास लिखा करता हूँ।“

“किस विषय पर?”

“विध्यार्थी-जीवन पर आधारित प्यार की दु:ख और दर्दभरी कहानियाँ ही लिखा करता हूँ।"

“विषय तो काफी अच्छा है, लेकिन लगता है कि ज़िंदगी में कोई बहुत बड़ी प्यार की ठोकर खा बैठे हैं आप?”

“...?”

युवक आश्चर्य से किरण का मुख ही देखता रह गया। उसने कुछ कहना चाहा, मगर कह नहीं सका। लगता था कि जैसे उसके दिल में कोई टीस उठकर ही रह गयी है. गले में कोई आह थी, जो बाहर निकलना चाह रही थी, परंतु निकाल नहीं सकी थी, बल्कि अन्दर-ही-अन्दर घुटकर अपना दम तोड़ बैठी थी।

“आपको शायद मेरी बात से कोई कष्ट हुआ है?” किरण ने उसकी मुख-मुद्रा देखकर टोक दिया।

“नहीं! ऐसी कोई भी बात नहीं है, बल्कि...”

“क्या?”
“इस प्रकार की बातें समझदार लोग न कभी पूछा करते हैं, और ना ही मेरे जैसे लोग कभी जाहिर किया करते हैं।“

कहकर सूरज उठ गया। चलने को हुआ तो किरण उसको जाते हुए मना नहीं कर सकी, बल्कि मूक बनी देखती ही रह गयी...और वह सीधा सड़क पर जाकर मनुष्यों की भीड़ में खो गया।

वह युवक चला गया तो किरण निराश-सी बस स्टॉप की ओर चल पड़ी। रास्तेभर उसके मनो-मस्तिष्क में सूरज का खयाल आता रहा। उसका गंभीरपन- चेहरे की भरपूर संजीदगी- समस्याओं से घिरी हुई आँखें-आँखों में बसी हुई दुनियां-जहान की जैसे सारी मुसीबतें...और दिल में न जाने कौन-सी अधूरी चाहत का दर्द बसाये हुए? पता नहीं आकाश में खोयी-खोयी उसकी खामोश आँखें, क्या तलाश करती होंगी? वह ‘सूरज’ है- शायद अपनी खोयी हुई 'किरण' को दूँढ़ता फिर रहा हो? अजीब ही व्यक्तित्व होता है, इन लेखकों, कलाकारों का- प्रत्येक समय संदिग्ध ही बने रहते हैं। मुख में जैसे कोई जुबान तो होती ही नहीं इनके। हर समय चुप-चुप। भला चैन भी खूब मिल जाता है इनको? बताओ, इतनी ढेर सारी बातें कर लीं मगर गया तो ऐसे गया कि जैसे कोई मतलब ही ना रहा हो? जाते-जाते, दुआ-सलाम, नमस्ते कुछ भी नहीं… अजीब ही खोपड़ी के मालिक होते हैं ये तो?... सोचते-सोचते किरण कब बस-स्टॉप पर आ गयी, उसे कुछ ज्ञात ही नहीं हो सका ।
फिर दिन-प्रतिदिन के समान बस-स्टॉप पर उसे दीपक खड़ा नजर आया तो सूरज का खयाल उसके मस्तिष्क से स्वत: ही मिट गया ।


किरण की मुलाकात भी दीपक से एक अजीबो-गरीब तौर पर ही अचानक से हो गयी थी।

वर्षा की वह भीगती रात.

जब मथुरा के सारे माहौल को प्रकृति के बिगड़े हुए बातावरण ने अपने बाहुपाश में कस लिया था। रात्रि की कालिमा और आकाश पर काले बादलों के झुंड मंडरा रहे थे. ब्लैक स्टोन गर्ल्स कॉलेज के सामने खड़ी हुई किरण किसी बस के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। बर्षा के कारण वह बस-स्टॉप तक नहीं जा सकी थी। रात अँधेरी थी। सड़क वीरान- बारिश का शोर-शराबा और वह अकेली। उसका हृदय भय के कारण धड़क-धड़क जाता था। रात्रि का एकान्त था - कॉलेज भी बंद हो चुका था। सड़क का किनारा। वर्षा की रिमझिम। आज उसे काफी देर हो चुकी थी और सड़क पर एक भी मनुष्य आता-जाता दिखायी नहीं पड़ता था। ऐसे वातावरण में वह अकेली- एक युवा नारी? कुछ भी हो सकता था- सोचकर ही किरण मन-ही-मन काँप जाती थी।

आज अपनी सहेली के घर जाने के कारण उसने काफी देर कर दी थी। यदि उसे ज्ञात होता तो शायद वह उसके घर कभी भी नहीं जाती। खैर ! अब वह भी क्या कर सकती थी? कभी वह सोचती कि वह बस स्टॉप पर ही चली जाये। वहीँ से बस पकड़ ले, परन्तु वीरान सड़क को देखकर वह और अधिक भयभीत हो जाती थी… अब तो जो भी परिस्थिति बन बैठी थी, उसी से ही उसे समझौता करना था। यहीं खड़े-खड़े प्रतीक्षा करनी थी। वर्षा के रिमझिम के कारण उसका सारा शरीर हल्का-हल्का भीग चुका था, इस कदर कि साड़ी तक शरीर पर चिपकने लगी थी। यौवन के उभार तक स्पष्ट झलक उठे थे। सिर के लम्बे-लम्बे बाल तक भीग चुके थे। बालों की दो-एक लटें उसके मुलायम गोरे मुख पर लटककर उसके संपूर्ण यौवन को और भी अधिक मादक बनाये दे रही थी, परन्तु किरण को इस सब की कहाँ परवाह थी। उसे अपनी स्थिति का भी आभास नहीं था। वह तो केवल साँसें थामकर किसी बस के आने की प्रतीक्षा कर रही थी।

तब ही उसके आशा के प्रतिकूल ‘दीपक’ का प्रकाश अचानक से उसे प्राप्त हुआ था। बस की दो हैडलाइट्स के स्थान पर केवल एक ही हैडलाइट अपना प्रकाश बिखरते हुए दूर ही से वर्षा की बूंदों को फाड़ती हुई चली आ रही थी। दीपक स्कूटर पर आया था। जीवन में पहली बार, उसकी नज़रों के समक्ष- किरण के अंधकारमय जीवन का शायद एक ‘दीपक’ बनकर ही- उसे प्रकाश की एक ज्योति देने के लिए ही।

वीरान सड़क पर असमय एक अकेली युवा नारी को यूँ चुपचाप खड़े देखकर उसका रुकना स्वाभाविक ही था। उसने ब्रेक लगाकर किरण को गौर से देखा। कुछ पहचानने की चेष्टा की, फिर शिष्टाचार के नाते उसने स्कूटर पर चढ़े-चढ़े ही किरण से पूछा,

“मैडम ! आप शायद बस की प्रतीक्षा का रही हैं?”

“जी हाँ !” किरण ने एक संक्षिप्त उत्तर दिया।

“कहाँ जाना है आपको?” दीपक ने पूछा।

“वृन्दावन”

“यदि आपको कोई आपत्ति ना हो तो मेरे साथ आ सकती हैं। मैं भी वृन्दावन ही जा रहा हूँ।” दीपक ने उसकी परेशानी महसूस करते हुए, उसे अपनी सलाह दी।

फिर क्या था? डूबते को तिनके का सहारा। किरण पता नहीं किस सोच में, परिस्थिति से समझौता करके, कोई भी अच्छा-बुरा सोचे बगैर तुरन्त ही साड़ी का पल्लू समेटकर स्कूटर पर बैठ गयी- दीपक के साथ। एक अपरिचित से न चाहते हुए भी एक परिचय करके।


इस प्रकार स्कूटर की वह मुसीबतभरी प्रथम भेंट किरण और दीपक को धीरे-धीरे पास ले आयी और फिर किरण दीपक के साये में अपने जीवन का उजाला खोजने लगी। उसके चेहरे पर अपने भविष्य का स्वप्न सजाने लगी। उसकी आँखों में डूबती चली गयी। उसको प्यार करने लगी। अपना सबकुछ मानकर, एक नैया बनकर दीपक को अपना माँझी मान बैठी। उस पर अपना सारा जीवन, सारी इच्छायें भेंट चढ़ाने का ख्वाब ले बैठी। मगर आरम्भ में दीपक किरण के मन का भेद नहीं समझ सका। किरण उसको प्यार करती थी और दीपक समझते हुए भी महसूस नहीं कर पा रहा था, क्योंकि दीपक एक विवाहित पुरुष था। उसके पास पत्नी थी। बहुत प्यारी- चन्द्रा। चन्द्रा से उसके पास तीन बच्चे भी थे- सुन्दर और मासूम। एक लड़का- सबसे छोटा— आकाश, और दो लड़कियाँ तारिका तथा उल्का। दीपक सोचता था कि किरण को ये सब ज्ञात नहीं है। ज्ञात होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि एक प्रेमिका को जब यह पता चल जाता है कि उसका प्रेमी पहले ही से एक विवाहित पुरुष है, तो उसपर क्या बीत सकती है? कितना बुरा लगेगा उसको! उसके सारे अरमानों पर आग नहीं बरस जायेगी तब! यदि किरण को भी उसकी हकीकत के बारे में पता चल गया तो वह क्या सोचेगी? तब क्षणमात्र में ही उसका सारा प्यार घृणा और नफरत में परिवर्तित नहीं हो जायेगा? यही सब सोचकर दीपक ने किरण को कभी यह बात नहीं बतायी थी। बताकर वह उसका दिल भी नहीं तोड़ना चाहता था। यह जानते हुए भी कि किरण को इस धोखे में रखना उस पाप से भी बढ़कर है, जो वह कर रहा है। अपनी पत्नी और बच्चों के रहते हुए उसे किसी भी अविवाहित लड़की का प्रेमी बनने का कतई अधिकार नहीं था। ‘एक विवाहित पुरुष होकर किसी अविवाहित स्त्री के दिल में, अपने प्रति जो सपने वह सजाये जा रहा था, वे हकीकत का स्पर्श पाकर किस कदर चटककर छिन्न-भिन्न हो जायेंगे? इस अनमेल प्यार की जिस राह पर वह चल रहा था, वह उसको कहां पर ले जा कर, उसकी जिन्दगी का कठोर तमाचा जड़ देगी, इतना तो उसे कम-से-कम सोचना चाहिए ही था।


समय इसी प्रकार बढ़ रहा था… ।

प्रतिदिन सूर्य निकलता। नया दिन उगता। हर प्राणी नये दिन के उजाले के साथ ही एक नयी प्रेरणा लेकर अपने दिन भर के कार्यों की प्रगति में जुट जाता। पक्षी उड़कर चुगने चले जाते। सारे दिन नीड़ खाली और रिक्त पड़े रहते। फिर संध्या ढले वे वापस आते, तब जबकि दिनभर का थका-थकाया सूर्य क्षितिज के एक कोने में अपने निश्चित स्थान पर पहुंचकर अपनी थकान मिटाने लगता …। इसी प्रकार किरण और दीपक भी कहीं-न-कहीं मिल जाते । पहले ही से निश्चित किये हुए स्थान पर। किरण कॉलेज समाप्त करके आती, तो दीपक अपनी ड्यूटी समाप्त करके। दोनों तब एक स्थान पर मिलते-बैठते, बातें करते- ढेर सारी बातें …। कहीं भी एकान्त में अथवा किसी भी रेस्टोरेंट में। वे चाय की चुस्कियों के सहारे अपनी शाम को मधुर बना लेते। बातों के मध्य अक्सर किरण ही सबसे अधिक बोलती रहती। दीपक फिर भी चुप ही रहता था।

फिर जब दीपक को विदा करके किरण वृन्दावन पहुँचती… अपने कमरे में आती, तो उसके पलंग के करीब एक छोटी-सी मेज पर रखा हुआ ‘प्लूटो' का छायाचित्र मानो उससे कोई तकाजा करने लगता था- किरण तब देर तक प्लूटो की तस्वीर को देखती रहती थी। उसके चित्र को उठा लेती। उसी में ही खो जाती। सोचती- कितना अच्छा था उसका प्लूटो! किस कदर प्यारा! कितना अधिक गौरववान- कैसा श्रेष्ठ! क्या सोचकर तब वह प्लूटो पर मर मिटी थी। उसे प्यार करने लगी थी। उसे चाहती थी, परन्तु परमेश्वर को शायद यह सब स्वीकार नहीं था। इसी कारण प्लूटो उसके जीवन से चला गया था। समय से बहुत पूर्व ही। उसको शायद बेजान बनाकर- अकेला… असहाय-सा छोड़कर। उसके बचपन का साथी। उसका हमकदम बनते-बनते, उसके जीवन के सफर से निकल कर, उसकी नजरों से हमेशा के लिए ओझल भी हो चुका था।


‘प्लूटो।'

'दीपक।' और

'सूरज ।’

ये तीन युवक- तीन लक्ष्य -तीन गाथायें, उसके जीवन से कितना अधिक जुड़ी रही थीं। कितना अधिक वह इनके पास रही थी, परन्तु भाग्य को एक भी स्वीकार नहीं हुई थी। ‘प्लूटों’ को वह चाहकर भी प्राप्त नहीं कर सकी थी। वह स्वयं ही नष्ट हो गया था। विधाता ने उसको किरण से छीन लिया था । 'दीपक' के साथ वह कानूनन बँध नहीं सकी थी और 'सूरज’ के दिल का हाल सुने बगैर ही, वह उसे तिरस्कृत कर बैठी थी। तीनों ही उसके पास प्यार का एक दीप बनकर आये थे। तीनों ने ही उसे जी भर के प्यार किया था। तीनों ने उसे चाहा भी था, मगर ये कैसा संयोग था कि वह किसी के साथ भी नहीं जुड़ सकी थी। तीनों ने ही उसको खो दिया था। प्लूटो को विधाता ने छीना था। दीपक को समाज की रीतियों ने तो सूरज को वह अपनी एक छोटी-सी भूल के कारण मृत्युशैया पर लिटा चुकी थी।

वह सूरज, जो कल के आनेवाले दिनों में उसे सारी जिन्दगी के लिए अपने उजालों से प्रकाशमान कर सकता था। उसके जीवन के सभी अंधेरों को समाप्त कर देता। वही आज उसकी जिन्दगी में दुनियाभर का अन्धकार देकर चला भी गया था…. ‘सोचते- सोचते किरण की आंखों से आंसू स्वतः ही टूट-टूटकर गिरने लगे। वह फिर रोने लगी- इस कदर कि आँसू उसके गालों पर एक धारा बनकर बह उठे। दिल में उसके दर्द होने लगा- बड़े ही जोर का— जानलेवा-सा। कलेजे में जैसे कहीं तीर चुभ रहे थे। गले में हिचकियाँ थीं— होंठों पर आहें! आंखों में आंसू और चेहरे पर पश्चाताप की दर्दभरी व्यथा, मानो उसको दुनिया की सबसे दु:खी महिला साबित कर देना चाहती थी।


किरण बड़ी देर तक रोती रही।

अकेले ही। बिस्तर पर पड़ी-पड़ी। यहां कोई भी उसका दर्द सुननेवाला नहीं था। दुःख में कोई भी उसका हिस्सा बँटा नहीं सकता था। यहाँ तक कि उसका पति वीनस भी। सिवा इसके कि वह रोती रहे… अकेले-अकेले। मन-ही मन घुटती रहे। इसी प्रकार उसको अपना दर्द समेटना था. वह दर्द! दर्द की वह गाथा जिसमें उसका अतीत शामिल था। अतीत की पुस्तक दु:खों के भण्डार से भरी हुई थी। बीते हुए वे दिन जिनके हर पल में अन्धकार था— अतीत का प्रत्येक पृष्ठ काला था। साथ ही भयानक और बेदर्द भी- जिये हुए दिनों की वे बातें... वे ढेर सारी यादें, जिन्हें वह कभी बेमतलब और नाकाम समझकर छोड़ आयी थी, और जिसे यदि वह चाहती तो वह उसके भावी जीवन की प्रत्येक पल की मुस्कानभरी खुशियाँ बन सकती थीं, परन्तु अपनी कुछेक भूलों के कारण ही आज वही स्मृतियाँ उसकी नस-नस में जहर घोले दे रही थीं। उसके कोमल गालों पर तमाचे जड़ देती थीं। होंठों पर आग समान जलन दे रही थीं... और सारे मस्तिष्क में हाहाकार कर उठी थीं। उसके शरीर को जैसे नोच-नोचकर खा उठी थीं। कैसे वह समझाती? खुद को वह कहां तक तसल्ली दे सकती थी? वैसे भी मनुष्य दूसरों को तो तसल्ली दे सकता है, परन्तु स्वयं को सन्तुष्ट करना स्वाभाविक नहीं होता है. और यहाँ किरण के पास तो कोई अन्य तसल्ली देनेवाला भी नहीं था। वह अभी तक परेशान थी। सूरज का दर्द बार-बार एक सवाल बनकर उसके मस्तिष्क में कौंध जाता था। दिन काफी चढ़ आया था। आंगन में धूप खिल उठी थी। आकाश पर सूर्य अपने पूर्ण यौवन पर पहुँचता जा रहा था। सारे संसार को प्रकाश देनेवाला ‘सूरज' आज किरण को अन्धकार दे रहा था। किरण बिस्तर पर पड़ी-पड़ी बार-बार यही सब सोचती थी—सोचती थी और तड़पती थी— पछताती थी। हर आंसू पश्चाताप का एक कतरा था। साथ ही चेहरे पर प्रायश्चित की भरपूर झलक थी।


रोते-रोते, भरी हुई आँखों से किरण ने अपनी बगल में निहारा- इधर-उधर देखा। सारा कमरा जैसे उसके रुदन से वाकिफ हो गया था- कमरे की चारों दीवारों पर उसकी सिसकियां जैसे घनी रात्रि की मनहूस अबाबीलों के समान चिपक गयी थीं। क्या-से-क्या हो गया था? क्षणभर में ही उसकी सारी मनोस्थिति परिवर्तित हो चुकी थी। दिल में दुःखों के ताँते लग उठे थे। क्या इसी आज का दिन देखने के लिए वह जीवित थी? क्या ही अच्छा होता कि प्लूटो के साथ वह भी चल बसी होती। उसकी अर्थीं में वह भी सिमट जाती।