Agnija - 84 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 84

Featured Books
Categories
Share

अग्निजा - 84

प्रकरण-84

जीतू को केतकी के प्रति मन से रुचि नहीं थी। जो कुछ था, बस उसका स्वार्थ था। अब उसने केतकी पर संदेह करना प्रारंभ कर दिया और केतकी से दूरी भी बनाने लगा था। फिर भी कई बार केतकी की शाला के पास आकर उसके आने-जाने के समय और उसके साथ कौन रहता है-इस पर छुप कर नजर रखने लगा था। कभी दिमाग में संदेह का कीड़ा अधिक कुलबुलाये तो डॉ. मंगल के दवाखाने का चक्कर मार कर आ जाता था। लेकिन संयोग ऐसा बना कि एक बार भावना ही सुबह जाकर उनकी दवा ले आयी थी तो दूसरी बार प्रसन्न शर्मा देर शाम को जाकर ले आये थे। उसके बाद के सप्ताह में जब प्रसन्न फिर से केतकी की दवा लाने के लिए पहुंचा तो डॉ. मंगल ने एक समस्या बतायी, “अपने गुरू से मिलने और वनौषधि लेने के लिए मुझे हिमाचल प्रदेश के जंगलों में जाना पड़ेगा। यह लड़का भी अपने गांव जाएगा। इस लिए अगले डेढ़-दो महीने मैं यहा नहीं रहूंगा...” प्रसन्न ने चिंतातुर होकर पूछा, “फिर केतकी के इलाज का क्या? उसे दवाइयां कैसे मिलेंगी? आपके कारण वह खुश रहने लगी है। उसके सिर पर फिर से बाल दिखाई देने लगे हैं। प्लीज, कोई व्यवस्था करें।”

“आपकी बात सही है। उपचार बीच में ही छोड़ दिया जाए तो परेशानी हो सकती है। आए हुए बाल वापस झड़ सकते हैं। एक काम कर सकता हूं, लेकिन उसमें जरा अड़चन है।”

“कैसी अड़चन?”

“देखिये, अभी दो-तीन दिन में यहां पर हूं। रात-दिन एक करके मैं चार सप्ताह की दवाई तैयार कर सकता हूं। लेकिन उसके लिए लगने वाली सामग्री मेरे पास नहीं है।”

“वो सामग्री कहां मिल सकती है, मुझे बताइये, मैं सहायता कर सकता हूं क्या?”

“मेरी ही तरह एक डॉक्टर हैं मुंबई में। मैं उन्हें फोन करके दवाई मंगवा तो सकता हूं लेकिन उन्हें उसके लिए पैसे भिजवाने पड़ेंगे।”

“पैसे मैं दे देता हूं, बताइये कितने लगेंगे और कब दूं?”

“वैसे तो आठ सप्ताह की दवाई के अस्सी हजार होते हैं। लेकिन सामान के लिए कम से कम पैंसठ हजार तो लगेंगे ही।”

“कल सुबह आपको बैंक से अस्सी हजार निकाल कर आपको ला देता हूं।”

“वाह, ये तो बहुत अच्छी बात है। भाई, आपको पेशेंट की कितनी चिंता है। वह आपकी कौन हैं?”

“हम एक ही स्कूल में शिक्षक हैं। मित्र भी हैं।”

“ईश्वर आपकी तरह मित्र सबको दे।”

केतकी को कुछ न बताते हुए प्रसन्न ने अगले बहुत सुबह ही बैंक से अस्सी हजार रुपये निकाले और डॉ. मंगल को दे आया। उन्होंने हमेशा की तरह पोस्टडेटेड चेक दे दिये। डॉ. मंगल ने बताया, “मैंने कल ही मुंबई के डॉक्टर से बात की है। उनका आदमी सामग्री लेकर निकला है। वह अब कभी भी आ सकता है। आप परसों आकर दवा ले दाएं। मैं दिन-रात एक करके दवा बना कर आपको दे ही जाऊंगा।” प्रसन्न सोचता था कि केतकी मन से बहुत अच्छी इंसान है इस लिए उस पर संकट आते भी हैं तो उसे अच्छे इंसान मिल भी जाते हैं। वरना ऐसा कौन सा डॉक्टर होगा जो अपने मरीज के लिए इतने कष्ट उठाएगा?

दो दिनों बाद शाम को प्रसन्न ने केतकी के हाथ में दो महीनों की दवा रख दी। केतकी को आश्चर्य हुआ तो प्रसन्न ने उसे वास्तविकता बता दी। केतकी को बहुत खुशी हुई, लेकिन नाराज होते हुए उसने कहा, “कोई अपने खाते से इस तरह अस्सी हजार रुपये निकालता है क्या?”

“अरे, पर दवा लेना भी तो जरूरी ही था न?”

केतकी ने मजाक में पूछा, “और यदि मैंने आपको ये अस्सी हजार नहीं लौटाये तो?”

प्रसन्न ने गंभीरता ओढ़ने का नाटक करते हुए कहा, “तब तो समस्या हो जाएगी। मुझे मोक्ष प्राप्ति के लिए निकल जाना होगा।”

“पर इसमें मोक्ष प्राप्ति का प्रश्न कहां है?”

“अरे, साधू बनना होगा, इसी का मतलब तो मोक्ष का मार्ग होता है न?” प्रसन्न हंसने लगा। केतकी कुछ गंभीर होते हुए बोली, “वैसा समय नहीं आएगा। मैं आपके सारे पैसे थोड़े-थोड़े कर के चुका दूंगी।”

“अरे मैं तो मजाक कर रहा था। अस्सी हजार के लिए साधू बनने की जरूरत नहीं है मुझे। आप फिलहाल उन पैसों की चिंता छोड़ें और निश्चिंत होकर अपना उपचार करवाती रहें।”

केतकी नियम से दवाई लेने लगी। दवा असर दिखा रही थी, उसके सिर पर बाल वापस आने लगे थे, कुछ काले तो कुछ सफेद। लेकिन बालों की बढ़त के साथ-साथ उसका आहार भी बढ़ने लगा था। बहुत भूख लगने लगी थी। किसी अकालग्रस्त क्षेत्र से आई हो इस तरह वह खाने लगी थी। कभी-कभी वह मजाक में सोचती कि सोमालिया या इथोपिया की कोई आत्मा ने तो उसके भीतर प्रवेश नहीं कर लिया?

बाल धीमी गति से बढ़ रहे थे, लेकिन भूख दुगुनी गति से। इसी के साथ उसका वजन भी बढ़ने लगा था। इसके अलावा भी दुष्परिणाम दिखाई देने लगे थे। बेचैनी बनी रहती थी। स्कूल में पढ़ाने के लिए खड़े रहते समय तकलीफ होती थी। नींद आती थी। विस्मृति होने लगी थी। गली के कुत्तों को एक बार बिस्किट खिलाने के बाद भूल जाती और एक घंटे बाद फिर से खिलाने के लिए निकल जाती थी। नींद आ रही है या थकान हो रही है, उसे समझ में ही नहीं आता था। कभी-कभी बैठे-बैठे ही ऊंघने लगती थी तो कभी आधी रात को उठ कर रसोई घर के डिब्बों में कुछ खाने के लिए है क्या-यह देखने के लिए निकल जाती। उसे ऐसा लगने लगा था कि अपने शरीर पर उसका नियंत्रण नहीं रह गया है। सच कहें तो उसकी एकाग्रता ही समाप्त हो गयी थी। वह किसी भी बात पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाती थी। ऐसे में ही एक बार स्कूटी से एक छोटा-सा एक्सीडेंट भी हो गया। जैसे-तैसे जान बच पायी थी उसकी लेकिन हाथ की ऊंगली में चोट लग गयी थी। यह ऊंगली कई दिनों तक दर्द देती रहेगी, इस बात का संदेह नहीं था उसको।

दिनोंदिन उसकी शारीरिक परेशानियां बढ़ने लगी थीं। संतोष केवल बालों का था। ऊंगली के इलाज के लिए जब दवाखाने में गयी तो वहां उसने अपना वजन देखा, तो 85 किलो निकला। केतकी और भावना दोनों चौंक पड़ीं। करीब तीन महीने पहले उसका वजन 50 किलो था। केतकी डर गयी। शरीर और मन-दोनों से बेचैन हो गयी। उसको ठीक से समझ में ही नहीं आ रहा था कि उसे आखिर हो क्या रहा है?  इतना तो समझ पा रही थी कि उसके शरीर में कुछ उथल-पुथल हो रही है, लेकिन बहुत बड़ा संकट उस पर आने वाला है पर उसका ठीकठीक अंदाज नहीं लगा पा रही थी वह।

इस बार जीतू डेढ़ महीने के अंतराल के बाद मिलने के लिए आया। पहले तो उसने केतकी को पहचाना ही नहीं। फिर उसकी ओर देख कर हंसने लगा, “भैंस की तरह दिखने लगी हो तुम तो... मैं तुमसे नहीं मिल रहा हूं उसके कारण इतना स्वास्थ्यलाभ हो रहा है क्या तुमको? ऐसी ढोल जैसी गोल-मटोल ऊपर से सिर पर वो कपड़ा...पूरी जोकर दिखने लगी हो तुम तो अब...अब तुमको जैसे घूमना हो घूमो...कोई भी तुम्हारी तरफ देखने वाला नहीं, गारंटी के साथ कहता हूं मैं। मेरी चिंता दूर हुई।” इतना कह कर वह जोर-जोर से हंसने लगा। केतकी के मन क लग गयी यह बात। “ये मेरा जीवनसाथी? सुख-दुःख का साथी?” लेकिन जीतू को उसकी भावनाओं की कद्र नहीं थी। वह तो समोसे के साथ चटनी का स्वाद ले रहा था, साथ में मिर्ची खा रहा था। केतकी को सबकुछ बेस्वाद लग रहा था और उसका भावी पति खाने-पीने में मगन था।

भावना को चिंता सताने लगी। केतकी को बिना बताए वह प्रसन्न शर्मा से मिली। उससे अपनी बहन का दुःख देखा नहीं जा रहा था। रुंआसी होकर वह प्रसन्न शर्मा से बिनती करने लगी, “दीदी को किसी बड़े डॉक्टर को दिखाना चाहिए। किसी अच्छे डॉक्टर को।”

“जरूर दिखाएंगे, लेकिन उसके पहले तुमको मेरा एक काम करना होगा।”

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार © प्रफुल शाह