"आ जाओ बेटा , आज बड़ी देर कर दी आने में?" राकेश के अंदर आने पर उसकी माँ ने पूछा जो एक थाली में दाल में से कंकर अलग कर रही थी।
"घर पर टाइम से आ जाया करो बेटा, पता है तुम्हारी माँ कितनी टेंशन लेती है।" मोहनचंद अपने चश्मे की टूटी हुई डंडी को फेवीक्विक से चिपकाने का प्रयास करते हुए बोला।
"अब मैं कोई बच्चा तो हूँ नहीं , जो खो जाऊँगा। और मम्मी को कितनी बार बोला हुआ है कि मेरी फिक्र करना अब छोड़ दे, फिर क्यों भला मेरे पड़े रहते हो।" राकेश ने झल्लाते हुए कहा।
"तो बेटा कम से बता तो दिया कर, ताकि हम फिक्र न करे।" रेखा ने अपने बेटे को बहुत नरमी से बोला ताकि उसको गुस्सा न आ जाये।
पर इस उम्र में माता-पिता की डांट की तरह ही उनका प्यार से समझाना भी बहुत बुरा लगने लगता है। राकेश अब खुद को कुछ बड़ा ही समझने लगा और माँ के इस तरह समझाने पर और ज्यादा ही भड़क गया।
"अब क्या मुझे हर बात आपको बतानी पड़ेगी।" कहते हुए राकेश अपने कमरे में चला गया।
राकेश ही मोहनचंद और रेखा की एकमात्र संतान थी। इसलिए उसे दोनों ने बहुत प्यार से पाला था। मारना तो दूर उसे कभी सही से डांटा तक नहीं। पर अब वही प्यार उनको भारी पड़ता दिखाई दे रहा था। राकेश अब घर पर कम ही टिकता था। कॉलेज या अपने मित्रों तक ही वो सीमित रह गया था। परिवार उसे अब एक बाधक तत्व दिखाई देने लगा था। एक बार रेखा और मोहनचंद को उसके द्वारा सिगरेट पीने की ख़बर भी मिली पर दोनों टेंशन अलावा कुछ न कर सके। ग़लत रास्ते पर चलता देख दोनों ने उसे समझाने का प्रयास भी खूब किया था। पर अब वह उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच गया था ,जहाँ से वह अपनी ज़िंदगी के फैसले खुद ही लेना चाहता था। वह अपने माता - पिता की हर सलाह को , चाहे वह कितनी ही अच्छी क्यों न हो; उसे वह अपने मस्तिष्क में प्रवेश ही नहीं होने देता।
"मैंने कहा था इसे सिर पर मत चढ़ाओ, पर मेरी कोई सुने तब ना।" मोहनचंद ने अपना गुस्सा स्थानांतरित करते हुए बोला।
"हाँ!हाँ! जैसे सिर्फ मैंने ही बिगाड़ा है इसको, ये जो भी मांगे ,उसे लाकर तो आप ही देते थे। मैंने कहा भी था कि खर्चा करो ,पर संभल कर, पर अब गलती तो फिर भी सारी मेरी ही है।"रेखा अपने पति के गुस्से का प्रतिकार करते हुए बोली। दोनों में निरर्थक बहस छिड़ गई पर आख़िर में दोनों ही एक दूसरे की आँखों में उमड़ती पीड़ा को देखकर शांत हो गए।
घर का मुख्य द्वार खुला हुआ था। जिससे कुछ मंद-मंद हवा भीतर प्रवेश कर उनके दर्द को सांत्वना देने का असफल प्रयास कर रही थी। रेखा दाल लेकर , रसोई की तरफ़ चली गई और मोहनचंद अपने पिचके हुए गालों को और पिचकाकर मुँह में से फूँक मारकर चश्मे पर लगी हुई फेवीक्विक को सुखाने का प्रयास कर रहा था। तभी अचानक एक प्रहार होता है और उनका चश्मा दूर जाकर गिर जाता है और डंडी के साथ उसके काँच भी उस चश्मे का साथ छोड़ देते है। अचानक हुए इस प्रहार से मोहनचंद कुछ समझ नहीं पाता है कि ये क्या हो रहा है और क्यों?
वो प्रहार एक लात का था । जो हनीफ़ ने मारी थी। तेजसिंह, दीपक,हनीफ़ और राजू चारों ही उसके घर में घुस चुके थे। दीपक पास में पड़ी एक प्लास्टिक की कुर्सी को तेजसिंह के आगे रखकर उसे बिठाता है। तेजसिंह कुर्सी पर बैठकर अपने एक पाँव पर दूसरा पाँव रखकर अपने तीखी मूछो को और तीखी करते हुए बोलता है। "नमस्कार चाचा जी, कैसे हो जी आप?"
क्रमशः .......