तुमने कभी प्यार किया था?-१९
उनका बंगलौर से फोन आया। पूछे सकुशल पहुँच गये? मैंने का हाँ। फिर बोले कोई परेशानी तो नहीं हुयी। मैंने कहा नहीं,उड़ान समय से थी और समय से गंतव्य पर पहुँच गयी थी। हाँ, हवाई अड्डे( एअरपोर्ट) का एक दृश्य अभी भी मन को खींच रहा है।
"गेट २५ पर दो महिलाएं बैठी थीं। एक बोली सुबह से वहाँ बैठी हैं। आकाश एयरलाइंस का टिकट है,मम्बई का। सुबह की उड़ान थी, वह छूट गयी। फिर बेटी ने दूसरा टिकट आँनलाइन भेजा। अब शाम ७.४५ की उड़ान है। गेट नम्बर पता नहीं है। बोर्डिंग पास में भी नहीं लिखा है। सबको पूछ रही थी। बोल रही थी कोई कुछ बताता नहीं। एक व्यक्ति ने बोला कोई सहायता कर देगा। वह बोली," कोई नहीं करता है।" उस व्यक्ति ने बोला सुबह से आप लोगों ने कुछ खाया नहीं होगा, हमारे पास खाना है,खाइयेगा? वह बोली खाना हम लाये हैं। मैंने भी कोशिश की,सहायता खरने की। डिस्प्ले में तब तक कुछ नहीं आ रहा था,उनकी उड़ान का। अन्य एलायंस के लोगों से पूछा उन्होंने बोला उन्हें पता नहीं। फिर एक किनारे एयरपोर्ट का स्टाफ बैठा था। उनसे उन्हें मिला दिया। वे बोले," हम बैठा देंगे"। उसने मुझे हार्दिक धन्यवाद दिया जो उसके हावभावों में व्यक्त हो रहा था।"
फिर वह बोले आज भी सुबह वहाँ पर बैठा और सोचा आप बगल में अन्य दिनों की तरह बैठे हैं। लगभग एक सप्ताह हमारा साथ रहा।दूसरे दिन से ही साथ-साथ बैठने का क्रम चल पड़ा था। अभिलाषा जागृत हो गयी थी। आपकी अनुपस्थिति में भी लगा कि हमारी बातें चल रही हैं। मुझे लगा मैं कह रहा हूँ मैंने १९६८ में डीएसबी नैनीताल से एम.एसी. किया था। आप कह रहे थे १९७७ में आपने किया। फिर कौन-कौन प्रध्यापक थे। हम अच्छों-अच्छों को छाँट रहे थे। सहपाठियों पर बात आ जाती थीं। आपने कहा," बी.एसी. की एक सहपाठी जो आपकी फेसबुक दोस्त भी अभी है,सुना था बहुत शराब पीती थी, फ्लैट( मैदान) के किनारे बने क्लब में।" मैंने कहा काल्पनिक बात तो नहीं है,वहाँ महिलाएं तो सामान्यतः शराब नहीं पीती हैं।उन्होंने कहा उन्हें सकलानी जी ने बताया। आगे बोले आज आपका लिखा पढ़ा ,व्हाट्सएप से भेज रहा हूँ-
"सुरेन्द्र इस बार जब नैनीताल गया तो सबसे पहले नैना देवी के मंदिर की ओर मुड़ता है।सब स्थान पुराने समय की याद दिला रहे हैं। लेकिन मंदिर में प्रवेश द्वार से जब हनुमान जी की मूर्ति पर दृष्टि पड़ती है तो उसे लगा की जिस पूर्व रूप में वह उसके अन्दर समाये हुये हैं, उस रूप में मूर्ति नहीं है। बीते वर्षों में, उसे नया रूप दे दिया गया होगा या उसके मन में वे अलग रूप में समावेश पा गये होंगे।कहा जाता है कि हनुमान जी अमर हैं और आने वाले सतयुग तक अमर रहेंगे।सुरेन्द्र मूर्तियों के सामने खड़ा हो आशीर्वाद लेता है।हम ऐसे ही झीलों, जंगलों,नदियों,पहाड़ों, आकाश, धरती से शुभ आशीर्वाद ले परिपूर्ण अनुभव करते हैं। वह पास के मैदान में बैठ ,अपने पुराने समय की रेखाओं को पढ़ने लगा।उसे याद आया वह दिन, जब वह एक छात्रा,सुरुचि से मिलने उसके छात्रावास गया था।धुँधली सी यादें उसे गहरी सोच में डालने लगे।वह सोचता है कि," भगवान मनुष्य को किसी उद्देश्य से संसार में भेजता होगा। धरती पर उसे कुछ अच्छा, कुछ बुरा, कुछ यादगार तथा कुछ प्यार, कुछ विवाद-संवाद आदि करने होते हैं।" उसे लगा जैसे वह छात्रावास की सीढ़ियां उतर रहा है।सुरुचि को उसने बता दिया है कि वह पाँच बजे उससे मिलने छात्रावास आयेगा।सुरुचि ने हाँ कर दी है।नैनीताल की ठंड प्यार को भी जमा देती है।उसके पैर छोटे बच्चों की तरह प्यार के लिये लड़खड़ाते हैं।वह छात्रावास के पास पहुँच गया है।बांज के पेड़ इधर-उधर खड़े हैं।धूप धीरे-धीरे खिसकने लगी है।सुरुचि के लिये वह प्रतीक्षा कर रहा है।वह सामान्य गति से सीढ़ियां उतरती है।गम्भीर,मुस्कान रहित।मन में रूकी।नीचे उतर,सुरेन्द्र के सामने बैठ जाती है।उद्देश्य दोनों को पता है।वही जो ईश्वर ने सबसे पहले रखा है।बात करने के लिये बहुत कुछ नहीं है।अतः सुरुचि अभी आती हूँ कहकर वहाँ से बाहर चली गयी है।अब सुरेन्द्र अकेला बैठा एक अलग लोक में प्रवेश कर गया है।उस परियों के देश में, जहाँ देखने के लिये सुन्दरता का सागर होता है।बुरुंश के फूल की तरह खिले मुखड़े।वह अपने में खोया, तपस्वी की तरह बैठा है। तभी वहाँ पर एक लड़की आती है जो उसके ननिहाल से है।उसका नाम मोती है।वह कुर्सी पर अपना हाथ टिका उससे बातें कर रही है।ननिहाल के विषय में सुरुचिपूर्ण बातें होती हैं। रानीखेत से लगभग दस मील की दूरी पर है उसका घर। एकदम उसके ननिहाल के पास।जब वह अपने ननिहाल में रहा था, तब मोटर मार्ग वहाँ के लिये नहीं था।रानीखेत पैदल जाया करते थे।कितनी कहानियां-किस्से भूतों के उस रास्ते से जुड़े थे। एक स्थान झिकड़िवान पड़ता है रास्ते में।सभी लोग कहते थे कि," भूत वहीं से पीछे पड़ता है।डराता है आने-जाने-वाले को रात में।खट-खट-खट की आवाज कर पीछे-पीछे आता है। या भैंस की तरह राँभता है। फिर एक मंदिर आता है, उसके बाद भूत राहगीर का पीछा छोड़ देता है।भूतों का भी अपना इलाका होता है।"सुरेन्द्र , मोती से इस कहानी का जिगर करता है तो वह कहती है कि," यह धारणा वहाँ आम है।" वह बी. ए. कर रही है।बहुत सुन्दर है।थोड़ी देर बाद वह चली जाती है।जब बाद में कभी बाजार में दिखती है तो एक ननिहाली मुस्कान के साथ मिलती है।लगभग आधा घंटे बाद सुरुचि आती है और उदासीनता के साथ बैठ जाती है।आज उसे याद नहीं की उन्होंने क्या बातें कीं।पर एक साथ फिर पंद्रह मिनट तक साथ-साथ बैठे रहे।सुरेन्द्र ने घड़ी देखी, एक घंटा बीत चुका है, लेकिन उसे इसका एहसास ही नहीं है।प्यार में समय नहीं देखा जाता है,उसके लिये पल भर भी बहुत है, और घंटा भी कम।उसके लिये गिनती नहीं की जाती है।वह उठा और झील के रास्ते में आ रहा है।धूप खो गयी है।वृक्षों के पत्तों से छनकर आती रश्मियां यादों में छिप गये हैं। बिना सोच-विचार, वह चल रहा है,एक अकथनीय सत्य के साथ।तब, सोचा नहीं, किसी पहिचान को कहाँ तक जाना चाहिए? जब सोचा तो देर हो चुकी है। समय के साथ सामाजिक भिन्नता हावी हो गयी है।जब हम किसी को मना करते हैं तो कहते हैं कि,"आपको हमसे अच्छा साथी या रिश्ता मिलेगा जो आपकी प्रतीक्षा कर रहा है,सुरुचिपूर्ण जीवन के लिए।" कभी-कभी यह सच हो जाता है।सुरेन्द्र को आज आकाश अधिक खुला लग रहा है।झील पहले से सुन्दर। पेड़ों से ढके रास्ते अधिक रोमांचक।उसका मन पंछी की तरह उड़, अपने घोंसलों के तिनकों को देख रहा है।हर यात्रा उसे छूती है और एक संतोष देती है कि किसी न किसी रूप में ईश्वर का काम पूरा हो रहा है।
"ईश्वर किसी को
खाली नहीं रखते हैं,
किसी को पूजा में
तो किसी को प्रार्थना में,
किसी को प्यार में
किसी को आवाज में,
व्यस्त रखते हैं।
अन्य को उबड़-खाबड़ राह में
शेष को कटीली झाड़ियों में
बहुतों को जटिलता में,
छोड़ आते हैं।
पूछ लेते हैं
सत्य की कुशल,
आवाज लगा लेते हैं
किसी को शीध्र
किसी को प्रतीक्षा के बाद,
वेश बदल, छिप जाते हैं
आँखों में आसमान बना।" "
* महेश रौतेला