SAF SAFAI in Hindi Short Stories by Ramesh Yadav books and stories PDF | साफ-सफाई

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साफ-सफाई

साफ - सफाई 


" सुनो जी दिवाली आ रही है. घर की साफ-सफाई और शॉपिंग करनी है. हर साल आप ऑफिस के नाम पर बच निकलते थे, पर इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा. इतने सालों तक मैं अकेली खटती रही मगर इस साल से हम मिल जुलकर त्यौहार मनाएंगे. आप सिर्फ नौकरी से रिटायर्ड हुए हैं मगर टायर्ड नहीं हुए हैं. सबसे पहले तो आपकी किताबों, पत्र-पत्रिकाओं तथा फाइलों से लदी-फनी तीन आलमारियों, टेबल और रेक्स की साफ-सफाई करेंगे. मैं आपकी मदद करूंगी." 

पत्नी की आवाज सुनते ही विजयराज जी को मानो साँप सूंघ गया हो. अख़बार से ध्यान हटाकर चश्में से एक कटाक्ष पत्नी पर डाली और दूसरी अपनी किताबों की आलमारियों पर. फिर कमर पर हाथ रख पूरे घर की ओर देखते हुए बोले ," लो फिर आ गई ये दिवाली! पहले तो सिर्फ जेब का दिवाला निकालती थी, इस साल से कमर भी तुड़वाएगी. अरे इसलिए रिटायर्ड हुआ हूँ क्या? इतने साल नौकरी में कोल्हू के बैल की तरह खटता रहा और अब तुम्हारे जाल में फंस गया. अब तो आराम करने दो भागवान."  

पति के कंधे पर हाथ रखते हुए - 

" सुनो जी, मैं वो सब नहीं जानती. हर साल मैं और बाई पूरे घर की साफ सफाई करती थी ना! इस साल आपका भी साथ मिल जाएगा तो और अच्छा लगेगा. आखिर हम भी तो इंसान हैं ना. चाहे कितनी भी व्यस्तता हो मगर कल आपके कमरे से काम आरंभ करते हैं. ज़रा घर के काम में भी हाथ बटाएं. देखो जरा घर की औरतें क्या क्या काम करती हैं."

दाल नहीं गलेगी, इसे भांपते हुए विजय lराज अपने मन में भुनभुनाने लगे - लो भाई पहले तो मिलकर साफ-सफाई करो, फिर खरीददारी, उसके बाद डॉक्टर की जेब भराई! ये महिलाएं भी ना, जाने कहां से इतनी ऊर्जा ले आती हैं? यहां एक कहानी, कविता या आर्टिकल लिखते समय नाक से दम निकल जाता है. ना जाने कितने संदर्भों का सहारा लेना पड़ता है और ना जाने कितनी अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है. 

काफी मेहनत, भुनभुन, आपसी बहस और तर्क-कुतर्क के साथ तीन दिनों तक साफ - सफाई का कार्यक्रम चलता रहा. कमर का तो मानो कमरा हो चुका था. पहले से ही जवाब दे चुकी थी. फिर भी विजय जी अपने कमरे में गए तो लदी-फदी आलमारियां हल्की फुलकी होकर मुस्कुरा रहीं थीं. उन्हें देखकर वे भी प्रसन्न हो गए. तभी फोन की घंटी बजी और वे बरामदे में आ गए. 

लगभग डेढ़, दो सौ किताबें और सैकड़ों पत्र - पत्रिकाएं भी बाहर बरामदे में मुस्कुरा रहीं थीं क्योंकि वे अब नए घर जाने को उत्सुक थीं. वहां उन्हें नया माहौल मिलने वाला था. मगर पुराने घर को छोड़ना भी उन्हें अखर रहा था. एक ओर खुशी तो दूसरी ओर ग़म. 

कॉलेज के पुस्तकालय के कर्मचारियों ने किताबों को जल्दी से गाड़ी में रखा और नमस्कार करके जाने लगे. गाड़ी ओझल होने तक विजय और उनकी पत्नी हिलाते रहे. लगा जैसे अपने बच्चों को बिदा कर रहें हों. कितने सालों से इन किताबों को सहेज कर रखा था. मगर घर छोटा था इसलिए उनकी मजबूरी थी. इस उम्र में उन्हें सहेजना भी एक कठिन काम था. 

किताबों को बिदा करते हुए कब उनके हाथ एक दूसरे के कंधों पर चले गए पता ही नहीं चला. दोनों की आंखें नम थीं. एक दूसरे को सहारा देते धीरे-धीरे वे अपने कमरे की ओर बढ़ गए. 

डॉ. रमेश यादव 

मुंबई. 

फोन - 9820759088 / 7977992381