लीला की बातें मेरे मन पर आघात कर रही थीं।मुझे खुद पर क्रोध आ रहा था कि क्यों समर के प्रेम में पड़ गई हूं?क्या मैंने कभी ऐसा चाहा था कि किसी स्त्री के दुःख का कारण बनूं?किसी स्त्री से उसका हक छीनू? दूसरी स्त्री कहलाऊँ?
किसी स्त्री को ये हक दूं कि वह मुझ पर अपने पति को छीनने का आरोप लगाए?नहीं ..कभी नहीं..पर परिस्थितियों ने मुझे ऐसे भंवर में डाल दिया है जो मुझे निरन्तर नीचे की ओर ले जा रही है।पति के रहते और उसके न रहने के बाद भी मुझ पर कई आरोप लगाए गए पर उससे मेरी आत्मा पर कोई बोझ नहीं डाला क्योंकि उन आरोपों में कोई सच्चाई नहीं थी।
पर समर से रिश्ते ने मुझे कटघरे में ला खड़ा कर दिया है।मैं जैसे खुद से शर्मिंदा हूँ।क्या सच ही समर से मेरा रिश्ता पाप है ...अपराध है?क्या मैंने अय्याशी के लिए तो समर को चुना है?नहीं,समर से मेरा रिश्ता गलत नहीं है क्योंकि यह सायास नहीं हुआ।ये रिश्ता वर्षों के सानिध्य का परिणाम है ।यह दो शरीरों की मांग है। दो मनों की आवाज है ये।
मैं सोचती हूँ कि आखिर क्यों स्त्री -पुरुष के रिश्ते को स्थूल दृष्टि से देखा जाता है?
क्यों रिश्तों के सूक्ष्म पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया जाता?क्यों देह सम्बन्ध को स्वाभाविक नहीं माना जाता?अगर ईश्वर की दृष्टि ने स्त्री -पुरूष के बीच देह- सम्बन्ध पाप होता तो उसने स्त्री और पुरूष के भिन्न अंग बनाए ही क्यों होते?क्यों उन अंगों को एक- दूसरे की जरूरत होती?क्यों वे एक- दूसरे के बिना अपूर्ण होते?क्यों उनका मिलन इतना आनंद,सुख और संतोष देता?
विवाह की प्रथा तो बहुत बाद में बनी,वह भी सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए और सन्तानों के पिता की पहचान के लिए ।और सबसे गूढ़ पहलू स्त्री को एक पुरूष से बांधने तथा उसकी यौन- स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए।ऊपरी तौर पर तो पुरुष भी बंधा पर एक हद तक ही।उस पर उस स्त्री के भरण- पोषण की जिम्मेदारी आई,पर उसकी यौन -स्वतंत्रता बनी रही।वह एक से अधिक विवाह करने,रखैले रखने,वेश्याओं के पास जाने,दूसरी स्त्रियों से सम्बन्ध रखने के लिए स्वतंत्र रहा।इतनी स्वतंत्रता के बाद भी वह सहमत न होने वाली स्त्रियों से बलात्कार करता रहा।मजबूर औरतों का शोषण करता रहा, यहां तक कि घर की अन्य स्त्रियों को भी अपना शिकार बनाता रहा।इतनी यौन- हिंसा करने के बाद भी उसे न तो छिनाल कहा गया ,न वेश्या।उसकी पत्नी ने सब -कुछ जानने के बाद भी उसे नहीं त्यागा।उसका पौरूष अक्षुण्ण रहा। वह राजा महाराजा,सम्राट सामंत और बादशाह बना रहा।हजारों स्त्रियों के सिर पर पैर रखकर नाचता रहा।
अगर बुरा कहें तो ये ही हुआ कि यौन- सम्बन्धों में स्त्री- पुरुष के बीच की समानता खत्म हो गई। आदम अवस्था के स्त्री -पुरुषों के बीच यौन -सम्बन्धों का आधार उनका स्वाभाविक आपसी आकर्षण और प्रेम ही था ।स्त्री -पुरूषों के बीच सम्बन्ध प्रकृति की वजह से बनते थे, थोपी हुई मान्यताएं -संस्कार के कारण नहीं।एक सहज,सरल,नेचुरल सम्बन्ध को कुछ चालाक मर्दों ने अपने स्वार्थ के मद्देनजर विकृत कर डाला।
समर से मेरा यूँ रिश्ता भी नेचुरल था पर सामाजिक मान्यताओं के तहत उसे विकृत कहा जा रहा है।
मुझे क्या करना चाहिए ?दुनिया की सुननी चाहिए या अपने मन की!
मगर लीला की बातें प्रेक्टिकल हैं।समाज में रहना है तो उसके नियमों को मानना ही पड़ेगा ,वरना सब कुछ बर्बाद हो जाएगा और उस बर्बादी का सेहरा मेरे सिर पर बंधा होगा।समर का कुछ न बिगड़ेगा।वैसे भी इस तरह के नाजायज कहे जाने वाले रिश्तों में ख़ामियाजा औरत को ही भुगतना पड़ता है मर्द को नहीं।
तो मुझे समर से दूर होना ही होगा।दिल पर पत्थर रखकर खुद को मार देना होगा।खुद से ज्यादा अपने भीतर की कामिनी को।अपनी देह की युवा इच्छाओं को।अपने मन में भड़कती ज्वाला को।प्रेम के जज्बातों को।
मैंने ये सब सोच तो लिया पर ज्यों ही समर ने आकर अपनी बाहें फैलाईं मैं खुद को रोक न सकी।समर हर बार भरे हुए बादल की तरह आता और मुझ पर बरस कर चला जाता।हम चुप रहते थे पर हमारी आँखें बोलती थीं।हमारी देह बोलती थी।कितनी अजीब बात थी कि हम दोनों के हर अंग एक- दूसरे की भाषा को समझते थे।एक -दूसरे की इच्छाओं को समझते थे।सच्चे मायने में हम एक- दूसरे में समा जाते थे और चरम -सुख को उपलब्ध होते थे।
पता नहीं इस रिश्ते का क्या परिणाम होगा?जाने कितनी जिंदगियाँ इससे प्रभवित होंगी !पर मैं भी क्या करूं?समर मेरे लिए हवा,पानी ,भोजन की तरह जरूरी हो गया है।दिन- प्रतिदिन उसके प्रति आसक्ति बढ़ती जा रही है।समर का भी वही हाल है।अब यूँ अलग -अलग रहना मुश्किल हो रहा है।
-क्या हम हमेशा साथ नहीं रह सकते?
एक दिन मैंने समर से पूछ ही लिया।
'क्यों नहीं रह सकते?आपसी सहमति से स्त्री -पुरूष एक साथ रह सकते हैं,इसकी इजाज़त तो अब कानून भी देता है।'
-पर तुम्हारी पत्नी अभी जिंदा है ।उसका तुम पर कानूनी और सामाजिक हक ज्यादा है।
'वह सिर्फ मेरे बच्चों की माँ है बस....उसके प्रति अपना दायित्व निभाता रहूंगा।'
-बच्चों के बारे में कुछ सोचा?
'बच्चे इक्कीसवीं सदी के हैं मैडम।हम दोनों से ज्यादा खुले, बेवाक और मॉर्डन।उनके लिए रिलेशनशिप कॉफी के शिप से ज्यादा महत्व नहीं रखता।अपने माँ -बाप के इतर रिश्तों को वे तब तक गम्भीरता से नहीं लेते,जब तक उनके हित बाधित न हों।उन्हें किसी बात की कमी न हो।इसलिए डोंट वरी।'
समर की बातों से मुझे राहत मिली। हम साथ रहने लगे।धीरे- धीरे मैं समर पर डिपेंड होती गई। मेरा काम बहुत अच्छा चल रहा था।पैसे की कोई कमी नहीं थी। मेरे साथ रहने ,मेरा सारा काम सम्भालने,मेरी बेहतरी के लिए प्लानिंग करने,मेरे आय -व्यय का हिसाब रखने के काम में समर इतना व्यस्त होता गया कि उसका कैरियर चौपट हो गया।उसने अपना काम छोड़ दिया।अब वह आर्थिक रूप से भी मुझ पर निर्भर था।मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा था।दरअसल मैं इस बात का हिसाब ही नहीं रखती थी कि कितना पैसा आ रहा है और किस मद में खर्च हो रहा है।
वह जो भी दस्तावेज मेरे सामने रखता ।मैं बिना पढ़े उस पर हस्ताक्षर कर देती थी।मुझे समर पर पूरा भरोसा था।
पर मेरी माँ ,भाइयों और सास राजेश्वरी देवी को समर पर भरोसा न था।उन्हें लगता था कि समर दोनों हाथों से मुझे लूट रहा है।
मुझे हर तरह से समझाने और सतर्क करने की कोशिश की जा रही थी।माँ चाहती थी कि अपनी सम्पत्ति की देख- रेख का काम अपने भाई स्वतंत्र को सौंप दूं।वह बेरोजगार है और अपना भी।सास राजेश्वरी देवी चाहती थीं कि उनके छोटे बेटे प्रथम को अपना उत्तराधिकारी बना लूँ। सभी मुझसे खासे नाराज थे कि मैंने समर जैसे पराए को अपना बना रखा है और वह अपना घर भर रहा है।
पर मैं किसी की भी सुनने को तैयार नहीं थी।