रात कितनी शांत औऱ रहस्यमयी सी होतीं हैं ?मानो काले घने अंधेरे में न जानें कितने ही राज छुपाए हुए हों ! या यूँ कहूँ की की अंधेरों को समेटे हुए यह रात एक सबक दे रहीं हो कि फिक्र न कर उम्मीद क़ायम रख , आशा की किरण लिए एक नई सुबह आएगी औऱ गम के काले घनघोर बादल छट जाएंगे ! आज मेरी आँखों में नींद का कतरा लेश मात्र भी न था। नींद आती भी तो कैसे ?
मम्मी - पापा को तो मैंने समझा दिया था पर ख़ुद को कैसे समझाती ? काश हम ख़ुद को बेवकूफ बना पाते ...झूठी तसल्ली या साँत्वना देकर ख़ुद को ढांढस बंधा पाते। अंदर से टूटकर बिखर जानें पर मन के टुकड़ों को सहेज पाते ...कितना मुश्किल होता हैं न ख़ुद को समझा पाना ..?
मेरे भीतर एक युद्ध छिड़ गया था । जिसमे मैं खुद को हारा हुआ सा महसूस कर रहीं थीं। मेरे भीतर अकेलेपन ने घर बना लिया था जो मुझें खोखला कर रहा था। मैं कब तक अकेली रहूँगी ? क्या मैं हमेशा अकेली ही रहूँगी ? क्या सपनो के राजकुमार की कहानियां महज़ मनोरंजन के लिए गढ़ी गई थीं ? ऐसे असंख्य प्रश्नों का भवँर मेरे मन के समुद्र में गोते खा रहा था। विचारों के बहाव में बहते हुए कब नींद लग गई मुझे पता ही नहीं चला ।
अगली सुबह मैं देर से जागी । दिन चढ़ गया था। खिड़की पर लगे महीन पर्दो से छन कर आती हुई गुनगुनी धूप मेरे चेहरे पर पड़ रहीं थीं । मम्मी दरवाजे के बाहर से ही दो बार चाय का पूछ चूंकि थीं । मैं उठी औऱ ड्राइंगरूम में चलीं गईं । पापा रेडियो लेकर बैठे हुए थे। उसके पुर्जे खोलकर वो इतनी शिद्दत से उसकी मरम्मत में लगे हुए थे मानो वो बरसों से रेडियो सुधारने का ही काम करते आये हो। मम्मी चमेली की बेल से फूल तोड़ रहीं थीं । मैं उनींदी सी सोफ़े पर जाकर बैठ गई औऱ पास में रखा पेपर उठाकर हैडलाइन पढ़ने लगी । तभी मेरी नजर पेपर पर लिखी तारीख पर पड़ी औऱ मेरी आंखों में बची हुई नींद छूमंतर हो गई। अचानक ही मुझमें किसी सुपरहीरो की तरह शक्ति आ गई। अरे ! आज तो स्कूल की रीयूनियन पार्टी हैं मुझें तो 12 बजे स्कूल पहुँचना हैं । मैं चिड़ियों सी फुदकती हुई अपने कमरे में आ गई । फ़टाफ़ट नहा - धोकर तैयार होकर फिर से ड्राइंगरूम में आ गई। मम्मी अब भी बाहर ही थीं । मैंने पापा से अपनी स्कूटी की चाबी मांगी तो वो बोले - बेटा कार ही ले जा । मौसम भी आज कुछ बिगड़ा हुआ हैं शायद बारिश हों... मैंने पापा का तकिया कलाम कहते हुए मुस्कुराकर कहा - " भोपाल की तंग गलियों से जब गुजरना हो तब उड़नखटोला ही काम आता हैं कार नहीं "
स्कूटी की चाबी लेकर मैं फुर्ती से बाहर निकल गई। मम्मी मुझसें कहने लगीं - " बेटा चाय " ?
स्कूटी को स्टार्ट करके मैंने कहा - " चाय नहीं अब बाय " शाम को लौटूँगी ।
मैं स्कूल की औऱ दौड़ती हुई सड़क पर अपनी स्कूटी दौड़ा रहीं थीं । मुझें अपने पुराने स्कूल के दिन याद आ गए। कितने रूमानी थें वो दिन बिल्कुल फूलों जैसे कोमल , तितलियों जैसे चंचल, झरनों जैसे निर्मल ! ऐसे ही स्कूटी से मैं स्कूल जाया करतीं थीं। मन समुद्र की लहरों की तरह हिलोरें ले रहा था! स्कूल का यह रास्ता अब भी उतना ही सुहावना हैं। सड़क के दोनों तरफ लगें पेड़ बहुत ही खूबसूरत लग रहें थे ।आज मैं अपने सभी पुराने दोस्तों से मिलूँगी ।आज सूरज लुका- छुपी खेल रहा हैं। लगता हैं मुझसें नाराज़ हैं - कि अपने पुराने दोस्तों से मिलने जा रहीं हो औऱ मेरी तो आज कोई पूछपरख ही नहीं हुई। बादलों के पीछे छुपे सूरज की औऱ एक नज़र देखकर मैं मन ही मन मुस्काई औऱ कहा - सॉरी दोस्त आज तुम नाराज़ ही रहो ! तुम्हारी ये नाराजगी भी सर आँखों पर क्योंकि तुम्हारे यूँ छुप जानें से मौसम कितना ख़ुशनुमा हो गया हैं । मौसम का मिजाज देखकर मैंने अपनी स्कूटी सड़क के किनारे रोकी औऱ फ़ोन को ब्लूटूथ से कनेक्ट करके फोन में गाना लगा दिया - मौसम मस्ताना , रस्ता अनजाना , जाने कब किस मोड़ पे बन जाये कोई अफ़साना....
गाने की समाप्ति मेरे स्कूल के गेट नम्बर 3 पर हुई। मैंने ब्लूटूथ कान से हटाया औऱ बेग में रख लिया। औऱ स्कूटी को पार्क करके मैं लाईब्रेरी से गुजरती हुई प्ले ग्राउंड के बीचों-बीच चलती हुई चारों औऱ देखते हुए बढ़ती जा रहीं थीं। वही केन्टिंग , वही प्ले ग्राउंड , वहीं पेड़ सब कुछ बिल्कुल वैसा का वैसा था जैसा 2004 में हुआ करता था। क्या मेरे सभी दोस्त भी वेसे के वैसे ही होंगे ? कैसी होंगी वह दुबली-पतली रीटा जिसको हम अगरबत्ती कहा करतें थें औऱ वह गोलूमोलू सा स्वप्निल जिसे सब ढोल कहते थे ? क्या हैंडसम सा दिखने वाला वो मयंक जो हीरो बनना चाहता था...वह हीरो बन गया होगा ?
बेंच नम्बर 2004 की पार्टी शिवाजी सभागृह में चल रहीं थीं। मेरे कदम शिवाजी सभागृह की औऱ बढ़ गए। सभागृह में छोटा सा म्युजिकल परफॉर्मेंस चल रहा था। कुछ लोग ग्रुप बनाकर बैठें हुए थे जो मंच पर खड़े लड़के की लय में लय मिलाकर गाना गा रहें थें । मैं हर एक चेहरे को गौर से देख रहीं थीं । संजना दौड़कर आई औऱ मुझसें लिपटकर बोली - " यक़ीन ही नहीं था कि तुम आओगी "
मैंने कहा - " भई तुमसे मिलने के लिए तो सात सुमद्र पार से भी आना पड़ता तो भी आती "
अमित सर मेरी औऱ ही आ रहे थे उनको आता देखकर मैं भी उनकी औऱ बढ़ी औऱ सर के पैर छुए तो वो भावुक होकर बोले - " तुम आज भी मेरी फेवरेट स्टुडेंट हों "
कुछ देर की झिझक के बाद सभागृह में मौजूद सभी पुराने दोस्तों से पुराने अंदाज में बात होने लगीं । हम एकदूसरे को पूराने नामों से पुकारने लगें। पर अब वह अगरबत्ती रीटा फूलकर कुप्पा हो चूँकि थीं औऱ ढोल जैसे शरीर वाला स्वप्निल सूखकर पतला पापड़ बन चुंका था। औऱ मयंक अब उतना हैंडसम नहीं रहा वह हीरो नहीं बल्कि हीरो मोटर्स कम्पनी में मैनेजर बन गया हैं।
सबसे मिलने के बाद भी मेरी ख़ुशी आधी लग रहीं थीं। मेरी नजरें हर तरफ आनंद को ढूंढ रही थीं।
आनंद से दोस्ती टूटे सालों बीत गए। मुझें कभी मलाल भी नहीं हुआ उससे दोस्ती टूट जानें पर। लेकिन आज उसकी कमी खल रहीं थीं। वह मेरा सबसे अच्छा दोस्त हुआ करता था। एक ऐसा दोस्त जिससे मैं हर बात शेयर किया करतीं थीं।
मुझें अपने ही ख्यालों में खोया देखकर संजना बोली - " ओ मैडम कहाँ खो गई , चल न कुछ खाते हैं , बड़ी जोरों की भूख लगीं हैं "
मैं संजना के साथ फ़ूड स्टॉल की औऱ गई। संजना ने मुझसें पूछे बिना ही करेले की सब्जी मेरी प्लेट में रखते हुए कहा - "खाना चाहिए गुड फ़ॉर हेल्थ"
मैंने संजना को गुस्से से ऐसे घूरकर देखा मानो उसकी इस हरकत पर मैं उसे कच्चा ही चबा जाऊँगी। हमने खाना शुरू किया। मैंने जैसे ही करेले की सब्ज़ी का निवाला मुहँ मैं डाला - मंच से अमित सर का अनाउंसमेंट सुनाई दिया - " डिअर स्टूडेंट्स दिल थाम कर रखियेगा क्योंकि अब आ रहें हैं हमारी बेंच के किशोर कुमार " - 'आनंद उपाध्याय '
यह सुनकर करेले की कड़वाहट की जगह मेरे मुहँ में मानो मिठास घुल गई। मेरी नजरें मंच के पास लगें दरवाजे पर जा टिकी। हवा की फुर्ती सा दरवाजे से आनंद आया औऱ मंच पर चढ़ गया। माईक को हाथ में लिए हुए वह भीड़ की औऱ देखते हुए बोला - देरी से आने के लिए माफ़ी चाहूंगा दोस्तों । पहले गाना फिर खाना उसके बाद आप सबसे मुलाकात करूंगा। उसकी इस बात से सभागृह ठहाको से गूँज उठा। उसने वही गाना गाया जो वह स्कूल की केन्टिंग में गाया करता था - ओ साथी रे तेरे बिना भी क्या जीना ...
शेष अगले भाग में....