जिस तरह टेक ऑफ़ के समय ज़मीन से उठता हुआ प्लेन मेरे मन को रोमांचित कर रहा था ठीक उसी तरह टच डाउन के समय जब प्लेन के पहियों ने मेरे अपने शहर भोपाल की ज़मीन को छुआ तो एक सरसरी सी तरंग किसी स्वर लहरी की माफ़िक मेरे शरीर में दौड़ने लगीं । औऱ जिसके यू दौड़ने से मेरे दिल के तार बज उठें थे। टच डाउन के समय लगा जैसे लौट आई हूँ अपने पुराने संसार में । अब यादों के गढ़े ख़ज़ाने को खोदूँगी औऱ अपने पुराने दिनों को फिर से जीभरकर जियूंगी ।
मैं अब राजाभोज एयरपोर्ट पर खड़ी थीं । मैंने चारों औऱ नज़र दौड़ाई । मेरी नजरे किसी उत्सुक छोटे बच्चे की तरह मानो सब जगह दौड़ कर मुआयना कर आई थीं । सब कुछ वैसा ही था जैसा मैं लास्ट विजिट पर छोड़कर गई थीं । हवाएं अपनेपन का पैगाम ला रहीं थीं । बहुत सुकून था इस पल में ।
एयरपोर्ट से बाहर निकलकर मैंने टेक्सी लीं। टेक्सी की खिड़की से मैं इस तरह सटकर बैठ गई मानो पूरे शहर को सिर्फ देख लेने भर से ख़ुद में समेट लूँगी। ज़्यादा कुछ नहीं बदला था। बस कुछ दुकानें जो छोटी थी अब बहुत ऊंची हो गई थीं । लगता हैं उन दुकानों का भी प्रमोशन हो गया था।
रात क़रीब 9 : 30 बजे मैं अपने घर पहुँची । घर के लोहे के गेट के पास की क्यारी में मेरे द्वारा
लगाई हुई चमेली की बेल अब बहुत फैल गई थीं।उसकी शाखाएँ हवा के झोंकों से लोहे के गेट के बाहर आती ऐसी जान पड़ती थीं मानो मेरे घर आने पर आगे बढ़कर मेरा स्वागत कर रहीं हो ।
मैंने गेट खोला औऱ उसकी आवाज़ सुनकर पापा दौड़कर बाहर आए , उनके पीछे आरती की थाल लिए मम्मी भी आई।
आरती की थाल को देखकर मैंने खुद से ही प्रश्न किया - " यह स्वागत मेरे घर आने पर हैं या फिर शादी के लिए मान जानें पर " ?
कभी - कभी मम्मी मुझें बिल्कुल हिंदी फिल्मों के आलोकनाथ की तरह लगतीं ।
खैर स्वागत सत्कार के बाद मैं मम्मी - पापा से मिली। अपने घर आकर मुझें लग रहा था जैसे मैं स्वर्ग में आ गई हुँ । मैं कोई परी हुँ औऱ अपने मैजिक विंग्स से यहाँ - वहाँ उड़ती फिरूँगी।
मम्मी ने मेरी पसन्द के दाल बाफले औऱ लड्डू बनाए थे साथ में पुदीना औऱ धनिया की चटनी भी थीं। बहुत दिनो बाद मम्मी के हाथ का बना हुआ खाना ख़ाकर मैं अपनी डायटिंग को भूल ही गई।
मैंने इतना ज़्यादा खा लिया था कि शायद हाजमोला की गोली भी मुझें नहीं बचा सकती थीं।
घर आकर मैं भूल ही गई थीं कि मैं किसी मल्टीनेशनल कंपनी की वॉइस प्रेसिडेंट हुँ ।
मेरी बातों में सधे हुए औपचारिक शब्द न होकर मालवी भाषा की मिठास घुल गई थीं । मेरे पास तो सिर्फ ऑफिस की ही चर्चा थी जिसको सुनने में मम्मी की दिलचस्पी नहीं थीं । पर मम्मी के पास तो बातों का पिटारा था जिसमे से कभी हँसी के गुब्बारे निकलतें तो कभी कोई गम्भीर बात।
2 घण्टे के इंडिगो फ्लाइट के सफ़र से लेकर घर तक मैं सिर्फ सुन ही रहीं थीं। मुझें सुनना अच्छा लग रहा था। इन पलों को मैं बेंगलोर में बहुत मिस करतीं थीं । देर रात तक मैं औऱ मम्मी जमानेभर की बातें करतें रहें । जैसे आज ही सारी बातें कर लेना बहुत जरूरी था। जब मैं औऱ मम्मी दोनों थककर चूर हो गए तब हम नींद के आग़ोश में कब खो गए पता ही नहीं चला।
सुबह करीब 10 बजे मेरी नींद खुली । कमरे की खिड़कीयो पर लगे पर्दों की औट से झाँकता सूरज मुझसे कह रहा था। दिन चढ़ने को आया हैं ! अब उठ भी जा ! अलसाई सी मैं हॉल में जाकर बैठ गईं । पापा पेपर पढ़ रहें थे औऱ मम्मी किचन में थीं । मम्मी ने किचन से ही आवाज़ लगाकर मुझसे कहा चाय ले आऊं ? मैंने कहा - " नही पहले मैं ब्रश करूँगी " ।
थोड़ी देर बाद मैं नहा - धोकर किचन में गई । मैंने अपनी चाय गर्म की औऱ वहीं किचन स्टेण्ड पर खाली जगह पर चढ़कर अपने पैरों को लटकाए हुए बैठ गई। एक समय था जब में मैं इसी जगह पर बैठकर मम्मी के किचन कार्यो में मदद किया करतीं थी।
मम्मी ने मुझसे कहा - बेटा वो लोग आज दोपहर 12 : 30 या 1 बजे तक आएंगे। तू तैयार हो जाना।
शुक्र हैं मम्मी ने यह बात मेरी चाय खत्म होने के बाद कही थीं वरना मेरी चाय का मज़ा ही किरकिरा हो जाता। मैंने मम्मी से कहा - " इतनी भी क्या जल्दी थी ? अभी तो मैं सप्ताहभर यहाँ हुँ "
मम्मी ने आँखों मे चमक लाते हुए कहा - " इसीलिए तो आज बुलवा लिया उन लोगों को ताकि लड़का पसन्द आते ही इसी सप्ताह सगाई कर दे "
यह सुनकर तो मुझें लगा जैसे मेरे दिलरूपी नागासाकी औऱ दिमागरूपी हिरोशिमा पर परमाणु बम गिरा दिया गया हो।
मम्मी के इस तानाशाही रवैया का कोई हल भी तो नहीं था मेरे पास । अब मुझें लग रहा था कि मैं लड़का देखने नहीं किसी जंग पर जा रहीं हुँ जहाँ से मेरे अरमान जिंदा लौटकर आएंगे या फिर दफ़न हो जाएंगे।
मैं हॉल में थीं औऱ टीवी देख रहीं थीं । तभी मम्मी हँसते हुए आई औऱ घड़ी की औऱ इशारा करके मेरी तरफ़ शरारतभरी नज़रों से देखा । जैसे कह रहीं हो - आज तेरी खैर नहीं हैं बेटा।
मैं बेमन से तैयार होने चली गईं । मेरे मन के किसी कोने में सुप्तावस्था में पड़ा हुआ बच्चा जाग गया औऱ मुझें बार - बार बेढंगा मेकअप करने को प्रेरित करने लगा। जिसको देखकर आने वाला वो लड़का उल्टे पैर ही लौट जाए। पर ऐसा कुछ भी कर पाना सम्भव नहीं था। मैंने अपने चेहरे पर बेसकोट लगाया उसके बाद फाउंडेशन फिर कंसीलर , थोड़ा फेस पॉउडर , आँखों पर काजल की एक पतली सी लाइन खींच दी उसके बाद पलकों पर मस्कारा अप्लाई किया। फिर होठों पर लिप ग्लास औऱ हल्की पिंक लिपस्टिक लगाई। माथे पर अपनी ड्रेस से मैच खाती छोटी सी बिंदी सजाई औऱ बालों में क्लचर लगा कर उन्हें खुला छोड़ दिया। अंत में अपने बनारसी दुप्पटे को कंधे पर एक तरफ़ सलीके से डाल लिया।
मैंने इस तरह से खुद को आख़िरी बार कॉलेज की फेयरवेल पार्टी में सँवारा था। फेयरवेल पार्टी से एक चेहरा मेरी आँखों में घूमने लगा - आनंद का चेहरा ! मेरा सबसे अच्छा दोस्त । अब कहा होगा वह ? क्या स्कूल रियूनियन पार्टी में आएगा ?
तभी मम्मी कमरे में आई और नज़र न लगें कहते हुए मम्मी बलैया लेने लगीं । तभी बाहर गाड़ी की आवाज़ आई जिसे सुनकर मम्मी ने कहा - लगता है वो लोग आ गए। मैं जाती हूँ । जब बुलाऊ तब तू आ जाना। कहते हुए मम्मी फुर्ती से चली गई।
मैंने अपने कमरे की खिड़की से देखा तो घर के ठीक सामने ब्लैक कलर की लैंड क्रूज़र गाड़ी खड़ी थीं । गाड़ी से तीन लोग बाहर निकलें । एक आंटी लगभग 45 की उम्र की , 50 के लगभग उम्र के एक अंकल औऱ मेरी ही उम्र का एक हैण्डसम नोजवान था। मम्मी - पापा हाथ जोड़कर उनकी आवभगत करतें हुए मेज़बानी कर रहें थें। वे लोग अब घर में प्रवेश कर चूंके थे। थोड़ी ही देर बाद मम्मी ने मुझें बुलाया। मैंने अंकल - आंटी को नमस्ते कहकर अभिवादन किया औऱ खाली पड़े सोफ़े पर बैठ गईं । अंकल ने मेरे बारे में पूछताछ शुरू कर दी। मैंने अपने बारे में बताया तो वह चौकते हुए बोले - गोल्ड मेडलिस्ट हो । आंटी कहने लगीं - भई हमने तो सुना हैं पढ़ी-लिखी लड़कियां गृहकार्य में उतनी दक्ष नहीं होतीं ? क्या ये सच हैं ?
मैं कुछ कहती उसके पहले ही मम्मी ने मेरी तारीफ़ों के पुल बाँधते हुए कहा - जी हमारी मालिनी तो हर कार्य मे दक्ष हैं , ऐसा कोई काम शायद ही हो जो इसे न आता हो। पढ़ाई के साथ - साथ खेलकूद , मेहंदी , रंगोली , चित्रकारी सब कला में अव्वल रहीं है। दीवारों की औऱ हाथ को घुमाते हुए मम्मी ने कहा - ये सारी पेंटिग्स मालिनी ने ही बनाई हैं ।
आंटी बोली - बहुत बढ़िया ! दीदी ये तो आपके संस्कार हैं जो आपने अपनी बेटी को सर्वगुण सम्पन्न बनाया हैं। हमे अपने बेटे सुदर्शन के लिए ऐसी ही लड़की की तलाश थीं।
मम्मी इस बात पर इतनी ख़ुश हुई कि उठकर मिठाई की प्लेट आंटी की औऱ इस कदर कर दी मानो रिश्ता पक्का ही समझो ।
अंकल मुझसें बोले - देखों बेटा , बात ये हैं कि हमारे बाप- दादाओं ने इतनी सम्पत्ति छोड़ दी कि हमारी सात पुश्ते भी अगर मतकमऊ निकले तो भी आरामदायक जिंदगी जी ले। सुदर्शन का पढ़ाई में शुरू से ही मन कम लगा। वह तुम्हारे जितना पढ़ा लिखा तो नहीं हैं पर हैं तो आख़िर मालिक ही न ? पढ़ाई के बाद भी इंसान करता तो जॉब ही हैं।
मैं इस बात पर कुछ नहीं बोलीं । लेक़िन मम्मी - पापा अंकल की बात से पूर्णतया सहमत नजर आए।
आंटी बोली बेटा तुम दोनों अगर चाहो तो अकेले में बात कर सकते हो , मन में कोई प्रश्न हो तो पूछ लो ? मैंने ना में सिर हिला दिया। पर लड़का शायद मुझसे कुछ पूछना चाहता था। अगले ही पल मैं औऱ वह लड़का मेरे कमरे में थे। मेरी नज़रों में वह लड़का महज़ एक चाबी भरा खिलौना था। जो अपने माता - पिता द्वारा संचालित होता। माता-पिता के कहे अनुसार रहना तो बहुत अच्छी बात हैं लेकिन ख़ुद का वजूद होना भी ज़रूरी हैं।
वह लड़का मुझसे बोला । आप बैंगलोर में अकेली रहतीं हैं ? मैंने कहा - " जी "
उसने अगला सवाल दागा - फिर तो बॉयफ्रेंड भी होगा ? मैंने कहा - " नहीं "
वह हँसकर बोला फिर तो बेंगलुरू के सभी लड़के गधे हैं । इतनी खूबसूरत लड़की वो भी सिंगल ?
मैं उसकी इस बात पर चुप रहीं । मैं अक्सर गुस्से पर काबू रखने के लिए मौन धारण कर लिया करतीं हुँ।
लड़का बोला मेरी तो कई गर्ल फ़्रेंड्स रहीं हैं । मुझें कॉकटेल पार्टी पसन्द हैं । अक्सर पब में अनजान लड़कियों से जान पहचान हो जाया करती हैं।
खैर आपसे क्या छुपाना । मेरा ऐसा मानना हैं कि किसी भी रिश्ते को शुरू करने से पहले ख़ुद के बारे में सारे सच बता दिए जाने चाहिए। ताकि सामने वाला हम जो हैं उसी रुप में हमें स्वीकार कर सकें ।
लड़के के साथ हुई पूरी बातचीत के दौरान में मन ही मन उससे चिढ़ती रहीं पर उसकी कही सिर्फ यहीं बात मेरे दिल को छू गईं।
शेष अगले भाग में.....