Devil's Queen - 7 in Hindi Drama by Poonam Sharma books and stories PDF | डेविल्स क्वीन - भाग 7

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डेविल्स क्वीन - भाग 7

“आप यह गलत कर रहें हैं, पापा। क्या आप सच में जानते भी हैं इन्हें? अचानक कहां से आ गए यह और मेरी आज़ादी छीन ने की कोशिश कर रहें हैं। मैं नहीं मानती कुछ भी।” अनाहिता बौखला गई थी। उसे कुछ समझ नही आ रहा था। जो कुछ भी उसने इन दो सालों में किया था अपनी आज़ादी के लिए वो सब पानी हो गया था।

अनाहिता ने वोही स्कूल में पढ़ाई की थी जो उन्होंने उसके लिए चुना था। उसी कॉलेज में भी पढ़ाई की जो उसके पिता ने चूज़ किया था। यहाँ तक की कोर्स भी वोही चुना था जो उसके पिता ने कहा था। और तो और उसके दोस्त भी उसके पिता चुनते थे, सिर्फ उन्ही के साथ ही वोह बाहर घूम सकती थी।

यह सब उसने सिर्फ आज़ादी के लिए किया था। क्योंकि उसके पिता ने कहा था की अगर मेरे मुताबिक रहोगी तो ग्रेजुएशन के बाद तुम्हे इस घर से उनकी जिंदगी से आज़ाद कर देंगे। फिर वोह अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जी सकेगी। वोह बाहर कहीं पर भी जाने के लिए आज़ाद रहेगी।

पर अनाहिता को यह नही पता था की घर से आज़ादी का मतलब यह है। वोह अपने पिता की बेड़ियां तोड़ने की कोशिश कर रही थी पर उसे नही पता था की उसके पिता की बेड़ियां तोड़ कर उसे किसी और के बंधन में जाना पड़ेगा।

अनाहिता अभिमन्यु को नहीं जानती थी। पर जितना उसने इन दो मुलाकातों में समझा था, अभिमन्यु एक गंभीर किस्म का इंसान था। अनाहिता को डर था की जैसे अब तक अपनी जिंदगी काटी थी वैसे ही बाकी की जिंदगी भर भी काटनी पड़ी तो क्या होगा? कैसे जिएगी वोह?

अब उसे ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने l उसके पैरों तले ज़मीन ही खिसका दी हो। अभी जो कुछ भी हो रहा था वोह कोई सिंपल बातचीत नही हो रही थी, बल्कि उसे धमकाया जा रहा था। उसे बस फरमान सुना दिया गया था जो की उसे मानना था जैसे उसका कोई अस्तित्व ही ना हो, अपनी कुछ इच्छाएं ही ना हो। बस वोह किसी दरवाज़े का पायदान हो जो एक दरवाज़े से हट कर अब दूसरे दरवाज़े पर बिछने जा रही हो।

नही। बिलकुल नहीं। वोह ऐसे अपनी जिंदगी नही काट सकती थी। वोह कोई बेजान खिलौना नही थी। जीती जागती इंसान थी।

यह उसकी अपनी जिंदगी थी।

उसके पिता अपनी आँखें छोटी छोटी किए उसे घूरने लगे। वोह समझ चुकी थी की अब उसे एक और सज़ा झेलनी पड़ेगी। पर अब वोह तैयार थी चाहे कितनी भी सज़ा मिल जाए, अब उसे कोई फर्क नही पड़ता था।

उसे हक था अपनी जिंदगी जीने का। उसे हक था अपनी जिंदगी अपने मुताबिक जीने का। उसे हक था यह जानने का की उसके साथ यह सब क्या हो रहा है? उसकी जिंदगी के साथ यह सब क्या हो रहा है? क्यों उसे बस फरमान सुना दिया जाता है।

“मैं जानता हूं की मैं क्या कर रहा हूं। और जितनी जरूरत है मैं उसके बारे में भी जनता हूं। अब मिस्टर अभिमन्यु ओबरॉय को यह मत दिखाओ की तुम कितनी अशिष्ट हो, जो अपने पिता की बात बार बार काट कर सवाल पर सवाल किए जा रही हो। जाओ यहाँ से और सामना बांधो। अब और कोई बहस नही।” विजयराज जी ने उसे हाथों के इशारे से बाहर जाने का रास्ता दिखाया।

बस मीटिंग खतम करने का अल्टिमेटम मिल चुका था उसे।

बीते सालों में उसके पिता का व्यवहार उसके लिए दिन ब दिन रूखा होता जा रहा था। वोह समझती थी। उसकी तरफ देखना भी उसके पिता के लिए कितना मुश्किल था। वोह अपनी माँ के जैसे ही लगती थी। उसकी शक्ल उनसे काफी मिलती थी। और वोह अनाहिता को कभी माफ नहीं कर पा रहे थे।

सिर्फ अनाहिता ने ही अपनी बहन और अपनी माँ को नही खोया था बल्कि उसके पिता ने भी अपनी पत्नी और अपनी बेटी को खोया था।

चाहे विजयराज जी ने अपने काम को अपने परिवार से हमेशा ही ज्यादा अहमियत दी थी। पर फिर भी दुख तो उन्हे भी था। पर अब जो वोह कर रहे थे वोह सबसे अलग था। जितनी भी सजाएं उन्होंने अनाहिता बचपन से अब तक दी थी, उस से अलग आज वोह उसे किसी अजनबी को सौंप रहे थे।

यह बात अनाहिता हज़म नहीं कर पा रही थी। उसके पिता उसके साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं।

अनाहिता के आँखों में अब आँसू बाहर आने को धमकाने लगे। इससे पहले की देखता अनाहिता पलट गई। वोह दरवाज़े की ओर बढ़ने लगी। वोह अपने दुख और डर दोनो को ही छुपाने की कोशिश कर रही थी।

“अनाहिता,” किसी की आवाज़ सुन कर अनाहिता के कदम रुक गए।

वोह हल्का सा पलटी और इंतजार करने लगी आगे सुनने के लिए।

“तुमसे दुबारा मिल कर अच्छा लगा,” अभिमन्यु के शब्द कानों में पड़ते ही अनाहिता के जबड़े भींच गए, नसें तन गई, मुट्ठी कस गई।

बिना एक और शब्द कहे वोह तेज़ कदमों से बाहर निकल गई। वोह सीढियां चढ़ती हुई सीधे अपने कमरे में पहुँची। उसका शरीर काँप रहा था। नीचे बहुत मुश्किल से वोह अपने आप को संभाली हुई थी। पर अब यहाँ कोई नही था।

उसे संभालने ले लिए ना नीचे कोई था, ना यहाँ ऊपर कोई था। वोह बस अकेली थी। कोई सहारा नही था उसका।

उसने अपने कमरे में चारों ओर देखा। ऐसा कुछ नही था जो सच में उसका हो। हर चीज़ तो उस से छीन ली जाती थी। चाहे कोई उसका खिलौना हो या कोई इंसान, हर चीज़ उस से छीन ली जाती थी उसे सज़ा देने के लिए, उसे मजबूर करने के लिए, उसे तोड़ने के लिए।

उसने अब और ज्यादा नहीं सोचा और अपना एक छोटा सा बैग उठा लिया। उसने उसमें अपने कुछ कपड़े और जरूरी सामान रखना शुरू किया।

आखिर उसके पास अब कोई चारा भी तो नहीं था। यह उसके साथ पहले बार नही हो रहा था की उसे सज़ा दी जा रही थी, उसे उसकी मर्ज़ी के खिलाफ़ कुछ करवाया जा रहा था, पर इस बार कुछ अलग था जिस वजह से अनाहिता थोड़ा घबरा रही थी।

इस बार उसे कुछ अलग ही महसूस हो रहा था। कुछ अनुचित घटने वाला था।

उसे एक राक्षस के चंगुल से निकाल कर दूसरे राक्षस के जाल में फंसाया जा रहा था।











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कहानी अगले भाग में जारी रहेगी...
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©पूनम शर्मा