Darshinek Drashti - 3 in Hindi Philosophy by बिट्टू श्री दार्शनिक books and stories PDF | दार्शनिक दृष्टि - भाग -3 - ब्याह कब ? आमदनी के बाद या पहले ?

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दार्शनिक दृष्टि - भाग -3 - ब्याह कब ? आमदनी के बाद या पहले ?

आज के शिक्षित समाज की यह विचार धारा बढ़ रही है की पढ़ाई पूरी होने के बाद अच्छी आमदनी होने लगे तब जा कर लड़के और लड़की के ब्याह के विषय में सोचा जाता है।

वैसे यह आवश्यक भी है की विवाह उपरांत जीवन चलाने के लिए धन होना अनिवार्य है। यहां धन की अपेक्षा संसाधन होना अधिक इच्छनीय है। आज के समय में संसाधन प्राप्त करने के लिए भी धन की ही अवश्यकता रहती है। स्त्री से धन संसाधन की अपेक्षा करी नहीं जाती और पुरूष यदि उसके लिए प्रयास करे तो उसके प्रयासों पर किसी कारण कोई विश्वास नहीं करता, उसे कोई सहकार और समर्थन नहीं होता। जहां पुरूष के प्रयासों का सम्मान हुआ है, उसे समर्थन और सहयोग मिला है वहां परिवार, समाज और देश की प्रगति निश्चित ही हुई है।

यह देखा गया है की जो युवा लोग अपनी उच्च शिक्षा के लिए किसी ऐसी संस्था में जाते हैं जहां स्त्री और पुरुष छात्र साथ में अभ्यास करते हो, साथ में आते जाते हो, साथ में भोजन भी करते हो तो ऐसे में उनके बीच विश्वास, छोटी मोटी आपसी तकरार आदि होते है। वे भिन्न विचार का स्वीकार करना और स्वयं से निर्णय लेने की क्षमता विकसित करते है। ऐसे में समान्य परिस्थिति में अधिकतर साथ रहने वाले युवक और युवती में आकर्षण होता ही है जो की कुछ वक्त पश्चात प्रेम में परिवर्तित हो ही जाता है।

ऐसे में एक स्त्री किसी अज्ञात पुरुष पर विश्वास जताती है। यह घटना इस बात का संकेत माना जाता है की वह पुरुष विश्वास के योग्य है। जब कोई युवा स्त्री किसी युवा पुरुष पर विश्वास करती है तब उस युवा पुरुष का स्वयं का आत्मविश्वास और उत्साह भी बढ़ता है। जिससे अन्य लोग भी इस युवा पुरुष पर विश्वास कर के उसको अपने कार्य के लिए उचित समझते है। ऐसे में न तो स्त्री की कोई आमदनी होती है न ही पुरुष की। किंतु इस समय यह दोनो विश्वास, जिम्मेदारी, चरित्र निर्माण कोई अन्य बाहरी रोक टोक अथवा दबाव के सीखते है। ऐसे में यदि वे अपने माता पिता अथवा अन्य किसी बुजुर्ग या बड़ो की बातों से केवल अध्ययन पे ध्यान केंद्रित करे तो यह युवाओं की काम शक्ति उन्हे अंदर से अत्यंत ही परेशान कर देंगी। यह शक्ति को संतुलित करना आवश्यक है। यदि यह शक्ति संतुलित न हुई तो युवा न सही से आराम करेगा न सही से अध्ययन करेगा न ही स्वस्थ रह पाएगा। यदि वह अध्ययन कर भी लेता है तो उसके व्यवहारू चरित्र का निर्माण कार्य हमेशा के लिए अधूरा रह जायेगा। और युवा समाज के लिए धारणाएं बनाने लगेगा। यदि युवा स्त्री - पुरुष प्रेम में होते है तो लोग उन्हे लफड़ेबाज समझ कर उन्हे नीच दृष्टि से देखते है। जब कोई १-२ व्यक्ति इस तरह से उन्हे देखते है तो उनमें अकारण ही अपराधभाव उत्पन होता है। वे स्वयं को अपराधी समझने लगते है और स्वयं का विश्वास खोते है। तब उनकी अधोगति निश्चित हो जाती है।

जब युवाओं की शिक्षा पूर्ण हो जाती है, तब उनकी युवावस्था और काम ऊर्जा अपने चरम पर होती है और उनकी आमदनी का संपूर्ण विश्वास योग्य कोई स्रोत नहीं होता। जिनकी कोई सुव्यवस्थित आमदनी होती है वे गृहस्थी होते है। जो की अपनी युवावस्था के अंतिम चरण में होते है अथवा वृद्ध हो चुके होते है।

यदि युवा पुरुष का परिवार पहले ही धनी हो, उनके परिवार में सब किसी न किसी तंत्र के मालिक हो तो युवा पुरुष को आमदनी की चिंता नहीं होती। वह केवल अपना अभ्यास पूर्ण कर अच्छी आय वाला तंत्र का मालिक ही बनेता है और जल्द ही अच्छी आय करने लगता है। यह आय किसी नौकरी के पगार से कई अधिक होता है। किंतु जब सामान्य वर्ग के युवा पुरुषों की बात करे तो, उनके पास तैयार आय का कोई स्रोत नहीं होता। उन पर यह बोझ रहता ही है की उन्हे अच्छी आय की आवश्यकता है। उसके साथ साथ उन युवा पुरुषों के माता - पिता भी संतान के विवाह के खर्च के लिए तैयार नहीं होते। युवा पुरुष सामान्यत: इन परिस्थियों से अवगत हो ही जाते है। दूसरी ओर युवा स्त्री और उस स्त्री के माता - पिता भी उस कम आयु के युवक से अच्छी खासी आमदनी की अपेक्षा रखते है जहां उसने अभी अभी कही किसी का नौकर बनकर आमदनी की शुरुआत करी है।

यहां युवाओं की ऊर्जा उनकी आमदनी की अपेक्षा नहीं रखती। उसका समाज के कल्याण में उपयोग अथवा उसका संतुलन बनाना आवश्यक हो जाता है। यथा समय ऐसा न होने पर युवा अपना व्यवहार किसी कारण संभाल नहीं पाता। वह अपनी वाणी और वर्तन में यथा आवश्यक बदलाव न ला पाने के कारण समाज में घृणा और अविश्वास का पात्र अकारण ही बन जाता है। ऐसे में वह स्वयं से निर्णय न ले पाने के कारण आर्थिक संकटों से घिरे रहने के कारण आजीवन किसी के यहां नौकर बन कर जीवन का अधिकतर समय आर्थिक संकटों में ही काट लेता है। जिसकी वजह से वह असंतुष्ट जीवन जीता है और समाज में घृणित जीवन जीता है। जिसका कोई सुव्यवस्थित कारण नहीं होता।

यदि मानवीय संदर्भ देखे तो किसी भी युवा स्त्री और युवा पुरुष का विवाह तब होना आवश्यक होता है जब वे प्रेम में हो। ऐसे में वे आनंद पूर्वक स्वयं को संतुलित रख पाते है, स्वयं और अन्य के विश्वास योग्य बनने के कारण वे कार्यों में प्रगति करते रहते है। युवाओं के विवाह में समाज के बड़े बुजुर्गो द्वारा युवा पुरुषों से आमदनी की अपेक्षा रखना ही मूर्खता है। यह आमदनी की अपेक्षा स्वार्थ का चिन्ह बनता है। जहां स्वार्थ का अंश मात्र भी हो वहां प्रेम नहीं होता और जहां प्रेम नहीं वहां घृणा और तिरस्कार उत्पन्न होने से वह घर, समाज और देश के लोग बिखर के नष्ट होने लगते है। उनके पास धन, धान्य, संपत्ति आदि का बंटवारा होने लगता है। यह घटना आने वाली पीढ़ी को किसी तरह से गरीबी और कम आमदनी और मालिक से नौकर बनने पर विवश करती ही है। जिससे व्यक्ति जिम्मेदारियां निभाने के स्थान पर अनावश्यक कार्यों से दूर रहने का प्रयास करता है। यह फिर से अधिक गरीबी और अन्य संकटों को न्योता देता है।

जहां तक विवाह की बात है तो उसमे युवक की आय के बजाय उसका स्वयं का विश्वास बनाय रखने के लिए परिवार और समाज के बुजुर्गो को उस युवा जोड़े के प्रेम को बनाए रखने में यथा आवश्यक सहायता करनी चाहिए। क्योंकि समाज में विवाह की घोषणा प्रेम का प्रतीक है, प्रेम विश्वास का और विश्वास आनेवाली प्रगति और समृद्धि की नीव है।

धन अवश्यकता अनुसार आवश्यक है, किंतु यदि कहीं किसी के मन में धन के प्रति लोभ अथवा लालसा उत्पन्न हो गई तो वह प्रेम को नष्ट कर देता है। और.... प्रेम के नष्ट होने का परिणाम तो आप जानते ही है।

- बिट्टू श्री दार्शनिक
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