Mamta ki Pariksha - 109 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 109

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ममता की परीक्षा - 109



जूही की आँखों से बहने वाली आँसुओं की धार ने भी अब अपना दम तोड़ दिया था। ऐसा लग रहा था उसके अंदर आँसुओं का तालाब सूख गया हो, लेकिन उसकी दर्द भरी कहानी अभी तक समाप्त नहीं हुई थी।

साधना का भी अब धैर्य जवाब देने लगा था। उसकी आँखों ने भी अब बरसना बंद कर दिया था।

जूही लगातार अपनी करुण गाथा सुनाती रही। शायद आज वह अपने दिल का गुबार पूरा निकाल देना चाहती थी। इतने साल तक वह तरस गई थी किसी से बात करने के लिए, अपने दिल का हाल बताने के लिए, किसी के मुँह से अपने लिए दो मीठे बोल सुनने के लिए और आज जब उसे यह सब मिला तो वह आसानी से इसे छोड़ने वाली नहीं थी। उसकी कहानी जारी थी ...... ...

"बच्ची के जन्म की बात घर में सबको पता चलते ही कोहराम मच गया। रोना पिटना तक हो गया। सास ने तो कमरे में प्रवेश करके मुझे खूब जली कटी सुनाई, मन की पूरी भड़ास मुझपर निकाल डाली। सबकी नफरत का केंद्र मैं ही थी मानो मैंने जानबूझकर बच्ची पैदा किया हो।

ऊपर ऊपर से तो मैं सामान्य ही थी लेकिन उन सबकी बातों को सुन और समझकर अंदर ही अंदर बहुत डर भी गई थी। मेरी लाख सावधानी के बाद भी आखिर वही हुआ जो वो करना चाहते थे। जन्म के तीसरे ही दिन बच्ची की तबियत अचानक खराब हुई। हल्का बुखार हुआ और फिर दो घंटे में ही उसका जिस्म काला पड़ गया। उसका पूरा जिस्म अकड़ सा गया था।

उस खूबसूरत गोलमटोल बच्ची का बेजान जिस्म देखकर मैं खुद पर काबू नहीं रख पाई और खुलेआम सास को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। मेरे मुँह से अपना नाम सुनते ही वह क्रोध से आगबबूला हो उठी और चीख चीख कर कहने लगी, "हाँ, मैंने मारा है इस अभागी को। जिंदा रहकर भी इसे क्या करना था ? आगे चलकर किसी गाँव में चार भाइयों की सेज सजाने से अच्छा ही हुआ कि उसे ख़ामोश कर दिया गया। वह मरी नहीं, बल्कि उसे मुक्ति दे दी गई है इस जालिम संसार से। अब ज्यादा जुबान न चला, नहीं तो खिंच लूँगी तेरी जुबान।"
कुछ दिनों तक रोती तड़पती रही मैं। कोई सांत्वना देने वाला भी नहीं था, उल्टे घर भर का पूरा काम और फिर रातों की जिम्मेदारी भी शुरू हो गई थी।

इस बीच भँवर लाल एक बार आया भी लेकिन कुछ नहीं बदल पाया। पंद्रह दिन मेरे साथ बिताकर वापस चला गया।

ऐसे ही एक एक कर दिन बितते रहे। इस बिच मैं दो बार और गर्भवती हुई लेकिन फिर वही कहानी। दोनों बार बच्चियाँ ही पैदा हुईं और फिर उनका वही हश्र ! याद करके भी रूह काँप जाती है।

दिनभर के काम और अत्याचार से मेरी सेहत अब खराब रहने लगी थी। घर के काम करने में मैं असमर्थ हो रही थी। लगभग पाँच वर्ष हो चुके थे मुझे उनके साथ रहते हुए।
इस बीच मँझला देवर देवीलाल पड़ोस के शहर से कोई लड़की पसंद कर आया था जिसकी ऐवज में उसके बाप को पाँच लाख रुपये देना तय किया गया था। वह लड़की मेरी तुलना में मजबूत कदकाठी की व कम उम्र की थी। ये सारी बातें मेरे सामने देवीलाल ने अपनी माँ को बताई थी। उन्हें मुझसे कोई डर नहीं लग रहा था। पैसे की कमी को देखते हुए उन्होंने मुझे गाँव के ही एक साहूकार को डेढ़ लाख में बेच दिया। स्वयं के बेचे जाने और अपनी कीमत के बारे में मुझे बाद में पता चला था।

जिस दिन वह लड़की लेकर देवीलाल अपने घर आया, उसी दिन मुझे उस साहूकार के हवाले कर दिया गया।

यहाँ मुझे कोई काम नहीं था। जिंदगी आराम से कट रही थी। शराब पीकर कभी कभी वह जल्लाद बन जाता बस यही शिकायत थी उससे। दो साल बड़े प्रेम से वह मेरे साथ रहा, लेकिन भगवान ने शायद कोई खुशी मेरी किस्मत में लिखी ही नहीं थी। पता नहीं कब और कैसे मुझे किसी बीमारी ने जकड़ लिया। धीरे धीरे मेरी बिमारी बढ़ती रही।

अब मेरा जिस्म सूखकर हड्डियों का ढाँचा बनकर रह गया था। गाँव में इलाज की सुविधा कहाँ होती है और फिर कौन कराता ? एक दिन उस साहूकार ने मुझे अपने नौकर के साथ शहर के सरकारी अस्पताल में दवाई लाने भेजा। मुझे इलाज से कुछ फायदा होता हुआ महसूस हुआ। सरकारी अस्पताल से कई बार दवाइयाँ लाने के क्रम में मुझे वहाँ कई बार इंजेक्शन भी लेना पड़ा।

एक अजीब बात देखी थी उन दिनों अस्पतालों में ....सुई में दवाई पहले ही भरी हुई होती थी। शायद डिस्पोज़ल इंजेक्शन का उपयोग वहाँ नहीं होता रहा होगा, या फिर डिस्पोजल सुइयाँ मरीजों की जान की कीमत पर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई रही होंगी, मुझे ठीक ठाक कुछ नहीं पता।

हालाँकि कुछ दिनों के इलाज से ही मैं पूर्णतया स्वस्थ हो गई थी । सरकारी अस्पतालों में साफसफाई और लापरवाही के साथ भ्रष्टाचार को भी छोड़ दिया जाय तो अन्य अस्पतालों के मुकाबले इलाज बेहतर होता है इसमें कोई दो राय नहीं।

एक बार मुझे सर्दी हो गई। कई दिनों तक और कई तरह के घरेलू इलाज के बावजूद सर्दी खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी । थकहार कर मैं उसी सरकारी अस्पताल में जा पहुँची जहाँ पहले भी अपना इलाज करवा चुकी थी। बार बार नौकर का समय जाया न हो या हो सकता है, मुझपर वह साहूकार भरोसा करने लगा था। सच्चाई क्या थी यह तो ईश्वर ही जाने लेकिन मैं उस दिन अस्पताल में अकेली ही आई थी। मेरी बात सुनकर डॉक्टर ने मुझे ब्लड टेस्ट कराने के लिए कहा और दो दिन बाद उस रिपोर्ट के साथ आने के लिए कहा।

दो दिन बाद मैं अपना ब्लड रिपोर्ट देखकर हक्की बक्की रह गई। उस रिपोर्ट में ब्लड के अन्य रिपोर्ट के साथ ही HIV रिपोर्ट भी संलग्न थी जो कि पॉजिटिव बता रहा था। यह मेरे लिए बहुत बड़ा सदमा था, लेकिन मैंने खुद पर काबू पा लिया और डॉक्टर को वह रिपोर्ट दिखाकर दवाई लेकर घर वापस आ गई।

मुझे पता था कि मेरे जिस्म में संक्रमण की अभी शुरुआत भर हुई है अतः इसी संक्रमण को मैंने अपना हथियार बना कर अपने ऊपर हुए अत्याचार का बदला लेने का ठान लिया।

वह साहूकार तो मेरा आसान सा शिकार था लेकिन मैं उन तीनों भाइयों को भी माफ नहीं करना चाहती थी जिन्होंने मेरे साथ जानवरों से भी बुरा सलूक किया था, सो अपनी योजना के मुताबिक मैंने साहूकार को यह कहकर समझा लिया था कि मुझे देवीलाल के माँ की बहुत याद आ रही है अतः कुछ दिन मुझे वह उनके यहाँ रहने दे। क्या पता वहाँ रहकर मेरी तबियत भी कुछ ठीक हो जाय ?

वह मान गया।
देवीलाल के घर पहुँचकर मैंने उसकी माँ से बताया, 'साहूकार ने मुझे आजाद कर दिया है। अब मैं कहाँ जाऊँ ? ..और किसी को तो जानती भी नहीं। आपके कामकाज कर दूँगी मुझे अपने घर में ही पड़ी रहने दो।"
उन्हें क्या ऐतराज हो सकता था ? एक बार फिर उन्हें मुफ्त की नौकरानी जो मिल रही थी। उस लड़की ने भी मुँह नहीं खोला था जिसे देवीलाल ने खरीदकर लाया था।

अपने मकसद में आगे बढ़ते हुए मुझे एक बार उस लड़की पर दया भी आई लेकिन अपने प्रतिशोध की ज्वाला में जलते मेरे मन ने मुझे यह कहकर समझा लिया था कि गेहूँ के साथ घुन भी पिसे जाते हैं, शायद उसकी यही नियति होती होगी। उस लड़की का दुर्भाग्य ही उसे यहाँ ले आया होगा इसमें मेरा क्या दोष ?

कुछ दिन वहाँ रहकर मैं अपने मकसद में कामयाब हो गई थी। उन दोनों दरिंदों को क्या पता था कि मैंने उनसे कितना भयानक बदला लिया था। ईमानदारी से मैं वापस साहूकार के पास वापस आ गई थी।

समय पंख लगाकर अपनी गति से उड़ता रहा। धीरे धीरे संक्रमण अपना असर दिखाने लगा था। मैं खुद को काफी कमजोर महसूस करने लगी थी। सर्दी खाँसी जैसी सामान्य बीमारी भी ठीक होने का नाम नहीं ले रही थी।

गाहेबगाहे मुझे भँवर लाल की भी याद आ जाती जिसने मुझे लाकर इस नरक में धकेल दिया था। असली गुनहगार तो वही था मेरी नजर में। इससे पहले कि मेरी हालत और खराब हो मुझे किसी तरह उसतक पहुँचना ही था, उससे बदला लेना ही था।

आखिर मैंने उसके लिए भी योजना बनाकर उस तरफ कदम बढ़ा ही दिया। उस दिन मेरी तबियत अधिक खराब महसूस हो रही थी। योजना के मुताबिक उस साहूकार से पूछकर मैं इलाज के बहाने शहर गई। इस बार भी उसने मुझपर भरोसा करते हुए अकेले ही मुझे भेज दिया था। दवाई खरीदने के लिए कुछ पैसे भी मेरे हाथ में धर दिए थे।

वहाँ से मुझे अपने शहर तक और फिर भँवरलाल तक पहुँचने में कोई परेशानी नहीं हुई। सब कुछ मेरी योजना के मुताबिक ही हुआ। मन की घृणा को छिपाकर मैं उसके साथ दो दिन रही और फिर अपने मकसद में कामयाब होते ही मैंने सच्चाई उसके सामने स्पष्ट कर दी। गाँव में किया गया अपना कारनामा भी उसे बता दिया। सच कहती हूँ उसका वो खौफजदा चेहरा देखकर मेरे कलेजे को बड़ी ठंडक मिली। उसका चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे जिस्म से पूरा खून निचोड़ लिया गया हो। क्रोध में काँपते हुए वह टूट पड़ा था मुझपर, लेकिन अब यहाँ जीना ही कौन चाहता था जो उससे बचने की कोशिश करती। वह जितना मारता, मेरी हँसी और जानदार होती जाती। आखिर वह मारते मारते थक गया और उसके सो जाने के बाद मैं उसके घर से निकलकर सड़कों पर निरुद्देश्य ही भटकने लगी। अब मुझे कानून का भी कोई डर नहीं था। किसी का कोई डर नहीं था। मैं जानती थी मेरा अंत अब नजदीक है और कितनी विचित्र बात है कि छोटी छोटी परेशानियों से भी डर जानेवाला इंसान मृत्यु की सत्यता का अहसास कर लेने के बाद मृत्यु से भी नहीं डरता। मेरी भी वही अवस्था थी।

मैं चलती रही, चलती रही ...पता नहीं कितना दूर .....उस मंदिर में चल रहे भजन की धुन सुनकर मेरा ध्यान उस तरफ गया। ऐसे समय सचमुच ईश्वर का ध्यान बड़ी शांति प्रदान करता है, मन को सुकून देता है। कुछ देर भजन श्रवण का आनंद लेने के बाद भंडारे की कतार देखकर मेरी भूख बढ़ गई और मैं कतार में शामिल हो गई.......!"

क्रमशः