my way home in Hindi Women Focused by Sharovan books and stories PDF | मेरे घर का रास्ता

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मेरे घर का रास्ता

‘एक बात बतायेंगे आप?’

‘क्या?’

‘आप पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं?’

‘कभी नहीं।’ दिनकर दृढ़ता से बोला।

‘मैं तो करती हूँ और मेरे पास प्रभाण भी है।’

‘कैसे?’

‘आपकी पहली पत्नी सीता फिर से जीवित हो गई हैं।’

‘?’ दिनकर को सांप सूँघ गया। वह मुँह फाड़ कर रेखा का चेहरा देखने लगा।’

***

‘दिनकर जी। मैं यहां से क्यों जा रही हूं? यह आपको बताने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मेरे जाने का कारण आप भली-भॉति समझते हैं। हॉ जाते-जाते इतनी आपसे विनती है कि जिसके ऑचल से खुशियॉ छीनकर आपने मेरी झोली भरनी चाही थी, उस निर्दोष का जीवन बरबाद होने से बचा लेना। उसको वह सब कुछ वापस कर देना जो वास्तव में उसका है। यदि आप ऐसा कर लेते हैं तो सचमुच में ये आपके जीवन का सबसे बड़ा उपकार होगा। भूल करके प्रायश्चित करने वाला यदि फिर कोई गलती न करे तो वह पापी नहीं कहलाता है। कम-से-कम मेरा तो विश्वास यही है।

- रेखा।’

दिनकर ने पत्र पढ़ने के बाद मोड़ कर जेब में रख लिया और नौकरानी सुखिया को आवाज दी। सुखिया तुरन्त कपड़े धोना छोड़ कर आ गई और दिनकर के सामने आकर बोली,

‘हॉ साब?’

‘पत्र देते समय कुछ कहा भी था उन्होंने?’

‘नहीं साब।’

सुनकर दिनकर चुप हो गया। सुखिया फिर कपड़े धोने चली गई। दोनों बच्चे अभी तक स्कूल से लौटे नहीं थे, इसलिए सारा घर खामोश पड़ा था। केवल सुखिया के काम करने की खटपट, बाल्टी खटकने इत्यादि का स्वर कभी-कभी सुनाई पड़ जाता था।


रेखा का पत्र पढ़कर दिनकर गम्भीर हो गया था। रेखा अचानक ही चली जायेगी? उसने तो ऐसा कभी नहीं सोचा था। रेखा के इस साहस भरे कदम पर उसे विश्वास भी नहीं हो पा रहा था। रेखा क्या कोई भी स्त्री विवाह के 60-65 दिनों के उपरान्त ही यूं घर-परिवार और पति को छोड़कर सदा के लिए चली जायेगी? यह एक आश्चर्यजनक बात थी। इस पर कोई सहज ही विश्वास नहीं कर सकता था।


दिनकर का पूरा नाम था- तोताराम दिनकर। मगर भूमि संरक्षण अधिकारी होने के कारण उसने अपना नाम का संक्षिप्तीकरण कर लिया था और वह अपने को टी.आर.दिनकर लिखा करता था। क्योंकि एक अफसर होने के नाते उसका पूरा नाम उसकी शान-शौकत और अफसरगीरी में एक भद्दापन दर्शाता है। ऐसी उसकी विचारा धारायें थीं। अनुसूचित जाति का होने के कारण उसे आरक्षण का लाभ मिला था। इसलिये उसकी शीघ्र सरकारी नौकरी भी लग गई थी, जबकि उसके साथ के युवक अभी तक सड़कों पर बेरोजगार घूम रहे थे। नौकरी के पॉच वर्षो के बाद उसे आरक्षण का फिर लाभ मिल गया और वह पदोन्नति पाकर अफसर बन गया। अपने परिवार में वह अपने मॉ-बाप की इकलौती सन्तान था। उसकी मां की मृत्यु तब हो गई थी, जब वह नवीं कक्षा में पढ़ रहा था। परन्तु ग्रामीण होने के कारण उसका विवाह अपनी मॉ के सामने ही हो चुका था। गौना उसकी नौकरी लगने के बाद ही हुआ था। अपनी पत्नी सीता को जब वह विदा कराकर लाया तब वह पर्यवेक्षक के पद पर था। उसके अफसर बनने से पहले तक के वर्ष काफी अच्छे व्यतीत हुए थे। सीता एक भोली-भाली, लज्जाशील, पतिव्रता, ग्रामीण महिला थी। दिनकर सीता से झूठ-सच कुछ भी कहता था, वह उसे ऑख-कान बन्द करके पालन करती थी। एक पूर्ण कुशल ग्रहणी के तो समस्त गुण उसमें थे लेकिन, एक अफसर की पत्नी होने में जो गर्व, अहम और चमक-दमक उसमें होनी चाहिए थी वह नहीं थीं। ऐसी बातों से उसका श्यामला रंग उसके रूप में और भी अधिक खलल डालता था।


दिनकर ने सीता को इस बारे में काफी कुछ समझाया भी था और उसे यही निर्देश दिये थे कि वह कम से कम कुछ तो अपने रहन-सहन और बनाव-श्रंगार तथा रूचियों में परिवर्तन करे। आखिरकार वह एक अफसर की पत्नी है। उसके पति के अफसर मित्रगण और परिचितों में बड़े-बड़े लोग भी हैं। घर में उसे लापरवाह, फूहड़-सा देखते हैं तो उनके साथ उसे भी ग्लानि होती है। इसलिए वह कुछ तो अपने आप में तबदीली कर लिया करे और पूर्ण शहरी बनने की कोशिश किया करे। यही सोचकर दिनकर ने सौन्दर्य और प्रसाधन सम्बन्धी सामान लाकर उसे दिये थे, परन्तु यह सारा सामान रखे-रखे ही खराब हो गया। सीता ने इन सारी सौन्दर्य प्रसाधन सम्बन्धी वस्तुओं में कतई रूचि नहीं ली। इसलिए दिनकर को सीता की यही कमी अक्सर अखर जाती थी। तभी उसने कभी भी सीता को अपने साथ नहीं रखा था। वह माइके में ही रहती थी और वह खुदअकेला रहता था। छुट्टियों में दो एक बार दिनकर सीता के पास आता-जाता रहता था।


उसके ग्यारह वर्ष इसी प्रकार व्यतीत होते रहे। उसके तीन बच्चे भी पैदा हुये। सबसे बड़ी लड़की छह वर्ष की थी। उसके बाद का लड़का चार वर्ष का था। तीसरी सन्तान लड़की हुई थी जो कुछ ही दिनों में निमोनिया से ग्रसित होने के बाद चल बसी थी। दिनकर के ये दोनों बच्चे काफी सुशील, समझदार, पढ़ने में तेज, कुशाग्रबुद्धि तथा सुन्दर थे। इन्हें देखकर कोई भी ये नहीं कह सकता था कि ये दोनों बच्चे एक कम पढ़ी-लिखी ग्रामीण महिला की देन हैं। सीता ने उनमें तमीज की सारी अच्छाइयां भर दी थीं। जैसे बड़ों का आदर करना और उनसे सदैव ही आप करके बात करना। सीता ही उनकी देखभाल अधिकतर करती थी। दिनकर को तो वैसे भी विभागीय कार्य व्यस्तता के कारण अधिक समय नहीं मिल पाता था और वह अपने परिवार तथा बच्चों के साथ अधिक समय भी नहीं दे पाता था। इस वास्तविकता को दिनकर भी महसूस करता था कि उसकी फलीभूत होती गृहस्थी में जो दिनों-दिन चार चांद लगते जा रहे हैं, उन सबका कारण सीता को घर गृहस्थी के कार्यों में अत्यधिक दिलचस्पी और उसका अथक परिा्रम ही है। दिनकर उसे अपने वेतन में से जितने भी पैसे देता था, वह उन्हीं में से अपनी आवश्यकतानुसार खर्च करती थी।

इतना सब कुछ होने पर भी दिनकर सीता को व्यावहारिक रूप में स्वीकार नहीं कर पाता था। वह सोचता था कि जैसे सीता उसके अनुरूप नहीं है। जैसा कि वह स्वयं लम्बा चौड़ा, एक सुदृढ़ व्यक्तित्व वाला पुरुष था। सीता एक दिन जब छत पर से सूखे कपड़े उठाकर नीचे उतर रही थी कि अचानक ही जीने पर से उसका पैर फिसल गया। वह लुढ़कती हुई नीचे आ पड़ी। उसके हाथ-पैर और सिर की चोटों के अतिरिक्त रीढ़ की हड्डी में भी चोट आ गई थी। सीता को तुरन्त अस्पताल ले जाया गया जहाँ पर डाक्टरों ने उसके प्लास्टर चढ़ा दिया। उस दुर्घटना के कारण सीता बाद में स्वस्थ होकर भी ठीक से नहीं चल सकी। वह सदा के लिए लंगड़ा कर चलने पर मजबूर हो गई।


कुछ दिनों के बाद दिनकर का स्थानान्तरण दूसरे शहर में हो गया तो वह वहाँ जाकर रहने लगा। नये शहर में आने पर उसे मकान की कठिनाई उतनी नहीं उठानी पड़ी जितनी कि एक आम व्यक्ति को होती है, क्योंकि अफसर होने कारण उसे तुरन्त एक सभ्य परिवार ने अपने मकान का कुछ भाग किराये पर दे दिया।

दिनकर यहां आकर बे-मन से रहने लगा। वैसे भी वह सीता की दुर्घटना और उसके लंगड़ा कर चलने से अपने आप से काफी क्षुब्ध हो चुका था। उसके घर में किसी भी वस्तु की कमी नहीं थी। स्कूटर, फ्रिज टैलीविजन से लेकर नौकर भी था, परन्तु फिर भी वह अपने आप से समझौता नहीं कर पा रहा था। क्योंकि पहले तो वह कभी-कभार सीता को अपने संग-साथ भी ले जाता था, परन्तु अब तो उसके साथ चलने में भी उसे हिचक महसूस होती थी।


एक दिन दिनकर ने अपने मन की ये परेशानी अपने एक अफसर मित्र से कही तो उसने भी यही कहा कि क्यों वह इस प्रकार की बातें सोचकर परेशान होता है? जो कुछ भी उसे जिस रूप में मिला है, उसे स्वीकार करने में मान नहीं घटता है। समझदारी इसमें नहीं है कि वह अपनी देवी समान पली को सिर्फ इसलिए अपने से दूर रखता है क्योंकि वह देखने में अच्छी नहीं लगती और लंगड़ा कर चलती है। बल्कि मूर्खता तो यह है कि ऐसी परिस्थिति को स्वीकार करके वह जो आदर्श समाज के सामने प्रस्तुत कर सकता है, वह नहीं कर रहा है। कुरूप और विकलांग कोई भी शारीरिक रूप से उतना नहीं कहा जाता है जितना कि मन और आचरण गन्दा होने से होता है। संसार के जाने कितने लोग विकलांगों की बैसाखियां बनकर जीवन काट देते हैं। अपनी पत्नी से तो अधिक वह खुद सोचकर विकलांग होता जा रहा है। फिर सीता तो उसकी अपनी पत्नी है, जिससे उसके दो फूल से बच्चे भी हैं। यदि पत्नी के स्थान पर वह खुद ही कुरूप होता और उसकी टांग टूट जाती? फिर उसकी पत्नी यदि उसके साथ ऐसा बर्ताव करती तब क्या वह सहन कर लेता? ऐसी स्थिति में खुद उसे क्या महसूस होता?

अपने मित्र की इन बातों का दिनकर के पास कोई भी उत्तर नहीं था। कुछ दिनों के बाद उसके इन अफसर मित्र का स्थानान्तरण हो गया तो दिनकर का अपना ये आये दिन का रोना स्वत: ही बन्द हो गया। क्योंकि अपने घर-परिवार की बातें हर किसी से नहीं कही जाती हैं। दिनकर की दिनचर्या पूर्वत: ही चलती रही। सीता अपने मायके में ही रहकर अपने दोनों बच्चों को पढ़ा-लिखा रही थी। दिनकर पिछले दिनों की भाँति हफ्ते या पन्द्रह दिनों में 2-1 दिनों के लिए बच्चों के पास हो आता था।


एक दिन दिनकर के मकान मालिक ने उससे उसके घर-परिवार के विषय में पूछा तो उसने झूँठ बोल दिया और अपने को दो बच्चों का विधुर बता दिया, क्योंकि वह अब तक अपना दूसरा विवाह करने का स्वप्न देखने लगा था और सच बोलकर वह ऐसा अच्छा अवसर खोना नहीं चाहता था। उसके इस प्रकार झूठ बोलने का परिणाम यह हुआ कि उन मकान मालिक महोदय के एक दूर के रिश्तेदार अपनी लड़की रेखा का सम्बंध लेकर उसके पास आ गये। दिनकर ने तुरन्त आगा-पीछा न देखकर इस विवाह की अनुमति दे दी और रेखा के साथ आर्यसमाज रीति से अपना विवाह कर लिया।

विवाह करने के बाद जब दिनकर को सीता का ख्याल आया तो उसने सरकारी स्टाम्प पेपरों पर उससे भी झूठ बोलकर इस कथन पर कि सीता को इस विवाह से कोई आपत्ति नहीं है उसके हस्ताक्षर करवा लिये और अपने को सुरक्षित महसूस करने लगा, क्योंकि उसका ख्याल था कि सीता एक सीधी-साधी युवती है। उसे जिस हाल में भी रखा जायेगा वह रह लेगी और रेखा को विवाह के बाद स्वयं ही परिस्थितियों से समझौता करना पड़ जायेगा। फिर धीरे-धीरे बाद में सब ठीक हो जायेगा। इस प्रकार रेखा उसकी दूसरी पत्नी बनकर उसके घर आ चुकी थी। विवाह के लगभग बीस दिनों के बाद ही दिनकर अपने दोनों बच्चों को रेखा के पास ले आया। इस तरह वह अपने दोनों बच्चों और रेखा के साथ रहने लगा था। बीच-बीच में वह विभागीय कार्य का बहाना बना कर सीता के पास भी हो आया करता था।


रेखा भी दिनकर के साथ हर प्रकार से सामंजस्य रख रही थी। बच्चों को भी वह बिल्कुल जाहिर नहीं होने देती थी कि वह उनकी दूसरी माँ है। वह उनके साथ लाड़-दुलार और स्नेह से रहती थी। उसके माँ-बाप ने दिनकर से उसका विवाह आँख बन्द करके केवल इस कारण कर दिया था क्योंकि वह एक अफसर था और वे सोचते थे कि उनकी पुत्री उसके पास हर तरह से सुखी रहेगी। फिर वे अधिक दहेज भी नहीं दे सकते थे। जबकि रेखा अपने साथ के पढ़े युवक प्रकाश से विवाह करना चाहती थी। विवाह से पूर्व वह प्रकाश के साथ स्कूल में पढ़ती थी। फिर भी रेखा ने अपने माँ-बाप का कहना माना था और दिनकर से विवाह कर लिया था।


एक दिन सीता का पत्र दिनकर की अनुपस्थिति में रेखा को मिला तो वह चौंक गई। उसे पत्र पढ़कर विश्वास ही नहीं हुआ। सीता ने दोनों बच्चों के हाल-चाल पूछे थे। दिनकर काफी दिनों से उसके पास नहीं गया था सो उसे उसने बुलाया भी था। पत्र में इस प्रकार की अनेकों बातें और शिकायतें थीं। रेखा ने पत्र पढ़ा तो उसे दु:ख और आश्चर्य हुआ। उस दोपहर इसने कुछ भी नहीं खाया। सारे दिन वह गुमसुम-सी पड़ी उहापोह में बैठी रही। फिर जब बच्चे स्कूल से आये तो उसने बातों-बातों में उनसे सीता के विषय में सारी जानकारी ले ली। बच्चे झूठ नहीं बोल सकते थे। इसलिए उन्होंने भी सीता को अपनी माँ बता कर पुष्टि कर दी। रेखा ने सुना तो उसे अपने आप ही दिनकर के प्रति घृणा सी हो गई।


शाम को दिनकर आया तो रेखा ने उसे अपने मन के प्रति कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया। वह सोचती रही कि यह मनुष्य एक अफसर होकर भी कितना झूठा, फरेबी और धोखेबाज हो सकता है? क्या इसका अपनी पत्नी से मन नहीं भर सका था? वह तो कभी ऐसा सोच भी नहीं सकती थी। रेखा के दो-तीन दिन इसी उहापोह में गुजर गये। वह सोच नहीं पा रही थी कि उसे क्या करना चाहिए? दिनकर ने तो दूसरे का अधिकार और प्यार छीन कर उसे दिया था जिसे स्वीकार करने के लिए उसका दिल गवाही नहीं दे रहा था।


फिर जब एक दिन रेखा से नहीं रहा गया तो उसने दिनकर से साहस कर पूछ ही लिया। वह भेद भरे ढंग से बोली,

‘एक बात बतायेंगे आप?’

‘क्या?’

‘आप पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं?’

‘कभी नहीं।’ दिनकर दृढ़ता से बोला।

‘मैं तो करती हूँ, और मेरे पास प्रभाण भी हैं।’

‘कैसे?’

‘आपकी पहली पत्नी सीता फिर से जीवित हो गई हैं।’

‘?’

दिनकर को सांप सूँघ गया। वह मुँह फाड़ कर रेखा का चेहरा देखने लगा।

फिर रेखा ने उससे और भी बातें पूछीं, जिनका दिनकर कोई भी समुचित उत्तर नहीं दे सका। परन्तु बाद में वह बोला,

‘ठीक है जो कुछ हो गया है, उसके लिए दोषी मैं ही हूँ। मगर अब मैं क्या कर सकता हूँ?’

‘आप कुछ भी नहीं कर सकते हैं। लेकिन मैं बहुत कुछ कर सकती हूँ। चाहूँ तो आपकी नौकरी भी ले सकती हूँ।’

रेखा उत्तेजित होकर बोली।

फिर वह काफी देर तक बिस्तर में मुँह छिपाये रोती रही थी।

सुबह होते ही दिनकर ड्यूटी पर चला गया था और बच्चे स्कूल। पिछली शाम की घटना का असर अभी तक ताजा था, इस कारण वह शीघ्र ही घर वापस आ गया था। लेकिन जब वह लौट कर आया तो सुखिया ने उसे रेखा का पत्र पकड़ा दिया था। और वह अपने घर चली गई थी।

रेखा जैसे ही अचानक अपने घर पहुँची तो माँ उसे देखकर चौंक गई।। पिताजी दुकान पर गये थे। एकदम पूछ बैठीं,

‘अकेली आई हो? वह कहाँ है? चिट्ठी-पत्री कुछ तो दी होती?’

‘?’लेकिन रेखा चुप खड़ी रही। वह कुछ भी नहीं बोली।

‘अरे तेरा मुँह क्यों सूजा है? क्या कुछ बात हो गई है?’

‘हाँ।’ रेखा ने इतना ही कहा।

‘क्या?’

‘मैंने उनका घर सदा के लिए छोड़ दिया है।’

‘क्या?’

‘हाँ। क्योंकि जिस मार्ग पर आप और पिताजी ने मुझे जाने के लिए बाध्य किया था वह मेरे घर का रास्ता नहीं है।’

माँ का मुँह आश्चर्य से सफेद पड़ गया। फिर रेखा ने उन्हें शुरू से लेकर अन्त तक सारी बात बता दी। रेखा कहते-कहते रो पड़ी। साथ ही माँ की भी आँखें भीग गईं। वह भी अपने किए पर पछता रही थीं क्योंकि आँख-कान बन्द करके उन्होंने अपनी बेटी का जीवन अन्धकार में फेंक दिया था।


शाम को रेखा के पिता आये तो माँ ने उन्हें सारी बातें बता दीं। सुनकर वे भी भौंचक्का रह गये। दिनकर पर उन्हें रह रहकर क्रोध आ रहा था। उन्होंने तुरन्त एक प्रार्थना पत्र पुलिस विभाग के नाम दिनकर के खिलाफ लिखा। मगर जब वे उस पर हस्ताक्षर कराने के लिए रेखा के पास गये तो उसने यह कहकर मना कर दिया कि इससे क्या लाभ होगा? मेरा जो कुछ भी बरबाद होना था वह तो वापस नहीं आया जाता? फिर मैं क्यों सीता और उसके बच्चों का जीवन बरबाद करूँ? मेरे इस प्रार्थना पत्र से दिनकर की नौकरी जा सकती है। फिर उसने पिता और माँ को यह कहकर समझा लिया कि वह पढ़ी लिखी है। कहीं भी नौकरी कर लेगी और यदि सम्भव हुआ तो अपना पुनर्विवाह भी कर सकती है। वे लोग उसके कारण चिन्तित न हों।

उस शाम घर में चूल्हा ही नहीं जला। तीनों ही भूखे अपने-अपने बिस्तरों पर सारी रात करवटें बदलते रहे।

रेखा के कई दिन कई हफ्ते इन्हीं बातों को याद करके बीत गये। पिछले दिनों की स्मृतियां कभी उसे दिनकर के पास ले जातीं तो कभी वर्तमान का हाल देखकर उसे रोने पर विवश कर देतीं। यादों के इन्हीं सिल-सिलों में उसे एक दिन प्रकाश की याद आई तो उसने उससे मिलना हितकर समझा।


फिर समय निकाल कर वह रविवार के दिन प्रकाश के पास गई। प्रकाश उसे इस तरह सामने आया देखकर आश्चर्य कर गया। वह अपने कपड़े धोने जा रहा था। कपड़े एक ओर फेंक कर उसने पहले तो रेखा को बैठने के लिए कुर्सी दी फिर स्वयं भी चारपाई पर बैठ गया।

तब रेखा ने आरम्भ की औपचारिक बातों के पश्चात् स्वत: ही उसके पूछने से पूर्व अपने साथ घटित सारी कहानी दोहरा दी। यह सुनकर प्रकाश को भी एक बार दिनकर पर क्रोध आ गया। वह उसके प्रति क्रोध में बोला,

‘समझ में नहीं आता है कि दुनियां में कैसे-कैसे निचले स्तर के लोग पड़े हैं? जिनका न कोई आचरण रहा है और न ही नैतिकता। यह अपने स्वार्थ और मनोरंजन के लिए क्या नहीं कर सकते हैं? पत्नी भी इनके लिए क्या कोई खाने वाली चीज है जिससे यदि मन ऊब गया तो दूसरी की ओर ताकने लगे?’


फिर जब प्रकाश चाय बनाने लगा तो रेखा ने उसे मनाकर दिया और चीनी, चम्मच उसके हाथ से लेकर बोली,

‘जब भी कोई पुरुष किसी स्त्री के सामने इस प्रकार के कार्य करता है तो स्त्री इसमें अपमान महसूस करती है। लाओ चाय मैं बनाती हूँ?’

तब रेखा ने चाय बनाई। प्रकाश ने और भी अन्य बातें कीं। फिर जब वह चलने लगी तो उसने प्रकाश से कहा,

‘अच्छा अब मैं जाना चाहती हूँ। हो सके तो मेरी नौकरी के लिए कहीं भी कोशिश करना।’

प्रकाश ने हांमी भरी फिर बोला,

‘रेखा, एक बात कहूँ?’

‘हाँ कहो?’ वह अचानक ही ठिठक गई।

‘तुम अपने घर आकर भी, अब फिर वापस जाना चाहती हो?’ प्रकाश ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए।

‘तुम एक झूठी पत्तल . . .?’ रेखा उसकी ओर अविश्वास से देखने लगी।

‘मुझे शर्मिन्दा मत करो। मनुष्य का मन और आत्मा साफ होनी चाहिए। बाहरी आवरण के मैले होने से क्या अन्तर पड़ता है। फिर तुम्हारे साथ जो कुछ भी हुआ है, उसमें तुम्हारा तो कोई दोष नहीं है।’

प्रकाश ने दृढ़ होकर कहा तो रेखा टूटी हुई टहनी के समान उसकी बाँहों मे झूल गई।

एक अन्धकार में भटकने के बाद उसे वास्तविक जीवन का प्रकाश जो मिल गया था।

तब प्रकाश ने आगे कहा,

‘मैं समझता हूँ कि नारी को ठोकर खाने और भटकने के पश्चात भी यदि उसे अपने घर का सही मार्ग मिल जाता है, तो यही उसके जीवन का सबसे बड़ा और बहुमूल्य उपहार होता है। बशर्ते वह फिर गलती न करे। आओ चलें मुझे तुम्हारे माता-पिता से बात करनी है।’


समाप्त।