Parchayi in Hindi Fiction Stories by Devika Singh books and stories PDF | परछाई

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परछाई

कभी कभी मेरा दिल होता है कि मैं बहुत रोऊं लेकिन अगर रोंऊंगी तो उसको कैसे संभालूंगी, यही चिंता दिन रात सताती है। उसके लिए मुझे दुगनी ताकत से खड़ा होना है। वह विशेष है इतना विशेष कि उसके जैसे लोग बहुत कम हैं। बाहर सूरज जब उगता है तो नए दिन की शुरुआत होती है एक ऐसे ही दिन एक सूरज उगा और उसे मैंने अपने गर्भ के अंदर महसूस किया। मैं बहुत खुश थी एक और परिवार के सदस्य के आने के बाद मेरा परिवार संपूर्ण हो जाएगा। हर खाने पीने की कमी एक से एक बढ़कर डॉक्टरों की सलाह के अनुसार पूरी हुई थी। मैं उसे महसूस करती थी, अपने किसी जन्मजात अंग की तरह जैसे मैंने उसे बचपन से ही ओढ़ लिया था। माँ बनने के बाद मैंने जाना कि मैं हमेशा से ही माँ जैसे किरदार में ढली हुई हूं, तृप्ति के बाद एक और बच्चे की कमी महसूस होने लगी थी। जब वो खेलने के लिए बाहर जाने की ज़िद करती, हर समय वह सामने वाले आहूजा अंकल के घर रहना चाहती। यहां तक कि उसने खाना भी छोड़ दिया था। उन्हीं के घर खाने लगी थी और खेलते-खेलते वहीं सो जाती, तब मैं अक्सर खुद से सवाल करती थी क्या मैं एक अच्छी माँ नहीं हूं? जो वो मेरे साथ रहना नहीं चाहती, क्या मैं इतना अच्छा खाना नहीं बनाती जितना आहूजा आंटी बनाती हैं, क्या मेरे अंदर ममता की कमी है? ऐसे बहुत से सवाल मेरे मन में उठने लगे, फिर धीरे-धीरे मैंने जाना आहूजा के दो पोते और पोती जिनके साथ तृप्ति को खेलना इतना ज्यादा पसंद था कि वह अकेली रहना नहीं चाहती थी। एक से एक महंगे खिलौनों के बीच भी मैं उसे बांध नहीं पाती। बहुत कोशिशों के बाद मैंने आकाश को मना ही लिया, दूसरे बच्चे के लिए। बच्चे को अल्ट्रा साउंड में अंदर घूमते देखकर मेरी आँखें इतनी ही नम हो जाती थीं, जितनी कि तृप्ति के समय। तब मैंने जाना कि माँ अपनी भावनाओं को दो बच्चों में बांट नहीं सकती, उसका प्यार घड़े की तरह हमेशा भरा ही रहता है, उससे चाहे कितना भी निकालो दोबारा लबालब हो जाएगा।

जैसे जैसे तरुण बड़ा होने लगा, मुझे ऐसा लगता कि तृप्ति के मुकाबले वो कम हाथ पैर से चलाता था। मैंने और अच्छे से उसकी मालिश करना शुरू किया। धीरे-धीरे समझ आया वह आवाज़ को सुनकर भी रियक्ट कम करता है, आँखों की पुतलियाँ अधिकतर स्थिर रहती हैं, जिस तरफ देखता है वहीं ताकता रहता है। वो किसी चीज को पकड़ने की कोशिश नहीं करता, मुझे उसकी चिंता सताने लगी। मैं दिन रोज अस्पतालों की चक्कर लगाती शुरुआत में डॉक्टर ने कहा कि कुछ बच्चे थोड़ा लेट बोलते हैं लेट सीखते हैं, उसका भी इंतजार किया। पूरे दो साल का होने के बाद भी वो ढंग से चल नहीं पाया। मैं जब कोई खिलौना उसकी तरफ बढ़ाती वो देखने के बाद भी अपना हाथ नहीं बढ़ाता, तब मेरे पास आंसुओं के सिवा कुछ नहीं होता, शायद यह सस्ता खिलौना इसको पसंद ना हो, मैं महंगे से महंगा खिलौना ये सोचकर उसके लिए लाई, क्या पता वो चलाए? मेरे डॉक्टरों के यहां चक्कर लगाने में तेजी आई, मैं सुबह घर से निकलती और शाम तक घर पहुँचती। जो कहीं भी बताता मैं वहीं जाती। हल्की सी रौशनी की तलाश में मैंने दूर-दूर तक चक्कर लगाए। मैं जैसे अपने पूरे परिवार को भूल चुकी थी तृप्ति को भी, क्या करती? आकाश चिल्लाने लगे उनका चिड़चिड़ापन बढ़ने लगा। उन्होंने अब मेरे साथ जाना छोड़ दिया है, भाग्य समझकर, पर मैं तो माँ हूं, अपने बेटे के लिए आखिरी दम तक भाग्य से लड़ती रहूंगी।



जैसे जैसे तरुण बड़ा होने लगा, मुझे ऐसा लगता कि तृप्ति के मुकाबले वो कम हाथ पैर से चलाता था। मैंने और अच्छे से उसकी मालिश करना शुरू किया। धीरे-धीरे समझ आया वह आवाज़ को सुनकर भी रियक्ट कम करता है, आँखों की पुतलियाँ अधिकतर स्थिर रहती हैं, जिस तरफ देखता है वहीं ताकता रहता है। वो किसी चीज को पकड़ने की कोशिश नहीं करता, मुझे उसकी चिंता सताने लगी। मैं दिन रोज अस्पतालों की चक्कर लगाती शुरुआत में डॉक्टर ने कहा कि कुछ बच्चे थोड़ा लेट बोलते हैं लेट सीखते हैं, उसका भी इंतजार किया। पूरे दो साल का होने के बाद भी वो ढंग से चल नहीं पाया। मैं जब कोई खिलौना उसकी तरफ बढ़ाती वो देखने के बाद भी अपना हाथ नहीं बढ़ाता, तब मेरे पास आंसुओं के सिवा कुछ नहीं होता, शायद यह सस्ता खिलौना इसको पसंद ना हो, मैं महंगे से महंगा खिलौना ये सोचकर उसके लिए लाई, क्या पता वो चलाए? मेरे डॉक्टरों के यहां चक्कर लगाने में तेजी आई, मैं सुबह घर से निकलती और शाम तक घर पहुँचती। जो कहीं भी बताता मैं वहीं जाती। हल्की सी रौशनी की तलाश में मैंने दूर-दूर तक चक्कर लगाए। मैं जैसे अपने पूरे परिवार को भूल चुकी थी तृप्ति को भी, क्या करती? आकाश चिल्लाने लगे उनका चिड़चिड़ापन बढ़ने लगा। उन्होंने अब मेरे साथ जाना छोड़ दिया है, भाग्य समझकर, पर मैं तो माँ हूं, अपने बेटे के लिए आखिरी दम तक भाग्य से लड़ती रहूंगी।


जब उसके साथ के सभी बच्चे स्कूल जाने लगे, तो मैंने भी उसका एडमिशन प्ले स्कूल में करवा दिया। मेरा बच्चा दो साल बाद भी नर्सरी में पढ़ने लायक नहीं हो पाया। वो सब कुछ समझता है, सब कुछ जानता है, पर कभी-कभी नहीं बोल पाता, नहीं बता पाता, उसे कब सुसु आया है कब उसे पॉटी आई है। मैं जल्दी अपने घर का काम खत्म करके इसी इंतजार में रहती थी, कि कब उसके स्कूल से बुलावा आ जाएगा? कितना मुश्किल होता है, यह सुन लेना कि आपका बच्चा नॉर्मल नहीं है। दूसरे बच्चों की तरह उसकी ग्रोथ नहीं है। माफ़ कीजिएगा लेकिन हम उसे अगली क्लास में नहीं भेज सकते। आज जब उसके साथ के बच्चों को पढ़ते, खेलते देखती हूं तो मुझे अपने तरुण के लिए बहुत दुख होता है, इसलिए नहीं कि ईश्वर ने मुझे उसकी माँ के रूप में चुना इसलिए कि मेरे बाद उसका क्या होगा? सोचती हूं तो अंदर तक कांप जाती हूं, ये विचार जब भी आते हैं, रातों की नींद ग़ायब हो जाती है। मुझे याद आती है, कौशल्या ताई जो पड़ोस में रहती थीं, उनका दस साल का बेटा जो रोड एक्सीडेंट में अपाहिज हो गया, उसकी रीढ़ हड्डी टूट थी, पर बीस साल तक कौशल्या ताई के चलते कभी नहीं लगा वो अकेला है। एक दिन अचानक उनके जाते ही वो चार महीने भी नहीं जी पाया। मैंने देखा था उसे कड़कती धूप में खाट पर लेटे, उसके चेहरे के आसपास मक्खियों को भिनकते हुए, कभी देर तक मल में पड़े चिल्लाते, कभी भूख में रोते।


चिंता का असर मुझपर दिखने लगा, मैं खुद को बीमार महसूस करने लगी, बहुत जल्दी थकान और अचानक मेरा वजन बहुत कम हो गया। पेट फूलने लगा था, कई बार तो रोक कर पड़ोसियों ने पूछा क्या तीसरा बच्चा आने वाला है? मैंने कोई ध्यान नहीं दिया। धीरे धीरे मेरी आँखों का रंग पीला हो गया, पूरे शरीर में खुजली, एड़ियों में एडिमा और बाथरूम का रंग बिल्कुल संतरे के रंग जैसा। टालते टालते आकाश की ज़िद के सामने नहीं चली, मुझे डॉक्टर के पास जाना पड़ा। मुझे पहले ही पता था कि डॉक्टर के पास जाने का मतलब है? बहुत सारे टेस्ट और दिन रोज लगते चक्कर, जिनसे मैं परेशान हो चुकी थी। अगर तरुण की बात होती तो ठीक था, लेकिन अपने लिए मैं लापरवाह बन जाना चाहती थी। टेस्ट के रिजल्ट आने से पहले उसने कुछ नहीं कहा, जैसा कि डॉक्टर हमेशा करते आए हैं। सात दिन बाद रिपोर्ट आई तो मैं अंदर तक डर गई, लीवर सिरोसिस। जिस बीमारी का नाम मैंने आजतक नहीं सुना था, क्या मुझे ही होनी थी, कहते हैं ज्यादा शराब पीने से होती है, मैंने तो उसे कभी हाथ भी नहीं लगाया। क्या कहा जा सकता है कितने दिन और जीऊंगी? आखिर जाना तो सभी को है लेकिन तरुण को छोड़कर जाने का दिल नहीं होता। मेरे बाद उसका ध्यान कौन रखेगा? कौन कहेगा बहुत देर हो गई तुमने कुछ खाया नहीं? कौन उसके मुंह से गिरती हुई सब्जी को किसी रुमाल से पोंछेगा? कौन उसके मैले कपड़ों को बदलकर, उसे धुला और साफ पहनाएगा? वो नहीं समझ पाता कौन बताएगा उसे, कौन उसे पसंद नहीं करता? कहां उसे नहीं जाना चाहिए? दिन भर यही सोचती हूं और ईश्वर से रोज प्रार्थना करती हूं, मेरे जीवन में रोज एक दिन बढ़ा दे।



आज तरूण छह साल का हो गया। वह सीख रहा है पर बहुत धीमी गति से। मुझे यकीन है, एक दिन वह बिल्कुल नॉर्मल हो जाएगा। सुबह से ही साफ-सफाई और आने वाले रिश्तेदारों की तैयारी में व्यस्त मैं दोनों बच्चों को देख नहीं पाई। तरुण ने सॉस की बोतल फ्रीज से निकाली और सारी नीचे गिरा दी। मैंने एक थप्पड़ उसके गाल पर लगा दिया और बाद में पछताई। कभी कभी गुस्सा आता है और बुरे ख्याल भी, बहुत बुरा तक सोच लेती हूं आखिर इंसान ही तो हूं, जब दर्द इतना भारी हो जाता है कि बर्दाश्त नहीं होता तब रो भी लेती हूं। सारा काम खत्म होने के बाद मैं बच्चों को ढूंढने लगी, थप्पड़ का ध्यान आया, भागकर उनके कमरे में गई, सारे खिलौने बिखरे पड़े थे। पकौड़े जो मैंने बच्चों को दिए थे प्लेट में कुछ आधे खाए, कुछ बिना खाए सॉस लगे यू के यूं ही रखे थे। खिलौनों की अलमारी खुली थी। एक रैकेट बाहर था, दूसरा रैकेट अलमारी से आधा लटक रहा था। शायद छत पर हों, मैं भागती हुई छत पर पहुंची, आस-पास, टंकी के पीछे जहां अक्सर ही दोनों छुपकर खेलते हैं, कहीं कोई ना दिखा। मेरे पैरों की रफ्तार और तेज हो गई दुगनी गति से नीचे आई दोबारा कमरे में गई चप्पलें ढूंढी, एक एक चप्पल की जोड़ी ग़ायब थी। बाहर के चौक में मैंने डस्टबिन के पीछे झांककर देखा, जहां कोई छुप नहीं सकता। मेन गेट खुला था बाहर तो नहीं निकल गए? बराबर वाली सरोज के घर पहुंची, शायद वहां खेलने के लिए चले गए हों, पर नहीं उसका यह कहना, यहां तो कोई नहीं आया, जैसे मेरी जान निकाल गया, अगर उनका बेटा भी बाहर रहा होता, तो लगता सभी साथ खेल रहे हैं। कहां चले गए दोनों? मैं अपने काम और रिश्तेदारों पर बड़बड़ाने लगी। किशोर जिसके घर बच्चे कभी नहीं जाते, उसके घर भी मैंने इस आस से पूछ लिया, क्या पता वो हां कह दे? हर पड़ोसी से मैं हां सुनने के लिए तरस गई, दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। फोन? जिसे मैं अपने साथ नहीं लाई थी, भागकर घर पहुंची, आकाश को फोन किया, आकाश बच्चे कहीं नहीं मिल रहे।" शांति से ढूंढो, कहां गए होंगे? तुम चिंता मत करो, मैं अभी रवि को भेजता हूं और थोड़ी देर में मैं पहुँचता हूं।" तभी किशोर ने आकर कहा ,"आप पीछे गली वाले पार्क में क्यों नहीं देख आतीं? झूले लगे हैं शायद वहां हों?" मैं लगभग दौड़ती हुई पार्क तक पहुंची, सांस फूल चुकी थी, हर बच्चे में मैं गुलाबी फ्रॉक और काली टी-शर्ट देखना चाहती थी।

चारों तरफ निगाहें दौड़ गईं, साइकिल के पीछे, पेड़ के पीछे, उस मोटी औरत के पीछे, हर जगह नजरें ढूंढती हुई बच्चों को पा लेना चाहती थीं। तभी नजर पार्क में बने छोटे से जिम पर ग‌ई एक्सरसाइज का झूला, जिस पर तरुण बैठा था और तृप्ति उसके पास खड़ी, उसे झुला रही थी। जाने क्यों आँखों में आँसू आ गए, जैसे कोई खजाना लुटते लुटते बच गया, सांस में सांस आई, मैं अपने कदमों को आराम देते हुए आगे बढ़ने लगी, मैं पांच दस कदम की दूरी पर पीछे खड़ी थी और झूले के पास एक औरत अभी आकर ही खड़ी हुई थी, तरुण ने उसका हाथ पकड़ लिया, वह उसे देखकर सवालिया नजरों से मुस्कुराई, तृप्ति ने बिना रुके मुस्कुराते हुए कहा, आपका कड़ा देख रहा है, आंटी। वह थोड़ा और मुस्कुराई, तरुण उससे कुछ कहना चाहता था, तभी तृप्ति ने तरूण को झूले से उतारते हुए कहा," तरुण उतर जाओ।" तृप्ति ने औरत को सफाई दी, इसे मम्मी ने कहा है जब भी कोई आए तो उतर जाया करो। तरुण बैट बॉल खेलने के लिए रोने लगा, तो तृप्ति ने उसे समझाते हुए कहा," रोओ मत! वो बड़े भैया हैं अपने साथ नहीं खिलाएंगे। मैं अपनी गुल्लक फोड़ दूंगी और अपने पैसों से आपके लिए बैट बॉल लेकर आऊंगी। आप अच्छे बच्चे हो ना?" तरुण फिर भी चुप नहीं हुआ। फिर उसने बड़े लड़कों के पास जाकर कहा, "भैया मेरे भाई को बैट बॉल खेलना है। वो रो रहा है क्योंकि उसे मम्मी ने मारा।" दो बॉल खिलाने के बाद वह वापस मुड़ी तरुण का पैर कीचड़ में जा गिरा, उसने पार्क में लगी टंकी पर जाकर चप्पल धोने के बाद, थोड़ा पानी हाथ में लेकर तरुण का मुंह धोया और अपने फ्रॉक के छोर से पोंछ दिया।



मेरे सामने आने पर मुझे समझ नहीं आया कि मैं किस से ज्यादा प्यार करूँ तृप्ति या तरुण को? मैंने तरुण को गोद लेना चाहा लेकिन वह मेरा हाथ छुड़ा कर तृप्ति के पीछे खड़ा हो गया, "गंदी मम्मी" मैं तरुण और तृप्ति के पीछे पीछे चलती सोच रही हूं, तरुण के आने से पहले, छह साल की होने के बाद भी तृप्ति कितनी जल्दी जान गई थी उसके साथ कोई खेलने वाला आ रहा है। कैसे बच्चों की जीभ में सरस्वती होती है, उसने हमेशा ईश्वर से अपने लिए एक भाई ही मांगा था। यहां तक कि ड्राइंग में भी जब पूरा परिवार बनाती तो, आढी टेढी लकीरों के बीच इशारा करके मुझे बताती, माँ देखो मेरा छोटा भाई और मैं उसके इसी प्यार को देखकर गदगद हो जाती। जन्म से नौ महीने पहले तो मुझसे भी ज्यादा इंतज़ार तृप्ति ने किया था। हर पसंदीदा खिलौना वह अपने आने वाले भाई के लिए उठाकर रख देती थी। कहती होगी सृष्टि की उसके बच्चे एक दूसरे से कुछ शेयर नहीं करते। तरूण का आना पूरी जीवन को संपूर्ण बना गया। तृप्ति की हमेशा ज़िद कि उसे उसकी की गोद में दे दूँ, दिया भी तो उसने हमेशा माँ बनने की कोशिश की।

जब तरूण तीन महीने का था और तनुजा की शादी थी, मुझे माँ ने किसी काम से बाहर से भेजा था, पीछे से तरुण उठते ही रोने लगा। तृप्ति उसे कंधे से पकड़े दोनों हाथों से जकड़, अपनी नानी के पास पहुंच ग‌ई थी, नानी प्लीज मेरे भाई को चुप करा दो।

तरूण चार साल का था तो एक लड़का हमारे घर तृप्ति की शिकायत करने आया, उसके सर से खून टपक रहा था। मैंने बिना जाने ही एक चांटा तृप्ति को लगा दिया, तुम इतनी उद्दंड हो गई हो, मुझे पता ही नहीं चला? क्यों मारा तुमने? वो अपने गाल पर हाथ रखे सिसकती रही और मैं उसे डांटती रही। पट्टी करवाने के बाद मैं उस लड़के को उसके घर छोड़ आई लेकिन उसके बाद मैंने तृप्ति से बात नहीं की। वो धीरे-धीरे सिसकती हुई हल्के कदमों से रसोई में मेरे पास आई और अपने गाल पर हाथ रखते हुए उसने कहा,"हमारा तरुण पागल नहीं है। कार्तिक ने तरुण को पागल बोला था, मेरा भाई कोई पागल है?" मैंने रोती हुई अपनी बच्ची को अपने गले से लगा लिया, मैंने बिना जाने उसे मारा था ,"नहीं, बेटा वो पागल नहीं है, वह विशेष है। ऐसे बच्चों को ईश्वर किसी किसी का ही भाई बना कर भेजता है उसे पता था कि तृप्ति अपने भाई का बहुत ध्यान रखेगी इसलिए ईश्वर ने उसे तुम्हारा भाई बनाया।" उस दिन के बाद तृप्ति ने उसे और लाड, प्यार से संभालना शुरू कर दिया। आज मैं देखती हूं वह मेरी परछाई बन चुकी है। औरत के प्रेम की चरम सीमा माँ है। क्या मेरी बेटी बहन से माँ बन गई? जिस चीज के लिए मैं आजतक डरती आई हूं क्या उस समस्या का समाधान मिल गया, मेरे जाने के बाद भी मेरी बेटी कभी तरूण को एक माँ की कमी महसूस नहीं होने देगी।