Sanyog - 1 in Hindi Classic Stories by SWARNIM स्वर्णिम books and stories PDF | संयोग - 1

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संयोग - 1

पंचेबाजा के साथ मैं कर्मघर के प्रांगण में पहुंची। विवाह समाज की एक रस्म है, आज से मैं भी उसी समाज की रस्मों में शामिल महिलाओं के समूह में शामिल हो गयी हूं। नए लोग, नई जगह, नए माहौल, क्या होगा, कैसे होगा, मन अशांत था। शादी खत्म होने के बाद से ही आंखों में आंसू भरा पडा था, प्यार करने वालों की भीड़ से जुदा होकर जहां मुझे प्यार करने की जरूरत है वहां आकर आपका शरीर सारी थकान महसूस कर रहा है। हालांकि अन्य लोग नाच रहे हैं, आनंद ले रहे हैं, हंस रहे हैं, ऐसा लगता है कि वे अपने जीवन का सबसे सुखद क्षण जी रहे हैं।

अपने भीतर यह धारण करने की कोशिश करते हुए कि यह एक परंपरा है जो जन्म के परिवेश को छोड़कर कर्मस्थल पर आने के बाद वर्षों से चली आ रही है, मैं खुद को नियंत्रित करने की कोशिश करी तो मेरे नई वस्त्र पहनकर गांव में घूमने वाली बहन, मेरे कल उठाकर रोनेवाला मेरे भाई, हमेशा मुझे एक राजकुमारी की तरह व्यवहार करनेे वाले मेरा बडा भाई, जब तुम होती हो तो यह गांव ही उजाला रता है कहनेवाला चाचा, मौसी अौर परदादी सब आईने बनकर आई और मेरी आंखों से आंसू बनकर छलक पड़े।

पंचेबाजा बज रहे थे। अब घडी अगले दिन पर बजने लगी और बाकी की रस्में हो गईं। सबके पैर पड्ने के बाद, मैं अपनी बहन के बारे में सोचती रही, जो विभिन्न बहाने से अपने पैर दिखाती थी कि इस घर में मैं अकेली हूँ जहाँ तुम्हें उसके पैरपर पड्ना हैं।

अगली सुबह ने मुझे इस नए घर में बहू के रूप में जगाएगी यह सोची तो मेरे नींद भी चली गई। मैंने नहायी और बाहर आयी, मेरी आँखें अभी भी जाग रही थीं और मेरे शरीर को आराम की ज़रूरत थी। पहली नज़र में, मेरी नजर एक महिला पर जाकर रुकी, जो काम से थकी हुई लग रही थी, पोछा लगाने में व्यस्त थी। मेरी आँखों के सामने, चक्कर आने के कारण गिरने वाली महिला को एक आदमी सहारा देकर कमरे में ले गया। बाद में मुझे पता चला कि पिछले दो पात्र मेरे जेठ जी और जेठानी थे। शादी के दिन भले ही किसी और पर मेरी खास नजर न रही हो, खुशियों की भीड़ में मेरी नजर एक नीरस जिंदगी पर टिकी हुई थी, और मुझे यह भी आभास हुआ कि यह कोई और नहीं बल्कि मेरे ससुराल वाले है। हालाँकि मैं उससे पूछना चाहती थी कि क्या हुआ था?! पर मैंने चुपचाप एक संस्कारी बहू की भूमिका निभाई और अपने कमरे में प्रवेश किया।

हालाँकि बाहर ब्याण्ड बाजा की आवाज़ ने शादी की पार्टी का उत्साह बढ़ा दिया था, लेकिन मेरा दिल पिछले दृश्य से जल रहा था। कल से मेरी जिंदगी में अहम किरदार (हीरो) बन चुके मेरे पति अचानक कमरे में आ गए। पति जी के बाद फूल जैसी दो नन्ही परी भी आ गईं और बोली, "चाचा, हम भी मौसी के साथ ही रहेंगे।" पति जी ने उनका परिचय देते हुए कअे कि वे हमारे घर के सबसे छोटे और सबसे प्यारे लोग हैं। उन दो फूलों को खींचकर मैंने उन्हें अपनी बाहों में भर लिया और पति जी से पूछा, "जेठानी को क्या हुआ?" इतना गंभीर होने की कोई बात नहीं है, वह थोड़ा बीमार है, वह आपको बाद में पता चलेगा, पति जी ने मुझे पार्टी के लिए तैयार होने के लिए कहा और कमरे से निकल गए।

सांझ होने के बाद पार्टी का माहौल धीरे-धीरे फीका पड़ गया। शरीर बहुत थका हुआ था और जिस घर में मैं बहू बनकर दाखिल हुई थी, वहां भी आराम करने के लिए ससुरालवालेकी मर्जी से रुकना पड़ा। एक बूढ़ी औरत आई और बोली, "दोनों बहुएं थक गई हैं, जाओ और थोड़ी देर आराम करो।" यह बूढ़ी माँ के शब्दों से यह अनुमान लगाना मेरे लिए कठिन नहीं था कि वह हमारी सास होगी।

जब मैं आगे बढ़ी तो मेरी जेठानी भी मेरे पीछे हो गईं। "दीदी आपने खाना खाया?" मैंने धीरे से पूछा। आँखों में आँसू लेकर, उसने जवाब दिया, "खाया बहन"। मैं यह कहते हुए कमरे में प्रवेश करने ही वाली थी कि "मैं थोड़ी देर आराम कर लूँगी", जेठानी भी मेरे कमरे में यह कहते हुए दाखिल हुई कि मैं भी कुछ देर तुम्हारे साथ बैठूंगी। मैंने उनको सोफे पर बैठने का इशारा करते हुए कहा, "हवस् दिदी, बैठे।"

"ओह सच में दीदी, क्या आप बीमार हो? क्या हुआ? मुझे बताइए दीदी।"

जेठानी ने चुपचाप अपनी आंखों से बह रहे आंसू पोंछी। कमरे में सन्नाटा के सिवा कुछ नहीं था। भले ही उसके आंसू गिर रहे थे, मेरा दिल खट्टा हो रहा था, यह सोचकर कि मैंने उनकी घाव को और खराब कर दिया है!

जेठानी ने एक पल के लिए चुप्पी तोड़ी और कहा, "तुम किसी को कुछ नहीं बताना।"

continue.........