Mamta ki Pariksha - 108 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 108

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

Categories
Share

ममता की परीक्षा - 108



आँसुओं को पोंछते हुए जूही ने आगे कहना शुरू किया, "सच कह रही हूँ माँ, मैंने एक बार फिर गलती कर दी थी जिसका अहसास मुझे आगे चलकर हुआ। आपको चकमा देकर मैं बगीचे में बड़ी देर तक छिपी रही। हल्का अँधेरा घिरने लगा था। रात के आठ बजनेवाले थे। बगीचे में बैठे प्रेमी जोड़ों को बाहर निकालकर चौकीदार बगीचे का मुख्यद्वार बंद करने जा रहा था कि तभी मैंने चिल्लाकर उसे रुकने के लिए कहा और बाहर निकल गई।

बगीचे से बाहर निकलकर मैं सड़क पर आगे बढ़ने वाली थी कि तभी उस चौकीदार ने मुझे आवाज दिया। मुझे भी कहाँ जाना था ? न कोई पता न कोई ठिकाना सो रुक गई।

पास आते हूए वह बोला, "लगता है शहर में नई हो।"

मैंने हाँ कहते हुए सिर हिला दिया।

वह मुस्कुराया और बोला, "भूखी भी लग रही हो।"
भूख से परेशान मैंने जल्दी जल्दी सिर हिलाते हुए उसे कल से ही भूखी होने की बात बताई।

मुस्कुरा कर उसने कहा, "इस बगीचे से लगी हुई मेरी एक कोठरी है। खाली पड़ी है जिसमें कोई नहीं रहता। यदि तुम चाहो तो वहाँ रह सकती हो। कुछ कमाने लगना तब जो समझ में आये वह किराया दे देना।"

अँधा क्या माँगे ....दो आँख ...वही हालत मेरी हो गई। मुझे कहीं सिर छिपाने को आसरा ही तो चाहिए था इस भीड़भाड़ से अलग जहाँ मैं सुरक्षित और लोगों की नजरों से दूर रह सकूँ।

खुद को छिपाए रखने के लिए मुझे उसका प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा। उसके घर भोजन करके मुझे बहुत दिनों बाद तृप्ति मिली थी। वो मोटे चावल जो कभी मैं देखना भी पसंद नहीं करती थी, उस दिन बहुत ही स्वादिष्ट लगे थे।

तीन चार दिन मैं उस चौकीदार की मेहमान जैसी रही। उसने मेरा पूरा ख्याल रखा था। सुबह काम पर चला जाता और रात आठ बजे बगीचे का मुख्य द्वार बंद कर घर पे आ जाता। जब भी आता मेरे लिए कुछ न कुछ अवश्य लाता। उसकी शराफत व प्यार भरे रवैये से अब मैं उससे बेखौफ हो गई थी। अब वह कभी कभार मुझसे बात भी करने लगा था। बात करते करते मैं उसके बारे में थोड़ा बहुत जानने लगी थी।

उसका नाम भँवर लाल था। लगभग चालीस साल की आयु में भी वह चुस्त दुरुस्त व आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था। वह राजस्थान के एक ग्रामीण क्षेत्र का निवासी था और अभी तक अविवाहित था। इसकी वजह पूछने पर उसने बताया कि उनके समाज में उसी लड़के की शादी हो पाती है जो दुल्हन लाने के बदले में दुल्हन के घर वालों में से किसी लड़के के लिए किसी लड़की का इंतजाम कर दे। एक तरह से शुद्ध रूप से अदलाबदली जैसा नियम था और उसके परिचितों में ऐसी कोई लड़की नहीं थी जिसे दुल्हन के बदले में देना तय किया जा सके । इस बारे में एक पत्रिका में पढ़ा तो था लेकिन जाना था उस दिन भँवर लाल से बात करने के बाद ही। तब समझ में आया था कन्या भ्रूण हत्या का परिणाम कितना भयानक हो सकता है।

उसके परिवार में उसके अलावा दो भाई और थे जिनकी शादी नहीं हुई थी। मैंने अब अपने आपको परिस्थिति के अनुसार ढाल लिया था। अब वह काम पर जाते हुए मेरे भरोसे घर खुला छोड़ जाता। उसके घर की साफसफाई करके मुझे भी थोड़ी बहुत आत्मिक खुशी मिल जाती थी। उसका भोला व्यवहार और उसकी शराफत मुझे भाने लगी थी और ऐसे में एक दिन जब उसने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा तो उम्र के इतने फासले के बावजूद मैं ना नहीं कर सकी। इसके पीछे मेरे मन में गहरे बैठ गया कानून का वह डर भी कारण था जिसकी वजह से मैं गुमनाम ही रहना चाहती थी। भंवरलाल के रूप में मुझे एक मजबूत सहारा मिलनेवाला था।

मेरी सहमति के बाद भंवरलाल ने दफ्तर से छुट्टी ले लिया पंद्रह दिनों की और मुझे लेकर राजस्थान के किसी जिले में स्थित अपने घर पर आ गया।

दो दिन बाद मेरी और उसकी शादी पूरे रीति रिवाज से सम्पन्न हो गई। गाँवभर की औरतें दुल्हन के रूप में मेरी बहुत तारीफ कर रही थीं। वो पंद्रह दिन मेरे जीवन के सबसे मधुर लम्हों वाले यादगार दिन साबित हुए जब भंवर लाल ने मुझे हर तरह से खुश रखा। मुझे कोई कमी नहीं महसूस होने दी। सास, ससुर और अधेड़ उम्र के दोनों देवर भी बड़े प्यारे लगे थे मुझे, लेकिन मैं भूल गई थी कि ये तो अभी जाल था जिसमें मेरा पूरी तरह फँसना अभी बाकी था।
नौकरी का हवाला देकर भंवरलाल मुझे गाँव में ही छोड़कर वापस शहर आ गया अपनी नौकरी करने। उसके साथ वापस आने की मेरी जिद्द को उसने परिवार की परंपरा की दुहाई देकर मनवा लिया। उसका कहना था हमारे गाँव की कोई महिला शहर में नहीं रहती। थकहार कर मुझे उसकी बात माननी ही पड़ी।

दो महीने में फिर आने का वादा करके वह शहर वापस चला गया।

उसके जाने के बाद दो दिन तक सब ठीक रहा।
वह तीसरा दिन था जब मैं अकेली अपने कमरे में सोई हुई थी। रात लगभग आधी बित चुकी थी। अपने जिस्म पर किसी का हाथ रेंगता हुआ महसूस कर मेरी नींद खुल गई। देखते ही पहचान गई, वह और कोई नहीं मँझला देवर देवीलाल था।

रात्रि के उस पहर में मेरी चीख सुनकर सास भी आ गई। उसे देखकर मैं उसके पास दौड़ गई और देवीलाल की हरकत के बारे में उसे बताया। उसका जवाब सुनकर मैं सन्न रह गई।

उसने स्पष्ट शब्दों में मुझे बताया कि 'भंवरलाल भले उसे ब्याहकर लाया है लेकिन इस गाँव की परंपरा के मुताबिक वह तीनों भाइयों की पत्नी है, और अब जबकि भंवरलाल नहीं है तो उसकी जगह इन दोनों भाइयों की खुशियों का मुझे ध्यान रखना है।'

मेरी चीख चिल्लाहट व विरोध को दरकिनार कर मुझे देवीलाल के साथ उस कमरे में धकेल कर उस महिला ने बाहर से कुंडी लगा दी जिसे मैं अपनी सास समझने लगी थी।

उस दिन के बाद से मैं दोनों भाइयों की जरखरीद गुलाम जैसी हो गई थी। दिन भर बात बात में ताने, मारना पिटना, और फिर रातों को अमानवीय अत्याचार सहते सहते दो महीने बित गए।
मुझे अभी भी भंवरलाल का इंतजार था। न जाने क्यों मेरा दिल कहता था कि मुझसे मिलकर भंवर लाल मेरा ही साथ देगा। एक एक कर कई महीने बित गए लेकिन वह नहीं आया।

सास से पूछने पर पता चला कि वह तो एक साल के बाद आएगा, ऐसा वह जाते हुए ही बता गया था। उसके इस झूठ पर मेरे सामने अपनी किस्मत पर रोने के अलावा और कोई चारा बचा नहीं था। मैं आत्महत्या करने के लिए मन को मजबूत करने लगी। अब मेरे सामने जीने का कोई मकसद भी तो नहीं था। सिर्फ उन भाइयों की अय्याशी के लिए मुझे खुद के जिंदा रहने पर शर्म आ रही थी कि तभी एक दिन कपड़े धोते हुए मैं गश खाकर गिर पड़ी।

होश आया तो देखा पड़ोस की एक बुढ़िया मेरी सास को समझा रही थी, "तेरी बहू पेट से है। अब भारी काम वाम इससे ना कराना। ध्यान रखना अब इसका।"
मन ही मन बहुत रोई, तड़पी थी मैं। न जाने किसका अंश मेरी कोख में पल रहा था और मेरी विवशता देखो कि मुझे ही अपने बच्चे के बाप का पता नहीं था।

'लेकिन जो भी हो उसकी रगों में बहनेवाला खून तो मेरा ही रहेगा न' यही सोचकर मेरी जीने की इच्छा प्रबल होने लगी।
समय चक्र अपनी गति से चलता रहा। मेरे जिस्म के आकार में धीरे धीरे परिवर्तन हो रहा था लेकिन अगर परिवर्तन नहीं हो रहा था तो सिर्फ मुझ पर होनेवाले अत्याचारों में। किसी पत्रिका में पढ़ा हुआ लेख मुझे याद आने लगा जिसमें दावा किया गया था कि कन्या भ्रूण हत्या की वजह से पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के कुछ हिस्सों में हजारों युवकों को कुंवारा ही रहना पड़ता है या फिर किसी दलाल के माध्यम से कोई लड़की खरीदनी होती है जिसका पत्नी की तरह से कई भाई मिलकर उपभोग करते हैं। लड़कियों की भारी कमी की वजह से उपजी यह मजबूरी अब उनके लिए प्रथा बन गई है जिसमें इन्हें कुछ भी अनुचित नहीं लगता।

सास जब कभी खुश होती तो यही कहती, "मोहें बेटा ही दीजो, भगवान को ढेर सारा प्रसाद चढ़ाऊँगी।"
..और मैं सोचती 'हे भगवान ! इन्हें कब समझ आएगी कि बेटी या बेटा पैदा करना माँ के हाथ में नहीं होता.. और फिर बेटियों की भारी कमी से जूझ रहे इनके समाज में आज भी बेटियों से इतनी नफरत ? बेटी पैदा ही नहीं होने देना चाहते ?'

उस दिन मुझे सवेरे से ही दर्द शुरू हो गया था। मैं चाहती थी मुझे अस्पताल में ले जाया जाए जहाँ आसानी से बच्चे को जन्म दिया जा सके लेकिन वही पड़ोस की बूढ़ी महिला फिर आ धमकी।

"अरे अस्पताल में जाके क्या करना है। इन हाथों से मैंने सैकड़ों बच्चे पैदा किये हैं।"
कुछ देर बाद मर्मांतक पीड़ा से गुजरते हुए आखिर घर के एक कमरे में ही मैंने एक बच्ची को जन्म दिया।

क्रमशः