तुमने कभी प्यार किया था?-१८
नैनीताल ठंडी सड़क पर चलना अच्छा लगता है। मन करता है बस,आवाजें सुनायीं दें, मधुर ध्वनियां आती रहें,धरा सहिष्णु बनी रहे,मिठास सतत बढ़ती रहे। यह वही सड़क है जो प्यार और संघर्ष में साथ रही। नैनादेवी मन्दिर से जब इसके मुँह में प्रवेश करता हूँ तो अतीत की यादें बारिश की बौछारों की तरह भिगो देती हैं। बहुत लोगों ने इसे अपने ढंग से समय-समय पर अनुभव किया होगा। अनुभूतियों पर लिपटा मैं भी इसमें घुसते जाता हूँ। कोट की जेब से फोन निकालता हूँ। और जो पढ़ता हूँ, वह मुझे असहज सा कर देता है। कल्पना से परे लगती है बात। अतः बार-बार मन में घुमड़ने लगती है, जब भी ठंडी सड़क के दृश्य आते-जाते हैं। सोचता हूँ इसी सड़क पर दो लेखकों के बीच ऐसी घटना भी हो सकती है क्या! विश्वास नहीं होता है। जो लेखक सत्तर-अस्सी के दशक में पचास हजार का पुरस्कार ठुकरा सकता है, वह किसी के पैर कैसे पड़ सकता है या पकड़ सकता है! मिन्नतें कर सकता है। निवेदन कर सकता है। गिड़गिड़ा सकता है। फिर मन में आता है हो सकता है, दो दोस्तों के आत्मीय संबंध की क्षणिक प्रतिक्रिया यह हो। या फिर मजाक में यह सब घटित हुआ हो। या फिर यह क्षणिक आवेग हो। जैसा प्यार में होता है।आप दोस्त से कहते हैं साथ देने को, वह नहीं-नहीं कहता है। आप उसका हाथ खींचकर उसे मनाते हैं। उसे चाय पिलाने का वादा करते हैं,नाश्ते के साथ। इस ठंडी सड़क को मैं अभी तक प्यार का पर्याय मानता आया था, वह मुझे इतना विचलित कर जायेगी, मैं सोच भी नहीं सकता था। ठंडी सड़क पर ऐसी घटना पतझड़ सा ले आती है मन में।मुझे याद आती है एक घटना ,"जब एक शोध छात्र को संस्थान के निदेशक ने निकाल दिया था और कहा था अगली ट्रेन से दिल्ली अपने घर चला जाय। उस छात्र की संस्थान के प्रवक्ता से वालीबाल खेलते समय बहस हो गयी थी लेकिन प्रवक्ता ने उसे छात्रों के बीच ऐसे प्रस्तुत किया कि शोध छात्र ने हाथापाई की। छात्र यह सुनकर उद्वेलित हो गये,संस्थान में उन्होंने हंगामा खड़ा कर दिया, शिक्षक के सम्मान के रक्षार्थ। शोध छात्र को उस दिन अतिथि गृह में रखा गया। जब एक अन्य शोध छात्र उससे मिलने गया तो वह उसके सामने रोया और रोते हुये बोला ,"किस मुँह से घर जाऊँगा? उस छात्र ने उससे सहायता का आश्वासन दिया क्योंकि वह घटना का प्रत्यक्ष साक्षी था। उसने जाँच में उसका पक्ष रखा और कहा हाथापाई नहीं हुयी थी,मौखिक तर्क हुये थे। परिणामस्वरूप उसका निष्कासन रद्द कर दिया गया।"
ठंडी सड़क की उस घटना में आगे लिखा था, उनके आँसू उनके जीवन संघर्ष में सूख चुके थे अतः वे रो नहीं पाये। यदि ऐसा न होता तो वे फूट-फूट कर रो भी देते। जिन लोगों के संघर्ष, संवेदनाओं को लेखक जीवन भर लिखकर आवाज देता रहा, वही सब उसे दयनीय स्थिति में अपने परिचित लेखक के सामने खड़ा कर देगा,मेरी कल्पना से परे था। मैं अपनी प्यार की सभी किस्सों व यात्राओं को भूल, इस उधेड़बुन में फँस गया था। क्या सचमुच ऐसा हो सकता है! मैं थोड़ी दूर चलकर बेंच में बैठ गया। मेरे सामने से एक लगभग चालीस साल की महिला गुजरी उसके पीछे उसका वफादार कुत्ता चल रहा था। महिला कुछ आगे जाकर बैठ गयी। उसके चेहरे पर दयनीय उदासी छायी लग रही थी। कुत्ता भी उसके साथ बैठ गया। वह अपनी मालकिन की उदासी से अनभिज्ञ था। वह आधे घंटे बाद उठी और पाषाण देवी की ओर चलने लगी,कुत्ता उसके पीछे-पीछे चलने लगा। पाषाण देवी पर पहुँच कर उसने इधर-उधर देखा, कुत्ते के सिर पर हाथ फेरा। और उसके बाद झील में कूद गयी। मैं दौड़कर पाषाण देवी पर पहुँचा। नीचे झील में झांका। दो नाव वाले महिला को बचाने का प्रयत्न कर रहे थे। कुत्ता झील की ओर भौंक रहा था। वह असहाय अनुभव कर रहा था।
इस बीच मेरे विचार जी और मर रहे थे। इसी सड़क पर मैंने बसंत देखा था और अब विरानी महसूस हो रही थी।
तभी समय ने मेरे कँधे पर थपकी दी। और कठोपनिषद का मंत्र बोला,"
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत"। यह मंत्र नचिकेता को यमराज द्वारा बोला गया है, कठोपनिषद में।