Mamta ki Pariksha - 103 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 103

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ममता की परीक्षा - 103



बड़ी देर तक रमा और जूही एक दूसरे से लिपटी अपना गम कम करती रहीं।
दूर खड़ी साधना कुछ देर तक उन्हें देखती रही। वह जानबूझकर उनसे दूर रही। उसने उन्हें जी भर कर रोने दिया। जानती थी जीभर कर रो लेने से दिल का बोझ कुछ कम हो जाता है।

भजन में शामिल लोगों की निगाहें भी अब उनकी तरफ घूम गई थीं। माँ बेटी का वह करुण मिलन देखकर वहाँ उपस्थित हर इंसान की आँखें नम हो गई थीं। जूही की आँखों से आँसुओं की बरसात थमने का नाम नहीं ले रहे थी। जी भर रो लेने के बाद जब माँ बेटी का जी कुछ हल्का हुआ तो रमा ने जूही से उस दिन मंदिर की सीढ़ियों से भागने की वजह पूछी।

जवाब में उसकी डबडबाई आँखो में खौफ नजर आने लगा था। ऐसा लग रहा था जैसे वह कुछ कहना चाह रही हो, और उसकी जुबान उसका साथ नहीं दे रही हो।

उसकी अवस्था देखकर साधना ने आगे बढ़कर रमा के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें मूक इशारा किया। रमा खुद भी यही चाहती थीं, सो जूही का हाथ पकड़ उसे अपने साथ लेकर अपने आशियाने की तरफ बढ़ गई।

रमा हालाँकि खुद थकी हुई महसूस कर रही थी इसके बावजूद उसकी चाल में गजब की तेजी महसूस हो रही थी। इसके विपरीत जूही की दशा बहुत ही खराब लग रही थी। चलते हुए उसके पैरों के कंपन को साधना और रमा दोनों ने ही महसूस किया था, लेकिन दोनों ही जल्द से जल्द आश्रम में पहुँचकर जूही के मुख से उसकी रामकहानी सुनने को बेताब थीं।

साधना ने जब से रमा के मुख से जूही की कहानी सुनी थी रोज ईश्वर से प्रार्थना करती कि वह जल्द से जल्द जूही को अपनी माँ से मिलवा दे और आज भगवान ने उसकी सुन ली थी। जूही के साथ उसकी भी संवेदनाएँ थीं। किसी तरह वह तीनों आश्रम तक पहुँच गईं।

आश्रम के दफ्तर वाले कमरे से ही लगे हुए बायीं तरफ के एक अन्य कमरे में रमा ने अपने रहने का इंतजाम किया हुआ था। यह दो कमरों को मिलाकर बनाया गया एक छोटा सा घर था जिसमें एक कमरे में कुछ मेज व कुर्सियों के अतिरिक्त कुछ नहीं था जब कि अंदर के कमरे में एक पलंग पर गद्दा और उसपर धुली हुई चादर बिछी हुई थी। यह रमा का शयनकक्ष था। रमा ने बड़े प्यार से कमरे में प्रवेश कर जूही को पलँग पर बैठने का इशारा किया।

साधना की तरफ संकोच से देखती हुई जूही पलंग पर सिमट कर बैठ गई। साधना के हाथ से पानी लेकर पीने के बाद अब वह आश्वस्त लग रही थी। कुर्सी खिंचकर उसके सामने बैठते हुए बड़े स्नेह मयी निगाहों से वह उसकी तरफ देख रही थी। आँखें डबडबाई हुईं थी ही। रमा जूही से कुछ पूछना चाह रही थीं लेकिन लड़खड़ाती जुबान उनका साथ नहीं दे रही थी। उनकी दुविधा को महसूस कर साधना बिल्कुल जूही के करीब बैठ गई और प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, "दीदी, आप शायद मुझे नहीं जानतीं लेकिन मैं आपको बता दूँ कि मैं भी उसी देवी की कृपाभिलाषी व कृतज्ञ हूँ जिन्होंने आपको जन्म दिया है और इस नाते धन्य हैं आप कि ऐसी देवी की कोख आपको नसीब हुई। आपकी गैरमौजुदगी में ऐसा कोई वक्त नहीं गुजरा जब आंटी ने आपको याद कर आँसू न बहाये हों। मुझे भी यह जानकर बहुत दुःख हुआ था कि एक बार मंदिर की सीढ़ियों पर आपने उनको देखकर उनसे मिलने की बजाय आप छिपकर भाग खड़ी हुई थीं। आखिर क्या वजह रही होगी तुम्हारे इस फैसले के पिछे ? क्या तुम्हें अपनी माँ की बिल्कुल भी याद नहीं आई..?"
कहते हुए साधना स्वयं भावुक हो गई थी।

और भी बहुत कुछ बात करना चाहती थी वह, बहुत कुछ पूछना चाहती थी वह जूही से लेकिन उसकी भर्राई आवाज उसके गले में ही फँसकर रह गई थी। आगे उसके मुँह से बोल फूट ही नहीं पा रहे थे।

अपनी पनियल निगाहों से जूही ने साधना की तरफ देखा, एक पल को जैसे कुछ सोच रही हो, और फिर अचानक साधना के कंधे पर अपना सिर रखकर फफक पड़ी।

साधना हौले हौले उसकी पीठपर थपक कर कुछ देर तक उसे लगातार अपनेपन का अहसास कराती रही। कुछ मिनट यूँ ही गुजर गए।

कुछ देर बाद जूही अचानक उठी और लड़खड़ाते कदमों से कुर्सी पर बैठी रमा के पास पहुँच कर उसकी गोद में सिर रखकर कातर स्वर में पुकार उठी, "मुझे माफ़ कर दो माँ ! मैं जानती हूँ मेरा गुनाह माफी के लायक नहीं है परंतु यह भी जानती हूँ कि आप जैसी ममतामयी माँ मुझे अवश्य माफ कर देंगी। मैं सचमुच भटक गई थी माँ।"
कहते हुए उसने आँसुओं से भीगे चेहरे को ऊपर उठाकर रमा की तरफ देखा, मानो उनकी प्रतिक्रिया जानना चाह रही हो।

उसकी मार्मिक आवाज सुनकर रमा के चेहरे पर जैसे जमाने भर का दर्द सिमट आया हो। वह तड़प उठी। प्यार से जूही के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, "अब तू और ज्यादा मत सोच मेरी बच्ची ! ईश्वर का लाख लाख शुक्र है कि उसने मेरी यह आखरी ख्वाहिश पूरी कर दी। मैं तो मायूस ही हो गई थी लेकिन यह जो साधना है न, इसी ने मुझे हौसला दिलाये रखा। खैर अब तू थोड़ा आराम कर ले ... जब अच्छा लगे तब बताना अपने बारे में कि ......."

उसकी बात बिच में ही काटकर जूही बोल पड़ी, "नहीं माँ ! मैं बिल्कुल ठीक हूँ। तुम्हारी गोद में आज मुद्दतों बाद मुझे यह शांति नसीब हुई है। प्लीज माँ, मुझसे अपनी गोद मत छीनो। मैं तुम्हारी गोद में हूँ, जीभर यह अहसास कर लेना चाहती हूँ प्लीज !" कहते हुए वह और उसकी गोद में सिमट गई।

कुछ पल इसी स्थिति में रहने के बाद जूही ने आगे कहा, " सच कहती हूँ माँ ! इस सुकून के लिए जो तुम्हारी गोद में मिली है , मैं तरस गई थी माँ ! उस दिन पिताजी की बात न मानकर मैंने बहुत बड़ी गलती की थी, लेकिन क्या एक गलती की सजा इतनी भयानक और खौफनाक होनी चाहिए ? नहीं माँ ! मेरा तो दिल आज तक इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि कोई इंसान धर्म, जाति और मजहब के नाम पर इंसानियत को कैसे भुला सकता है ? लेकिन ये मैंने महसूस किया है, महसूस ही नहीं किया उसे जिया भी है। कितनी खुश थी मैं उस दिन बिलाल से शादी करके। मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं दुनिया की सबसे खुशकिस्मत लड़की हूँ, लेकिन नहीं ! बहुत जल्दी ही मुझे पता चल गया था कि मैं कितनी गलत थी। बिलाल को लेकर मैं सबसे बड़ी गलतफहमी का शिकार हुई थी।

बड़े अरमान से मैंने बिलाल के घर में प्रवेश किया था। उसके अम्मी और अब्बू को मैंने आप दोनों की जगह ही देकर उनके पैर छुए थे। उस दिन बिलाल ने ले जाकर मुझे एक कमरे में बैठा दिया था। मैंने सोचा यह शायद उनका रिवाज हो दुल्हन को अलग कमरे में ले जाकर बिठा देने का। मेरे लिए बिल्कुल ही अलग अनुभव था यह सो अनजान सी बनी रही और ख़ामोश रही। कुछ ही देर बाद दूसरे कमरे से जोर जोर की आवाजें आने लगीं। ऐसा लग रहा था जैसे उनकी आपस में बहस हो रही हो। मैंने कमरे की खिड़की के पास आकर उनकी बातें सुनने का प्रयास किया। उनकी आवाजें सुन तो रही थी लेकिन अस्पष्ट होने की वजह से समझ नहीं सकी। बड़ी देर तक खड़ी रही। मुझे लगा शायद बिलाल सबको समझा बुझाकर शांत कर देंगे और मेरे पास आएंगे लेकिन ये शायद मेरी और एक भूल साबित हुई। रात आधी से अधिक बित चुकी थी और मैं अभी तक खिड़की के सामने खड़ी उनकी बातें समझने और बिलाल के दरवाजा खटखटाने का इंतजार कर रही थी। दिन भर अदालती कार्रवाई में भी भागमभाग ही हुई थी सो थकान मुझपर हावी हो रही थी और मैं जाकर कमरे में बिछे पलंग पर लेट गई। लेटते ही मुझे गहरी नींद आ गई। मुझे पता नहीं मैं कितनी देर तक सोती रही थी। जब मेरी नींद खुली खिड़की से छनकर सूरज की किरणें सीधे मेरे मुँह पर ही पड़ रही थीं। शायद धूप की वजह से ही मेरी नींद खुल गई थी। मैंने आँखें खोलकर कमरे का जायजा लिया। उस बड़े से कमरे में मैं अकेली ही थी। बिलाल का कहीं पता नहीं था। मुझे बड़े जोरों की भूख लगी थी। चाय की भी तलब लगी हुई थी। दरवाजे के पास जाकर मैंने दरवाजा खोलने का प्रयास किया, लेकिन यह क्या ? दरवाजा तो बाहर से बंद था। तो क्या मैं कैद में थी ? दरवाजा जोर जोर से खटखटाते हुए बिलाल का नाम लेकर मैं जोर से चीख पड़ी। चीखते चिल्लाते थकहार कर मैं दरवाजे पर ही बैठ गई। कुछ देर के इंतजार के बाद अचानक दरवाजा खुला और ......!

क्रमशः