we and our nature in Hindi Human Science by ROHIT CHATURVEDI books and stories PDF | प्रकृति और हम

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प्रकृति और हम

क्या है प्रकृति ? और क्या हैं हम ?
प्रकृति अर्थात निर्माता की हर वह संरचना, जिसे हमने नहीं बनाया और हमारे आसपास मौजूद है, वही है प्रकृति । परंतु कौन है वह निर्माता? जिसने हर चीज को इतनी सटीकता और संतुलन के साथ बनाया और उनमें एक गहरा पारस्परिक संबंध स्थापित किया । यदि सूरज ना होता तो यह प्रकाश ना होता, धरती घूमती ना तो ये दिन रात ना होते, मिट्टी,जल और वायु ना होते तो पेड़-पौधे ना होते, पेड़-पौधे ना होते तो हमारे जीवन का अस्तित्व ही ना होता, पेड़-पौधे ऑक्सीजन ना छोड़ते तो हम जीव-जन्तु सांस कैसे लेते, पेड़ पौधों से प्राप्त फल, सब्जियों, अन्न और औषधियां ना होती तो हम जीवित कैसे रहते। सोचने पर यह सब अजीब संयोग लगता है ना । परंतु यह संयोग नहीं, बल्कि निर्माता की अनंत और अद्भुत कला का एक नमूना मात्र है। जिसे हम देख सकते हैं, महसूस कर सकते है, जान सकते हैं । और यह सब भी हम उस निर्माता द्वारा प्रदत्त इंद्रियों की वजह से ही कर पाते हैं।
वैसे तो प्रकृति ने ही हमें भी बनाया है, हम भी प्रकृति की ही एक हिस्सा हैं, जैसे हमारे आसपास के पेड़-पौधे, वनस्पतियां, कीट-पतंगें, पशु-पक्षी, सूरज, चांद, सितारे,ग्रह-नक्षत्र, और यह ब्रह्मांड । धरती, आकाश, हवा, पानी,अग्नि, जिन पाँच तत्वों से मिलकर हमारा शरीर बना है यह भी तो हमें प्रकृति ने ही दिए हैं, तो हम प्रकृति से भिन्न कैसे हो सकते हैं।
जिस विधाता ने हमें यह सब दिया वह स्वयं कैसा होगा, कहाँ होगा हम कल्पना भी नहीं कर सकते। क्योंकि उसने हमें यह जानने की शक्ति ही प्रदान नहीं की। शायद वह भी जानता था कि यदि हम उस निर्माता तक पहुँच पाने में सक्षम हो जायेंगे तो हम अपने आप को उससे बड़ा साबित करने की महत्वाकांक्षा में उसके विनाश के भी लग जायेंगे, जैसे कि आज हम उसकी बनाई हुई प्रकृति के विनाश में लगे हुए हैं।
हम मनुष्यों के शरीर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा, जो हमारी हर गतिविधि को नियंत्रित करता है। वह है हमारा दिमाग। सारा खेल दिमाग से ही शुरू होता है और वहीँ खत्म हो जाता है। मैं यह जो कुछ लिख पा रहा हूँ, यह भी उस दिमाग की ही उपज है और जो कुछ मैंने लिखा है, यह सही है या गलत, इसका निर्णय भी आपका दिमाग ही करेगा। कहा था ना मैंने निर्माता की सभी चीजों में पारस्परिक संबंध है। हमारा दिमाग ही हमें विधाता की बनाई अन्य कलाकृतियों से अलग बनाता है। विधाता ने हमारे शरीर में दिमाग डालते समय सोचा होगा कि इस दिमाग का सदउपयोग कर यह मनुष्य इस धरती को अपनी अच्छाई और बेहतरी के लिए प्रयास करेगा और प्रकृति की अन्य चीजों को बिना नुकसान पहुचाये उनके साथ सामंजस्य स्थापित कर इस धरती को एक बेहतर जगह बनायेगा, जो प्रारंभ मे मनुष्य ने किया भी। परंतु आज हमने कितनी ही खोजें कर ली हों, हम खुद को कितना ही ज्ञानी समझने लगे हों, हमने कितना ही विकास कर लिया हो, पर ये सब अब एक निर्धारित सीमा को पार कर चुका है। विधाता ने हमें जिस उद्देश्य के लिए बनाया था, क्या था वह उद्देश्य ? क्या हमने वह उद्देश्य पूर्ण कर लिया है ? या हम उससे भी कहीं आगे निकल गए हैं। यह सब रहस्य ही है और शायद हम कभी इस रहस्य को समझ भी ना पाए। परंतु यह निश्चित है कि आज हम विकास और विज्ञान के नाम पर जो कर रहे हैं वह पूर्णतः सही नहीं है चाहें वह प्रकृति के साथ हो या हमारे स्वयं के साथ। सोचिए और देखिए अपने चारों तरफ़। क्या सब कुछ सही है? नहीं ना। हम भी इस दुनिया में एक पशु से ज्यादा कुछ नहीं। शायद उससे भी बदतर हैं हम। क्योंकि पशु-पक्षियों ने विकास के नाम पर इस धरती पर कुछ बनाया नहीं तो इस धरती का कुछ बिगाड़ा भी नहीं। हम मनुष्यों ने विज्ञान, प्रगति और विकास के नाम पर इस धरती का और स्वयं का जो विनाश किया है। वह किसी से छुपा नहीं है। दिन प्रतिदिन और अधिक विकास की अंधी दौड़ में हम लगातार विनाश करते चले जा रहे हैं।
कई युगों के बीतने के बाद जब आज विधाता अर्थात हमारा निर्माता धरती की तरफ देखता होगा तो सोचता होगा मेरी बनाई कृतियों में सिर्फ मनुष्य ही ऐसी कृति है जो अपनी अति महत्वाकांक्षा के कारण स्वयं को और अपने आस-पास की प्रकृति को लगातार नुकसान पंहुचा रहा है। मनुष्य कितना भी प्राप्त कर ले, कभी संतुष्ट नहीं होता। भले ही उससे उसका खुद का ही नुकसान क्यों ना हो रहा हो। यह रुकने का नाम ही नहीं लेता।
यह पृथ्वी, जिसे हम धरती माँ भी कहते थे, क्यों कि जब हमें यह मिली थी तब यह माँ की तरह सुंदर थी, हरी-भरी थी, हमारा पालन-पोषण करती थी , हमें जीने के लिए वातावरण देती थी । पर शायद अब हम इसे माँ कहना भूल गए हैं क्योंकि पहले यह जितनी सुंदर थी इतनी सुंदर अब नहीं रही। इसका कारण उसका पुराना होना या माँ की तरह बूढ़ा होना नहीं, बल्कि हमारे द्वारा अपने स्वार्थ के लिए इसे टुकड़ों में बांटना और इसका बेतहाशा दोहन करना है। यह हम सबके रहने की एक खुबसूरत जगह थी। हमे साथ मिलकर यहाँ रहना था। जिसके लिए हमे विधाता ने बनाया था। पर हमने इसे देशों, राज्यों की सीमाओं मे बाँट दिया। कौन होते हैं हम इसे बांटने वाले। क्या हमने इसे बनाया था? नहीं ना । फिर भी हमने इसे बाँटा। अगर हम ऐसा नहीं करते तो निर्माता की मूल भावना जिससे विधाता ने यह धरती बनायीं थी, “वसुधैव कुटुंबकम” आज भी कायम होती और जो प्राकृतिक संसाधन हमें प्रकृति ने प्रदान किए थे वो हमारे लिए कभी कम नहीं पड़ते। हमने धरती की हर उस चीज को बाँटा, जो यहाँ मौजूद थी। चाहे वो जमीन हो, चाहे वो नदियाँ हों, चाहें वो समुद्र हों, चाहें वो खनिज हों, यहाँ तक कि हमने आकाश मे भी सीमाएं बनाईं। क्या हासिल हुआ यह सब करने से ? मनुष्य ही मनुष्य का दुश्मन बन गया। पर हमें यह सब ठीक करना चाहिए था। जो हमने नहीं किया।
मनुष्य, विधाता की एक सुंदर रचना, जिसे विधाता ने इतना सुंदर बनाया था जिसे किसी साज-सज्जा की आवश्यकता नहीं थी। किसी और प्राणी को देखा है आपने साज-सज्जा करते, नहीं ना। वह सब भी मनुष्य की तरह हैं ही इतने सुन्दर कि उन्हें किसी बनावटी चीज की आवश्यकता ही नहीं है। परंतु इस माटी के शरीर को और सुंदर बनाने का दिमाग भी सिर्फ हमारा ही था। इस शारीर को फूलों से सजाने तक तो ठीक था, क्यूंकि इससे ना तो प्रकृति को कोई हानि होनी थी ना ही मनुष्य को। पर इसके बाद हम मनुष्यों ने अथक प्रयासों से प्रकृति का दोहन कर बहुमूल्य रत्न हीरे, मोती, सोना, चांदी, माणिक इत्यादि निकालना शुरू किए और उससे अपनी सुंदरता को और बढ़ाने की निरर्थक कोशिश की। और फिर उनको पाने मे लगी मेहनत और समय को ही उनकी कीमत बना दिया। उसी कीमत के कारण हमारा पतन होना प्रारंभ हो गया। यहीं हमें रुकना था और इस सब को भी रोकना था। किन्तु हम नहीं रुके, जिसकी वजह से हम एक दूसरे के शत्रु, चोर, डाकू और अंततः स्वयं के हत्यारे भी बन गए।
इसी तरह हमने जंगली और हिंसक पशुओ से अपनी सुरक्षा के लिए लकड़ी के, पत्थर के हथियार बनाए। यह भी ठीक ही था। हर जानवर भी अपनी सुरक्षा के लिए कुछ ना कुछ उपाय अपनाता है। पर हम इससे संतुष्ट नहीं हुए। क्योंकि हम अपने आप को इतनी सीमाओं में बांट चुके थे कि हमें अपने आप से ही अर्थात मनुष्य से ही डर लगने लगा था। कितनी विचित्र बात है। इसलिए हमने अपनी सुरक्षा के नाम पर और घातक हथियार यानी बारूद, बंदूक, मशीनगन, तोपें बनायीं और यही नहीं अब तो हम परमाणु, रासायनिक और जैविक हथियारों के युग मे है। सोचिए किसे मारने के लिए बनाया हमने इन्हें? अपने आप को । खुद को सुरक्षित रखने के लिए खुद को ही मारना, कहाँ तक उचित है यह सब। अब तो यह खुद के अस्तित्व को बचाने की लड़ाई बन चुकी है जो पशुओं से खुद को बचाने से शुरू हुई थी।
इसी तरह पहिया बना, बैलगाड़ी बनी, ठीक था। हम आसानी से अपनी उगाई और बनाई चीजों को एक जगह से दूसरी जगह ला लेजा सकते थे। पर मनुष्य नहीं रुका और चीजों के साथ खुद को भी और अधिक गति से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचने की चाह में, मनुष्य ने धरती का पेट से इस्पात, कोयला, पेट्रोल-डीजल, एलपीजी, सीएनजी आदि खनिज निकाले और फिर बैलगाड़ी को पीछे छोड़ साइकिल, रेलगाड़ी, मोटरसाइकिल मोटरगाड़ियां और जहाज बनाये। बहुत तेज चलना था हमें, धरती पर ही नहीं, पानी में भी और हवा में भी। पता नहीं क्यूँ ! हमने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की। अगर हम पानी में चलने और हवा में उड़ने के लिए बने होते तो हमारे पंख और गलफड़े हमें प्रकृति ने ही दिए होते। हमें जो गति निर्माता ने दी उससे हम संतुष्ट नहीं थे. हमारी पैदा की गयी गति की भूख ने हमें प्रदूषण का शिकार बनाया और कई बड़ी दुर्घटनाओं के रूप में हमारी जान लेना शुरू कर दिया। उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं लगती मुझे। यहां से भी सीख लेकर बापस मुड़ने की आवश्यकता थी हमें। परन्तु हम फिर भी ना मुड़े ना रुके, बल्कि और ज्यादा गति की चाह में अग्रसर हैं। जो हमारी बहुत बड़ी दुश्मन है। हर साल इस धरा पर लगभग साड़े 10 लाख लोग हमारे बनाये यातायात साधनों से दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं और ये आँकड़े लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं।
एक तरफ हम अपनी आवादी को वेतहाशा बढ़ाते चले जा रहे हैं और दूसरी तरफ हम अपने आपको मारने के नए-नए साधन तैयार कर रहे है आवादी, जोकि आज के समय की एक गंभीर समस्या है। आवादी बढ़ेगी तो संसाधनों की आवश्यकता भी बढ़ेगी। पर हम जानते हैं कि प्रकृति ने हमें सीमित संसाधन दिए है। फिर भी हम गलत दिशा मे जानबूझ कर बढ़ते जा रहे है। हर तरफ पेड़-पेड़ों के जंगल काट कर हमने ईंट-पत्थरों के जंगल खड़े कर दिए। फसल और पेड़-पौधों के लिए जैविक खाद, जो प्रकृति से मिलती है, उसका उपयोग ना कर हम रसायनों का उपयोग जल्द से जल्द फसल उगाने के लिए करने लगे। वो भी हमारे लिए धीमे जहर से ज्यादा कुछ नहीं। पहले क्यों नहीं थीं इतनी बीमारियाँ? सोचा कभी आपने, सोचिये। पहले जैसे खांसी-बुखार होता था बैसे अब सुगर-बीपी हो गया और अगर हम अब भी नहीं रुके तो कैंसर जैसी बीमारी भी आम हो जायेगी और हमें पता भी नहीं चलेगा. आज मेरे कुछ परिजन और मित्र भी कैंसर का शिकार हो चुके हैं. जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी। प्रकृति फिर भी हमें सीख देती रहती है. पिछले दो सालों में हमें काफी कुछ सिखाने की कोशिश की प्रकृति ने। फिर भी हम बापस “बैक तो नार्मल” हो गए। हमने कुछ भी नहीं सीखा, क्यूंकि हमने आखों पर पट्टी बाँध रखी है, हमें सीखना ही होता तो हम पहले ही सीख जाते। हमार्री गलतियों से हम ही नहीं अब तो पशु-पक्षी भी परेशान हो चुके है, बस वो कुछ बोल नहीं पाते और अपने अंत को चुपचाप देखकर निर्माता से अवश्य कहते होंगे, “ हे निर्माता, क्यों बनाया तूने इस मनुष्य को और इसके दिमाग को, इससे भले तो हम ही हैं”।
प्रकृति और हमारे बीच का यह कुचक्र अनवरत चलने वाला नहीं है यह जल्द ही मानवजाति के अंत से समाप्त हो जाएगा। हमारे पास अब भी समय है। आज आधुनिकता के नाम पर हम जाने क्या-क्या बनाते चले जा रहे हैं जिनकी इस दुनिया को कोई आवश्यकता नहीं थी। हमने व्यर्थ की आवश्यकताओं को अपने मन से पहले बढ़ाया और फिर कह दिया कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है । अब आविष्कार हमारे हित के लिए कम हमारे पागलपन को प्रदर्शित कर रहे हैं। हमारे पास साफ हवा थी। अब नहीं है, उसे साफ करने के लिए हमारे घरों मे अब यंत्र लगे है। पानी साफ नहीं, जिसे भी हमने ही दूषित किया है, उसके लिए भी हर घर मे यंत्र लगे हैं। मिट्टी को हम कैसे दूषित कर रहे हैं इसकी चर्चा हमने पहले ही कर ली। आकाश को भी भर ही चुके हैं रेडियेशन से और बाँट भी चुके हैं सीमाओं मे और स्पेक्ट्रम में। इस धरती की ही तरह। इस धरती और प्रकृति को तो हम संभाल नहीं पा रहे और जाना चाहते है दूसरे ग्रहों पर। क्यों जाना है दुसरे ग्रहों पर? इसका जवाब भी आपको शायद मिल ही गया होगा। बिल्कुल सही सोचा आपने। विनाश करने, जैसा कि इस ग्रह पर किया है। यही हैं हम और हमारा दिमाग, विधाता ने इसलिए ही वहाँ हमारे जीने के लिए वातावरण निर्मित नहीं किया।
निर्माता ने हमें और हमारे दिमाग को बनाने में इतना समय लगाया और शायद यह सोचा होगा कि अगर मनुष्य धरती को सुरक्षित और सुन्दर रख पाया तो अन्य ग्रहों को भी मैं मनुष्य या मनुष्य जैसी कृति से आवाद करूंगा। वहां भी रहने योग्य वातावरण विकसित करूंगा, परंतु धरती का हाल देख कर उसकी आगे कुछ निर्मित करने की इच्छा ही समाप्त हो गयी होगी. वो अपनी इस भूल पर बहुत पछताता होगा।
कभी-कभी मुझे लगता है कि सूर्य, जिसे हम विज्ञान की भाषा मे एक तारा समझते है। कहीं सूर्य ही वह विधाता और निर्माता तो नहीं, जिसने ये पूरा संसार बनाया और अपने आपको हमारी पहुच से बहुत दूर रखा। हमारे जीवन के लिए सूर्य का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। सूर्य के प्रकाश के बिना जीवन संभव नहीं। यह भी प्रमाणित हो चुका है कि कई मनुष्य सूर्य के प्रकाश से ऊर्जा प्राप्त कर बिना कुछ खाए-पिए काफी समय तक जीवित रह सकते है, जैसे कि पेड़-पौधे रहते है। हम मनुष्य भी किसी ऊर्जा के श्रोत से ही संचालित है। यह हम जानते हैं, उस ऊर्जा के जाते ही हम एक मिट्टी का पुतला मात्र है। पता नहीं, मेरी यह कल्पना कितनी सही है। सूर्य तक भी किसी ना किसी तरह जाने का हमने काफी प्रयास किया पर कभी सफल नहीं हुए। कई लोग कहते हैं विधाता अर्थात ईश्वर का जिन्होंने अनुभव किया है, वह भी प्रकाश की तरह ही दिखाई देता है। जो मेरी इस सोच को और मजबूत कर देता है। कहने को तो और भी बहुत कुछ शेष है। परंतु मैं अपने लेखन को यहीं विराम देता हूँ। अब आप बताएं कि आप इस सबके बारे मे क्या सोचते है। क्या अब समय आ गया है जब हमें रुककर पीछे देखने की आवश्यकता है कि पिछले कुछ दशकों में हमनें इस प्रकृति से क्या पाया और क्या बापस लौटाया ......