तेरे झरने से पहले
समर्पित
नेह को, स्नेह को
डेफोड़िल्स ही क्यों ?
यह प्रश्न अवश्य मस्तिष्क में आया होगा दिलो-दिमाग को सताया होगा आख़िर जब इतने खूबसूरत फूलों का देश है हमारा भारत तब ये ‘डेफोड़िल्स’ ही क्यों?
सच कहूँ तो मेरे मस्तिष्क ने इसको बहुत बहुत बार सोचा लेकिन यह भीतर से निकल ही नहीं पाया ! इसका सीधा सा, छोटा सा कारण था | बचपन में कभी वर्ड्स्वर्थ की छोटी सी रचना पढ़ी थी यद्ध्यपि उस रचना का जन्म नकारात्मकता से हुआ था किन्तु इन फूलों के कारण ही सकारात्मकता के परिवेश में रचना का समापन हुआ | बात इस मुद्दे की है कि प्रकृति किस प्रकार से चीज़ों में खूबसूरत मोड़ ले आती है | जिजीविषा को जन्म देती है | इसके बाद कुछ सोचना रहा नहीं | वर्ष याद नहीं, पूरी रचना भी याद नहीं लेकिन न जाने कौनसे परिवेश में एक रचना लिखी गई थी | उसका सार था कि पीढ़ियाँ हमें बहुत कुछ दे जाती हैं, हम ही उन्हें नहीं संभाल पाते |
एक और महत्वपूर्ण विचार संभवत: रहा कि ‘नर्गिस’ भी इसी जाति का फूल है | सो,बिना कुछ अधिक चिंतन किए पूरी सृष्टि को नमन करते हुए इस पुस्तक के शीर्षक का जन्म सहज ही हुआ |
वैसे, एक और बहुत महत्वपूर्ण घटना यह हो गई कि एप्रिल माह की महिला मंच की गोष्ठी किन्हीं कारणों से IIM से स्थगित होकर इस खूबसूरत गैलरी में होनी सुनिश्चित हुई | बड़ी कठिन थी डगर पनघट की कारण भी कोई साधारण तो था नहीं | गैलरी पहले ही कुछ नामों को सौंप दी गई थी,वो भी शहर से बाहर के कलाकारों को !किन्तु रविन्द्र जी के कानों में बात पहुँची,उन्होंने प्रदर्शनी वाले कलाकारों से बात की और बीच का मार्ग निकल आया | रविन्द्र जी के साथ उन अनजान कलकारों को भी बहुत बड़ा धन्यवाद बनता है जिन्होंने प्रसन्न मन से सुबह का समय महिला–मंच को दे दिया | यानि इस घटना के होने में कितने स्नेहियों के योगदान हुए, उनके प्रति अपनी स्नेहिल कृतग्यता प्रगट न करना, उनके प्रति अन्याय ही नहीं अशिष्टता होगी |
कार्यक्रम समाप्ति के बाद नहीं था कुछ भी, सब जा चुके थे, भूख के मारे हाल बेहाल था | डॉ. धीमान ऑफिस में बैठे ‘गज़ल’ पर चर्चा कर रहे थे, और मेरा ध्यान पेट पर था | ख़ैर,ऑफिस के आगे से निकली,रवीन्द्र जी द्वारा पकड़ी गई | चाय के साथ चना-चबैना था तो टूट पड़ी लेकिन पता नहीं था कि वहाँ पीज़ा भी मिल जाएगा और पराठे और अचार का तो जवाब नहीं था तो बंदी ने रविन्द्र जी का पूरा डिब्बा सफ़ाचट कर दिया |
तब तक महिला मंच की अध्यक्ष मधु सोसि,डॉ. धीमान ‘बाय’ करके निकल चुके थे लेकिन मैं नहीं जानती थी इस बहती गंगा में मुझे बहुत ज़बर्दस्त डुबकी मारने का अवसर मिल जाएगा इसीलिए शायद मेरी उपस्थिति वहाँ बनी रही होगी|
पहली बार मुलाक़ात हुई मनश्री और केता से और गपोड़ी राम यानि कि ‘मैं’ प्रणव गप्पों की पंक्ति में सदा की भाँति आगे खड़ी हो शुरू हो चुकी थी और कवि की जात ! सभी जानते हैं एक बार कविता सुनाने की बात कर भर दो, वह ऐसे अपनी पिटारी खोलता है जैसे कोई राजनेता माइक हाथ में आने पर सरेआम अपनी मुहब्बत का इज़हार करने लगे |
अचानक इंटर्नेशनल वर्ल्ड एन्वायर्नमेंट की बात निकली, देश की स्वतंत्रता की बात आई और साथ ही बात खुली कि हम उसी दिन अवतरित हुए थे | बिलकुल ख्याल नहीं था कि बात कहाँ से कहाँ पहुँचेगी ? लेकिन कहते हैं ‘हुई है वही जो राम रची राखा ‘ या फिर ‘वही होता है जो मंजूरे-ए-ख़ुदा’होता है | वैसे तो पता नहीं वो ‘मंज़ूरेखुदा’ है कौन ?कहाँ रहता है ? उसे देखा तो है नहीं कभी, हाँ महसूस किया है तो दे दिया प्रमाण उस परवरदिगार ने और इतनी शिद्दत से दिया कि झक मारकर उसी दिन शाम को लग जाना पड़ा प्रिय मनश्री के आदेश को पूरा करने में |
बला की बंदी ! पीछे ही तो पड़ गई, मुझे नहीं पता आप 75 की हो रही हैं उसी दिन तो आपका जन्मदिन भी मनाना है | इतने सारे इवेंट्स साथ में ! बस, आप मुझे प्रोमिज़ करो और प्रकृति पर अपनी लिखी 75 रचनाएँ मुझे जल्दी से जल्दी दे दो | अरे भाई ! सोच तो लूँ–साँस तो ले लूँ -कुछ समय तो दो – न - न - यानि उसकी न ने जब तक मेरे से दिल के कागज पर हाँ की कलम से ठप्पा नहीं लगवा लिया,मुझे छोड़ा नहीं गया | मैं पसीने पसीने होती रही,सोचती रही, आखिर क्या करूँगी इतने दिनों में ! दूसरे कामों के बंडल भर बोझ सिर पर लेकर घूम रही थी | सामने जो खाद्य सामग्री सजी हुई थी, उसे मुँह में डालती रही, चबाती रही| ये चबाया तभी ज़्यादा जाता है जब दिमाग कुछ खुराफ़ात कर रहा होता है |
उस समय मुझे अपने मित्र डॉ.बैनर्जी भी बड़ी शिद्दत से याद आए जिनके साथ मैंने NID में काम किया था और जो मेरे जैसे ही थे खूब गोल-मटोल !रोज़ ही तो पूछते “डॉ. श्रीमती प्रणव भारती, व्हाट इज़ देयर इन द लंच आई मीन - यू अंडरस्टैंड–"उनका मतलब होता था ‘डेजर्ट’ में क्या है ?अब चोर-चोर मौसेरे भाई, मैं चटोरी न समझती तो कौन समझता ? हम तीन-चार लोग एक साथ लंच लेते जिसमें मेरी पी,ए हिना होती, उनके पी.ए होते (नाम याद नहीं है)और होते हमारे चटकारे !
हमारे कमरे मेन बिल्डिंग से बगीचे की ओर काफ़ी दूर थे, कोई भी फ़ैकल्टी यदि किसी दिन हमारे साथ लंच लेने आ जाती तो कानों पर हाथ लगाकर नज़र ज़रूर लगा देते जिनमें विशेषकर महिलाएँ | हाय ! सो स्वीट ! देट टू विद सो मच ऑफ घी एंड ड्राइफ्रूइट्स - सो मच ऑफ कैलेरीज़ –डॉ. भारती हाऊ डू यू मैनेज ? अब इसमें मैनेज क्या करना था भई, मैनेज तो उदर महाराज को करना होता था |
मैं बैनर्जी से कहती, न खुद खाते हैं, न हमें खाने देते हैं |मि. बैनर्जी बड़े मज़े से सुनाते थे,उनकी पत्नी कहतीं बहुत भूख लगती है तो ‘जोल खाबो ‘अरे! डॉ श्रीमती प्रणव भारती, जोल कोई पेट भरने का होता है | आप जहाँ कहीं भी हैं आपको स्नेहपूर्ण स्मृति डॉ बैनर्जी | मैं उनके लिए कुछ न कुछ ड्राइफ़्रूट्स का मीठा बनाकर जरूर ले जाती जिसे वे पुकारते ‘डॉ. श्रीमती प्रणव भारती स्पेशल’! केवल प्रणव कहना तो वे जानते ही नहीं थे जबकि NID तो अंग्रेज़ों का बसेरा था,ऐसे ऊपर से नीचे तक नामों को पुकारा जाता जैसे सबने एक-दूसरे की छ्टी की खीर का स्वाद चखा हो | हम भी ऐसे ही हो गए थे लेकिन हम एक-दूसरे को बड़े आदर व सम्मान से पुकारते | हम किसी की भी परवाह किए बिना मज़े से खाते-पीते, आनंद करते | हम स्वभाव में भी लगभग एक जैसे ही थे।काम का प्रेशर होता या कोई भी चिंता होती तो अधिक खाने लगते |
जितने दिन मैं NID में थी हम दोनों मिलकर खूब खाते थे क्योंकि अधिकतर चिंता में साँस लेते थे,कभी घर की तो कभी बाहर की चिंता ! वैसे हमें तो फायदा ही था चिंता का ! हम डटकर खाते और चिंता का मुक़ाबला करके मिठाई मुँह में डालकर चुस्त हो जाते ! वैसे भी चिंता हम सबकी रिश्तेदार ही तो है तो उससे भयभीत क्या होना ?मिठाई खिलाकर उसे आनंदित कर देने में ही भलाई है उसकी और हमारी भी ! अब पेट से लेकर आत्मा तक तृप्त हो चुकी थी और बातों के सिलसिले में ऐसी डूब चुकी थी कि घर पहुँचने में शायद साढ़े पाँच बजा दिए | भाई, वहीं रह जातीं, फोन पर मित्र भी वही बात कर रहे थे,अभी भी वहीं बैठी है ?
ख़ैर,बहती गंगा में हाथ धोने के लिए कूदना ही था पिचहत्तर रचनाएँ तलाश करनी अथवा उनको जन्म देना ही था, सो जुट गए और इसका परिणाम अब आपके सामने !
इस खूबसूरत यात्रा के लिए मैं जिस-जिसको जितना भी धन्यवाद करूँ, कम ही है | रविन्द्र मरडिया जी, मनश्री , केता और इस गैलरी से जुड़े हुए उस दिन के सभी प्रबुद्ध कलाकार ! सभी कहीं न कहीं इस यात्रा में मेरी कलम और लाठी पकड़कर मेरे सहयोगी रहे |
यह यात्रा कुछ ऐसी रही जैसे समुद्र में बिना छलाँग लगाए किसीने मुझ पर सच्चे मोती उछाल दिए हों | लगाव, प्यार और अपनत्व से भरी मनश्री पैंसिल घुमाती मेरे सामने बैठी रही थी और मैं एक ऐसे बच्चे की भाँति उसके सामने बैठी रही जैसे कोई बच्चा पिटने के डर से मास्टर जी के सामने चुप्पी लगाए बैठा रहे | उस दिन मुझे अपने कत्थक के शिवदत्त मास्टर जी याद हो आए जो तोड़े गलत होने पर नीम की संटी हथेली पर लगा देते थे जो उन्होंने मुझसे ही तुड़वाई थी |हथेली पर संटी खाकर हम बच्चों की आँखें भर आती थीं |
मुझे सदा से ही लगता रहा है कि हम सबमें शब्द हैं,भाव हैं,संवेदनाएँ हैं| हम सबका जीवन कविता, कहानी,उपन्यास –कुछ भी हो सकता है | देरी है कलम उठाने की जैसे एक पेंटर के लिए ब्रश उठाने की, अथवा किसी भी कला के लिए एक कदम आगे रखने की ! उसी कदम से यात्रा का प्रारंभ हो जाता है और हम विभिन्न श्रेणियों में विभक्त हो जाते हैं किन्तु भीतर से तो हम एक ही हैं जैसे एक ही ईश की संतान ! अब आप उसको कितने ही नामों में विभक्त कर लें !
इसी भाव के निहित प्रकृति की इन 75 अछांदस रचनाओं का जन्म हुआ| मैं स्वयं एक-एक करके इनसे परिचित होने का प्रयास करूँगी |
स्नेह सहित
डॉ.प्रणव भारती
5/6/2022
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1 - पीढ़ियाँ
उन्होंने धरे थे हमारी हथेलियों में कुछ फूल
सूख जाएँगे तो क्या ?
खिलना-मुरझाना,आना-जाना
अँधेरा,उजियारा
जीवन के शाश्वत सत्य
क़ायम रहती है फिर भी सृष्टि
बीज रह जाते हैं
धरती पर गिर
फूटते हैं, नए अंकुरण के साथ
नई आस की किरण बनकर
जीते हैं, नई भोर संग
बतियाते हैं,एक-दूजे संग
करते हैं, चुहलबाज़ियाँ
खिखिलाता है, सारा संसार
झाँकता है उन्हीं में से एक चेहरा
तुम्हारा, प्यार से सराबोर !
2 - नर्गिस !
बहन डेफोड़िल्स की !
शैतान सी ! सुगंध की नन्ही सी पोटली !
तू,कर देती है सराबोर मुझे
पीले रंग से मुहब्बत है मुझे
देता है एक दोस्ताना अहसास
लगता है
तुम हो मेरे आस-पास
जीवन के अनुबन्धों को
भुनाने के बावजूद
एक दिली एहसास से तर हो जाती हूँ
शायद,खुद में तुमको पाती हूँ
या फिर, मुझमें तुमको
दोनों ही तो एक बात हैं
फिर किस बात की अड़चन
मेरे दिल ! तू
यूँ ही खिला रह
इस पीले फूल की भाँति
भरता रह मुझमें वो सुगन्धित एहसास
जो, केवल और केवल
मुहब्बत भरती है
मैं दिन - रात सुबह –शाम
केवल, तुझे याद करती हूँ
मेरे कबीर !!
3 - बादल ! तू
अरे बादल !
तू, इतना आवारा क्यूँ है ?
भटकता है कभी मेरी आँखों में
कभी मेरी साँसों में
कभी मेरे दिल की धड़कन बनकर
कभी गीला तो कभी
सूखा रहकर
केवल,करता भयानक आवाज़ें
भयभीत करता नन्हे बच्चों को -
रेगिस्तानी ज़मीन में पैदा करता तिरेड़
काँप उठती हूँ
आती हूँ बार-बार
पूछने तुझसे
समझने भी
कोई बात नहीं, तू अगर है
आवारा,नासमझ भी
उन आँसुओं से ही भीनी कर दे ज़मीन
लहलहा दे उस ज़मीन पर भी हरियाली
तू ख़ुद ही तो है माली
बादल ! तू फटने मत दे न ज़मीन का कोई भी कोना
किसी गरीब की आँखों में मत भरने दे आँसू
बादल ! तू ही तो प्यार है
धरती का, हम सबका !!
4 - मंगलकामनाएँ
मेरी मंगलकामनाओं में छिपे हैं
न जाने कितने –कितने आशीष
धरती की सुनहली कोख
जब होने लगती है उजाड़
करने लगते हो जब उससे खिलवाड़
मैं सहम जाती हूँ
अपनी गरिमा को कहीं खिसकता हुआ देखती हूँ
देखती हूँ बनों का उजड़ना
साफ़-शफ़्फ़ाक जल धारा का
थम जाना अचानक ही
दे जाता है मुझे पीड़ा
मेरे आँसू जाते हैं सूख
सुनकर उनकी बातों को
जो कहते फिरते हैं
गलियारों में ‘हमें क्या?’
यह धरा किसी एक की नहीं थाती
है सबकी, तेरी,मेरी उसकी !
बचाना होगा इसे
अपनी नस्लों को देनी होगी
एक नई तहज़ीब
नहीं,हम बच नहीं सकते
छिप नहीं सकते
कायरों की भाँति
न ही दूर जा सकते हैं इस धरा से
न अपनी मर्ज़ी से आए
न अपनी मर्ज़ी से जा सकेंगे
बस–एक शुभाशीष
रखना है बचाकर !!
5 - कुछ ऐसा
तेरे झरने से पहले
मैं भर देना चाहती हूँ
मुहब्बत का भीना पैगाम
तुझमें,तुझमें - और हाँ, तुझमें भी
उस रंग-बिरंगे बागीचे के बीच से
झरती हँसी सुनना चाहती हूँ
महसूसना चाहती हूँ
सबके धड़कते दिलों को
आँखों की गहराइयों में
तलाशना चाहती हूँ
दिल की हँसी
जो,न हो खोखली
आत्मा की अमरता का प्रमाण
समेट लेना चाहती हूँ
अपने कमज़ोर आँचल में
इतना -कि
फटने की संभावना में
मैं छिपा दूँ
उस हँसी को, उस मुस्कुराहट को
उस सुगबुगाहट को
जो कर रही है
पीछा मेरा, सदियों से !!