Sense of time in the folk life of Bundelkhand in Hindi Human Science by कृष्ण विहारी लाल पांडेय books and stories PDF | बुंदेलखंड के लोक जीवन में समय बोध

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बुंदेलखंड के लोक जीवन में समय बोध

कृष्ण विहारी लाल पाण्डेय की बुन्देली भाषा विज्ञान सम्बन्धी लेखमाला-

बुंदेलखंड के लोक जीवन में समय-बोध
के बी एल पाण्डेय

मनुष्य ने काल के निरवधि विस्तार को अपने बोध की दृष्टि से खंडों में विभाजित कर लिया । आदिम मनुष्य ने भी प्रभात, दोपहर, शाम, रात जैसी परिवर्तित समय स्थितियां देखी होंगी और आरंभ से उसे भले ही अपने सीमित और अनिश्चित कार्य व्यापारों को इनकी सापेक्षता में समझने और कहने की आवश्यकता प्रतीत ना हुई हो परंतु धीरे-धीरे समय का आयाम उसके जीवन के साथ जुड़ता गया। तब उसे समय के बदलते हुए रूपों और लघु खंडों को अपनी अभिव्यक्ति की क्षमता और साधन के अनुसार शब्द देने पड़े होंगे। तब दिन और रात के बीच की कई स्थितियों का नामकरण हुआ। क्षण,प्रहर, दिन, मास वर्ष के रूप में अधिक निश्चित समय-बोध से मनुष्य संपन्न हुआ।
वैज्ञानिक दृष्टि से विकसित आज के विश्व में समय को अत्यंत लघु इकाई को जानने के उपकरणों का आविष्कार हो गया किंतु लोक-जीवन में समय-बोध इतना निर्दिष्ट नहीं रहता। उसके कार्य व्यापारों को समय की कितनी निश्चिंता की आवश्यकता भी नहीं होती। वहां मिनटों या घंटों तक से भी कोई अंतर नहीं पड़ता है। घंटों के समय में यांत्रिक तटस्थता और निस्संगता। वह केवल स्मृति का तथ्य है जबकि लोक जीवन का समय-बोध घटना, व्यापार या परिवेश से जुड़ा है।
लोक-जीवन में समय का निर्धारण अपने परिवेश की अनेक वस्तुओं तथा प्रायः एक ही समय पुनः पुनः आवर्धित प्रकृति और मनुष्य के कार्य व्यापारों के आधार पर किया गया है। यह सच है कि आज ग्रामीण अंचल के व्यक्तियों के जीवन में भी आधुनिकता का प्रवेश हो रहा है। फिर भी परंपरा से वह अपने समय-बोध से ही जुड़े हैं। बुंदेलखंड के लोक-जीवन में भी समय-बोध का पारंपरिक रूप अब भी प्रचलित है।
प्रातः काल
सूर्योदय के पूर्व से लेकर सूर्योदय के बाद के प्रातः काल का प्रत्यय केवल सुबह या प्रातः काल शब्दों से नहीं हो पाता। बुंदेली में इस बीच के समय के लिए अनेक शब्द हैं।
भोर,भुंसरा,भुंसारौ
प्रातः काल के लिए प्रयुक्त होने वाले ऐसे सामान्य शब्द हैं जिनसे सूर्योदय के आसपास के समय का बोध होता है।
भुंसरया तरा,तला उगेः भोर का तारा उगने पर
नक्षत्रों की स्थिति और उनकी दृश्यता का आधार भी समय-बोध में सहायक हुआ है। लगभग 4 बजे आकाश में भोर का तारा उदित होता है।
‘ऊ बेरा भुंसरया तरा निकरोई हतो‘
उस समय भोर का तारा निकला ही था।
‘तरा ऊगे निगे ते।’
तारा उगने पर चले थे।
अंदयाई, इंदयाई:-
यह सुबह का वह वक्त है जब अंधेरा पूरी तरह लुप्त नहीं होता और रात भी नहीं रह जाती।
‘ भौत अंदयाई निगे हुइयौ ’
बहुत सुबह चले होगे।
अंदयाई, इंदयाई षब्द आगामी सुबह कल के भी वाचक हैं पर इस अर्थ में वक्ता द्वारा इनका प्रयोग पूर्व संध्या पूर्व रात्रि के समय ही किया जाता है।
‘ अंदयाई आइयो, अब तो वे पर रये।’
सुबह कल आना अब तो वे लेट गए हैं ।
अंदयाई-इंदयाई का प्रयोग सुबह के सामान्य रूप से भी होता है।
अंदयाई से सखियां पूछे कहां कहां सुख बारो ईसुरी
सुबह सखियां पूछती हैं पर रात का सुखाचार क्या बताऊं।
चकिया की बेरा:
अब तो गांव में भी घरों में चक्कियां नहीं चलती, पर पहले घर-घर अनाज पीसा जाता था और महिलाओं की दिनचर्या की दृष्टि से इस कार्य का एक निर्धारित समय हो गया। बड़े सवेरे उठकर महिलाएं चक्की चलाती हैं । इस कार्य में लगने वाले समय और श्रम की दृष्टि से सबेरे का समय ही उपयुक्त है क्योंकि दिन भर तो महिलाएं अन्य कार्यों में व्यस्त रहती हैं सुबह लगभग 5-6 बजे का समय चकिया की बेरा है ।
भुकाभुकौ,झुकामुकौ
प्रकाश बिंब का निर्माण करता भुकाभुकौ शब्द सूर्योदय के पूर्व के उस समय का बोध कराता है जब अंधेरा बिल्कुल नहीं रह जाता है बल्कि उषाकाल के आभास से स्पष्ट दृश्यता आ जाती है। ‘झुकामुकौ’ लगभग वही समय अथवा इससे कुछ पहले का समय है।
‘हेरों एन भुकाभुकौ हो गओ गैल चलन लगी।’
देखो काफी सवेरा हो गया रास्ता चलने लगा।
कुकरा बोले-मुर्गे के बोलने का समय।
यद्यपि मुर्गे अपनी जैविक आवश्यकताओं के कारण दिन में भी बोलते रहते हैं फिर भी सुबह उसका बोलना एक निश्चित और आवृत्तिमूलक किरया है। अतः उनका बोलना सुबह के अर्थ में रूढ़ हो गया। बुंदेली में कुकऱा बोले से सूर्योदय के पूर्व के समय का बोध होता है।
‘कुकरा बोल रओ तैं अबै तक सुसा रऔ।’
मुर्गा बोल रहा है और तू अभी तक सो रहा है ।
कतकारियन की बेरा-कार्तिक स्नान को जाने वाली स्त्रियों का समय
समय-बोध की यह प्रयुक्ति लोग जीवन के सांस्कृतिक पक्ष से जुड़ी है। बुंदेलखंड में स्त्रियों में कार्तिक स्नान के पर्व का बहुत महत्व है। गोपी भाव से कृष्ण की इस प्रेमोपासना में स्त्रियां कार्तिक के महीने भर बहुत सबेरे नदी या तालाब में स्नान और पूजा करने जाती हैं। आस-पास की स्त्रियों का एक समूह बन जाता है। जो स्त्री पहले जाग जाती है वह अपने समूह की अन्य स्त्रियों को जगाती है।
यूं तो उनके जाने का समय मिनट के हिसाब से रोज वही नहीं रहता परंतु उसमें घंटों का अंतर भी नहीं होता। यह समय सुबह से बहुत पहले का है जब तनिक भी उजाला नहीं होता । यह समय सुबह 4-5 बजे के बीच का होता है।
बुंदेली में कार्तिक स्नान करने वाली स्त्री को कतक्यारी कहते हैं। समय-बोध की यह प्रत्युक्ति कार्तिक महीने में ही बोलचाल में रहती है।
‘नोयतो उदरत्ता नो तुमार नहीं पटात और इताई कतक्यारी के बेरा उठ बैठत।’ इधर तो आधी रात तक कामकाज पूरा नहीं हो पाता और इधर कतक्यारियों के समय उठ बैठना पड़ता है।
महुअन की बेरा-महुआ की बेला
यह समय-बोध मुख्यतः ग्रामीण जीवन में प्रचलित है। फागुन चैत के महीनों में रात्रि के अंतिम पहर में महुआ टपकता है। महुआ टपकने का प्रकृति-व्यापार समय की दृष्टि से काफी नियत है। महुअन की बेरा महुआ टपकने की समयावधि ही नहीं है बल्कि सूर्योदय के पूर्व कुछ अंधेरे में हो उन्हें बीनने के लिए जाने के समय से भी संबंधित है।
बुंदेलखंड में आर्थिक रूप से अभावग्रस्त वर्ग में महुआ उदर पोषण का प्रमुख आधार रहा है। गरीब लोग सुबह महुआ बीने जाते हैं और पूरे मौसम में उनका संचय करके सुखाकर रख लेते हैं। तब हर वर्ष भर अनेक प्रकार से भोजन के रूप में उनका उपयोग करते हैं। यह लोग महुआ ना तो उसके मधुर स्वाद के लिए खाते हैं, ना उसकी मादकता के लिए, बल्कि निशुल्क रूप से संग्रहित महुआ उनके लिए खाद्यान्न का विकल्प है। ईसुरी की एक फाग से प्रमाणित होता है कि महुआ गरीब लोगों का भोजन रहा है-
आंसो ले गओ काल करोंटा।
गोंउ पिसी खों गिरूआ लग गओ मउअन लग गओ लौंका।
वैसे हाल में टपका महुआ तो मधुरता और रस का कोर्स होता ही है उस से बनने वाले अन्य व्यंजन डुुबरी, मुरका, लटा भी स्वादिष्ट होते हैं। बुंदेलखंड में यह उक्ति प्रचलित है-
महुआ मेवा गेर कलेवा गुलचन बड़ी मिठाई
दिन उगे- दिन उदित होने पर
दिन चड़े-दिन चढ़ जाने का समय
छिरयारे छिरवाये दुपर- बकरियों के चरने जाने का समय
बुंदेली में बकरी को छिरिया कहते हैं। दूसरे पशु तो चरने के लिए जंगल सूर्योदय के आसपास ही ले जाए जाते हैं पर बकरियों का समूह सूर्योदय के काफी बाद जाता है। गड़रिये बड़ी संख्या में बकरियां रखते हैं। सुबह उन्हें दुहने में समय लगना स्वाभाविक है। अतः उन्हें जंगल ले जाने में विलंब हो ही जाता है। बकरियों को ठंड भी बहुत लगती है। इसलिए उन्हें धूप निकल आने पर निकाला जाता है।
सुबह लगभग 7-8 बजे का समय छिरयाने दुपर है। दुपर दोपहर कहने के पीछे दिन का काफी भाग बीत जाने की व्यंजना है। हालांकि सुबह 7-8 बजे दोपहर नहीं होती परंतु श्रमिक समाज का दिन तो सूरज निकलने के पूर्व भी आरंभ हो जाता है और 7-8 बजे का समय उनकी दिनचर्या में काफी समय निकल जाने का अर्थ रखता है।
कौरे दुपर-कोमल दोपहर।
छिरयाये दुुपर के कुछ बाद मध्यान्ह के पूर्व के समय को कौरे दुपर कहा जाता है। जब तक मध्यान्ह का ताप प्रखर नहीं होता है। अतः समय दोपहर तो है पर अपेक्षाकृत कम ताप युक्त होने से कोमल दोपहर हो गया।
टीकाटीका टीकमटीक टीक दुपर, दुपरिया- ठीक सिर के ऊपर सूरज मध्यान्ह
बुंदेली में ‘टीक’ माथे को कहते हैं। तिलक का अर्थवाची शब्द टीका इसी से संबंधित है। टीकाटीक दुपर या दुपरिया का संबंध गर्मी की ऋतु से है क्योंकि तभी गर्मी तभी मध्यान्ह के समय सूर्य का ताप अत्यंत प्रखर होता है।
‘ जा तो टीकाटीक दुपरिया औ तीन कोस की मजल।’
यह तो सिर के ऊपर सूरज की धूप है और तीन कोस का मार्ग।
घामी लौटे,दुपर लौटे,दुपर मुरके,दुपर लटके- धूम लौटने पर,दोपहर
इस प्रयुक्ति में भी धूप के ताप से संबंधित समय-बोध है। अपराह्न में सूर्य का ताप कुछ कम हो जाता है। संध्या के पूर्व लगभग 3 बजे के ऐसे समय को घरमों लौटे, दुपर मुरके,दुपर लटकैं कहा जाता है। दुपर को दुफर भी कहा जाता है।
दुपर मुरके में मुरकै क्रिया का लाक्षणिक प्रयोग हुआ है। मुरकबो मुड़ना गत्यर्थक क्रिया का अचेतन करता दुपर के साथ प्रयोग बुंदेली की अभिव्यक्ति क्षमता का उदाहरण है। बुंदेली में दुपह स्त्रीलिंग शब्द है पर उसका बहुवचन में अधिक प्रयोग होता है। तब वह पुल्लिंग हो जाता है। ‘ अबै दुपर न मुरके’ ऐसा ही प्रयोग है। स्त्रीलिंग में दुपरिया शब्द भी है।
‘जो लड़का घरै तनकउ नई रूपत । पूरी दुपरिया मूड़ पे काड़त।’
यह लड़का घर में तनिक भी नहीं ठहरता पूरी दुपहरी सिर पर निकालता है ।
‘वे दिन कटत बैन बज्जुर के
अबे दुपर न मुरके ईसुरी
दिन छित- दिन रहते
‘दिन-छित आ जइयो।’
दिन रहते आ जाना।
दिन डूबै, डिंडूबै, दिन बूड़ै:दिन डूबने पर
यह सूर्यास्त के समय का वाचक है।
भाषा विज्ञान के समीकरण के नियम द्वारा ‘दिन डूबे’ को ‘डिंडूबै’ कहा जाता है।
वर्ण विपर्यय से ‘डूबै’ ‘बूड़ै’ होकर ‘दिन बूड़ै’ बन जाता है। इसी नियम से बुंदेली में डुबकी को बुड़की कहा जाता है। ईसरी ने ‘डूबै’ और ‘बूड़ै’ दोनों का प्रयोग किया है-
मोरी कई मान गैलारे
दिन डूबै जिन जारे इसरी
दिन बूडै़ से करत बिछौना
फिर ना जगत जगाए ईश्वरी
संजा, अन्थआ:-संध्या, अस्त
सूर्यास्त का समय संजा है । अन्थऔ भी अस्त से संबंधित है।
दोई-बेराः दो बेलाओं का समय।
इस प्रयुक्ति में विधेयात्मक रुप से समय बताने का भाव नहीं है बल्कि प्रतिबंधात्मक भाव है। लोक विश्वास के अनुसार संध्या के समय कुछ कार्य अशुभ माने जाते हैं। एक तो घर की देहरी पर बैठना वैसे भी अशुभ माना जाता है संध्या के समय बैठना तो और भी निषिद्ध है। संभवत हिरणकशिपु के संध्या समय देहरी पर मारे जाने के कारण यह लोक निषेध बना होगा।
‘दोई बेरा देरी पै नई बैठियत’
संध्या के समय देरी पर नहीं बैठना चाहिए ।
‘जा बिलैया आग लगी दोई बेरई रोउत’
यह बिल्ली आग लगी संध्या के समय ही रोती है ।
ढोरन की बेरा/ढुरयाई बेरा: पशुओं के लौटने का समय।
चरवाहा सूर्यास्त के समय पशुओं को जंगल से ‘लौटा कर’ लाता है । इस समय को ‘ढोरन की बेरा’ कहा जाता है। ‘गोधूलि बेला’ इसका तत्सम रूप है पर गोधूलि में गायों के लौटते समय उड़ने वाली धूल पर विशेष ध्यान है जबकि ‘ढोरन की बेरा’ में पशुओं के लौटने का समय पर ही ध्यान है उसके अलंकृत या काव्यात्मक रूप पर नहीं। गांव में धूल का परिवेश तो रहता ही है और वहां के लोगों के लिए गायों या पशुओं के लौटने से उड़ी हुई धूल ना तो कोई अनोखा दृश्य है, ना काव्यात्मक आस्वाद की वस्तु। गोधूलि बेला में किसी बाहरी प्रेक्षक की दृष्टि हैं, ‘ढोरन की बेरा’ में उसी परिवेश के भोक्ता की।
‘ढुरयाई बेरा हो रई मोड़ा खों देखैं रइयो’
पशुओं के लौटने का समय हो रहा है, लड़के को देखते रहना।
गोेसली की बेरा: गोसली का समय
पशु जब जंगल से चढ़कर लौटते हैं तो उन्हें ‘सार’ या ‘बेड़ा’ में बांध दिया जाता है। फिर उन्हें दुहा जाता है और चारा पानी दिया जाता है। इस समय तक सूर्यास्त हो जाता है और कुछ-कुछ अंधेरा छाने लगता है।
अंथउ की बेरा
पारंपरिक जैन समुदाय सूर्यास्त के पर्व भोजन कर लेता है। इसे अंथउ करना कहते हैं। अंथउ अस्त से जुड़ा शब्द है। सूर्यास्त के पूर्व प्रसाद प्रकाश युक्त समय को ‘अंथउ की बेरा’ कहा जाता है। समयबोध की यह प्रयुक्ति जैन समुदाय के संदर्भ में ही प्रचलित है।
लौलइया- संध्या के समय या गोधूलि को लौलइया कहा जाता है।
झूली परे - संध्या के समय कब है समय जब कुछ अंधेरा होने लगता है लेकिन कुछ दिखाई भी देता रहता है, झूली परे कहा जाता है।
दिया बाती की बेरा, दिया मिलकंे: दीपक जलने पर
आज तो गांव में भी बिजली पहुंच गई है। पहले सभी घरों में दीपक एक नियत समय पर भले ही ना जलाए जाते हो पर अंधेरा होते ही दीपक जला लिए जाते थें संध्या के बाद अंधेरा छा जाने और तक दिया जलने का समय ‘दिया मिलकै’ या ‘दिया बाती की बेरा’ कहा जाता है।
ब्याई की बेरा: रात के भोजन का समय
हालांकि पूरे समाज का अपने अपने घरों में भोजन करने का एक सामूहिक समय नहीं होता फिर भी लोक जीवन में कार्य व्यापारियों का क्रम सामान्य रूप से इस प्रकार निर्धारित है कि अलग-अलग की जाने वाली क्रियाएं भी समाज में एक समय या उसके आसपास ही संपन्न होती हैं । इसलिए दिन भर के काम से निपट कर रात में भोजन का भी प्राया निश्चित समय है। लगभग 8 बजे का समय ‘ब्याई की बेरा’ है ।
खटोलना-
सप्तर्षि मंडल के सात नक्षत्रों की आयताकृति के आधार पर उसे खटोला कहा जाता है। रात में आकाश में उसकी अलग-अलग तिथियों के अनुसार ही विभिन्न समूहों का बोध किया जाता है ।
हिन्नी-
जाड़ों में विशेष रुप से दिखाई देने वाले तारों के एक समूह को हिरनी की आकृति का आभास होता है । इसलिए उन्हें हिन्नी कहा जाता है। रात के दूसरे पहर में यह तारीख काफी ऊपर आ जाते हैं-
‘ देखो हिन्नी सामें आ गई’
देखो हिरनी तारे सामने आ गए हैं ।
सोते परै: सो जाने का समय।
वैसे तो सभी घरों के लोग एक ही समय नहीं सोते परंतु रात में एक समय ऐसा अवश्य होता है, जब अपवाद छोड़कर सभी लोग सो जाते हैं। वह समय जाड़े और गर्मी के मौसम में अलग-अलग होता है। लोक जीवन में इसी अंतर के साथ रात के इस समय का बोध कर लिया जाता है ।‘सोता पर गए’ में समय बोध के अतिरिक्त नीरवता की भी अभिव्यंजना है।
‘ काल बन्ज से लौटतन भौत देर हो ती। सोता पर गएते।’
कल व्यापार से वाणिज्य से लौटने में बहुत देर हो गई थी,सभी लोग सोगए थे।
पसर की बेरा: रात में पशुओं को चराने ले जाने का समय
अर्धरात्रि के बाद लोग अपने पशुओं को विशेष रुप से बैलों और भैंसों को चराने ले जाते हैं, इसे पसर चराना कहते हैं। वर्षा होने पर जब जंगल में घास विपुलता से उग आती है और जानवरों के आहार के लिए पर्याप्त सामग्री हो जाती है तब पर पसर चराई जाती है।
‘पावने आए तब पसर की बेरा हो रहीती।’
सुबह कोई देर तक या दिन में असमय सो रहा हो तो कहा जाता है-
‘ रात भर पसर चराउत रये का’
रात भर पसर चराते रहे हो क्या?
दिन-माह और वर्ष
हिंदी में कल की ही तरह बुंदेली में काल और कल्ल विगत और आगामी 2 दिनों के लिए प्रयुक्त होते हैं पर ध्यान है भियाने शब्द आगामी कल के लिए ही आता है। विहान से व्युत्पन्न भियाने सुबह के अर्थ के आगे बढ़कर अगले दिन का विस्तार पा गया। हालांेिक ‘भियाने अइयो’ का अर्थ कल आना तो है ही पर उसमें कल सुबह का आभास रहता है। ‘भ्याने’ सुबह के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है-
‘धरती रोज दिया मनमाने
हओ संजा, हओ भ्यार्ने इुसुरी
इसी प्रकार सकायं शब्द में भी आगामी सुबह के अर्थ के साथ ही आगामी कल का भी अर्थ निहित है।
परौं-नरौं:-
हिंदी में परसों की तरह बुंदेली में परों भूत और भविष्य दोनों कालों में आता है। संस्कृत में भी आगामी कल श्वः के बाद के दिन के लिए परश्वः शब्द है किंतु विगत कल हृय के पूर्व के दिन के लिए अलग शब्द न होकर परश्वः ही है । बुंदेली में परौं के सादृष्य में नरौं /विगत परसों के पूर्व आगामी परसों के बाद का दिन / शब्द का भी प्रयोग होता है। आज के लिए बुंदेली में आज ही शब्द है। एक दिन के अंतराल से को बुंदेली में आन्तरे या आंते रोजे आंतय रोजे तथा अन्तरयांव कहते हैं।
‘ अजा’ अंतर अथवा अंतराल है। दूध वाले का महीने भर का हिसाब करते समय कहा जाता है -
‘ ई महीना में चार अजा हंै ।’ इस महीने में चार अंतराल हैं ।
‘औखद रोजीना खाने, अजा ना परवे।’
औषधि रोजाना खाना है अंतराल ना पड़े ।
दिनों को विशिष्ट बनाने के लिए बुंदेली में जिदिनां/जिसदिन/ किदना /किस दिन/ उदनां /उसदिन/ इदनां /इस दिन/ शब्द हैं। इन्हें अलग-अलग करके कहने से विशेषीकरण कुछ बलयुक्त हो जाता है। जी दिनां, की दिनां, उ दिनां में जी, की उ और ई में ऐसा ही बल है ।
लोक जीवन में महीनों तथा तिथियों के भारतीय नाम ही प्रचलित हैं। अंग्रेजी महीनों का ज्ञान भी वह भारतीय महीनों के संदर्भ से ही ग्रहण करता है । चैत और कार्तिक कृषक समाज के बोध से फसल कटने तथा उसे बेचने से होने वाली आय के कारण विशिष्ट है। साहूकार का ऋण चुकाने के लिए किसान चैत या कार्तिक का समय निश्चित करता है।
‘ जो कछु रै गए, वे कतमी में मुजरा कर देओं। ’
जो कुछ रह गए हो वे कार्तिक की फसल पर चुका दूंगा।
‘ जो चैत तनक नौनौ हो जाय साई दालुद्दुर दूज हो जाय।’
इस चैत की फसल थोड़ी अच्छी हो जाए तो दारिद्रय दूर हो जाए।
इसी प्रकार परमा, दोज,तीज,चैथ,पांचें आदि तिथियां उसकी धारणा में रहती हैं तारीखें नहीं । एक ही दिन में दो तिथियां पड़ जाने से उसका कैलेंडर अव्यवस्थित नहीं होता। कुछ तिथियां तो व्रत और पर्व - दिवसों के रूप में विशेष रुप से स्मरणीय रहती है। ग्यास,/ एकादशी/ और परदोस /प्रदोष/ को बहुत से लोग व्रत रखते हैं और ऐसा भी नहीं है कि इन तिथियों का ध्यान उन्हें खा लेने के बाद आकस्मिक रूप से आता है।बुड़की संक्रांति,फाग, कजरियां ,नौ देवी, दसरऔ, दिवारी, देवोत्थान आदि पर्व उनके समय बोध को आधार प्रदान करते हैं ।
‘ दसरय से आज आ दिखाने। देखो कै बीस दिनों तो उसरय से दिवारी के हो गये और आज आठैं है। सो समजै कै पूरा मईना होन चाउत।’
दशहरे से आज दिखाई दिए देखो कि 20 दिन तो दशहरे से दिवाली के हो गए और आज अष्टमी हैं इस तरह समझो कि पूरा एक महीना ही होना चाहता है ।
पितृपक्ष के पंद्रह दिनों में शुभ कार्य वर्जित होते हैं । इसलिए उन्हें करये दिन /कड़वे दिन/ कहा जाता है
‘ अब काल से करय दिन लग रये। सो ई पंन्दरइया तो कछू होत नइयां।’
अब कल से कड़वे दिन लग रहे हैं। इसलिए इन पंद्रह दिनों में कुछ होता नहीं है।
शुक्ल पक्ष के लिए सुदी और उजियारो पाख तथा कृष्ण पक्ष के लिए बदी और अंदयारो पाख शब्द प्रचलित हैं।
बुंदेली में इस वर्ष को आंसोंू कहते हैं तथा विगत और आगामी साल को पर साल , पर की साल, पर कहते हैं ।
‘ आसों ले गओ साल करोंटा ’/ईसुरी/
इसे अगर हिन्दी में कहें तो ‘ इस वर्ष साल या वर्ष करवट ले गया/गयी कहा जायेगा। इसमें वर्ष या साल की आवृत्ति दोषपूर्ण रखती है पर बुंदेली में आंसों शब्द इस वर्ष का वाचक होता है, किन्तु उसके साथ पुनः साल का प्रयोग शाब्दिक भिन्नता के कारण पुनरावृतिपरक नहीं लगता। इसलिए आशों की साल भी कहा जाता है। केवल आंसों का अर्थ है इस साल, और आंसों की साल का अर्थ भी यह साल या इस बार का साल होता है।
‘आसों होंस सबई के भूले।’
‘आसों साल भाव फागुन में होउन कात बलोने।’
‘पर न हते कनू छाती में आसों तनक दिखाने।’ /ईसुरी/
पिछले साल के पूर्व तथा आगामी सालों के बाद के वर्ष को त्योंरस या त्योंस कहा जाता है। इसी सादृश्य से कम प्रचलित शब्द चैरस और पचोरस भी हैं ।
कोई वर्ष किसी विशेष घटना के कारण स्मरणीय हो जाता है। बुंदेलखंड के एक भाग में सन 1917 में प्लेग रोग इतने संक्रामक रूप में फैला था के अनेक गांव और नगर खाली हो गए थे । हर घर में ताला पड़ा था। सभी लोग घरों में आवश्यक और मूल्यवान सामान लेकर सुरक्षित तथा रोगमुक्त स्थानों में चले गए थे। सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो गई थी। विभीषिका का यह वर्ष लोगों की स्मृति में विशेष समय बोध के रूप में अंकित है। ‘प्लेग की साल’ कहने में उस वर्ष का बोध हो जाता है, जब प्लेग फैली थी। प्लेग की साल कहने में बस प्लेग की विभीषिका पर ना रहकर समय बोध हो गया है। सन 1946-47 में भी प्लेग फैली थी। सामान्यतः सन 1917 की साल को प्लेग की साल कहा जाता है, कभी-कभी अंतर बताने के लिए उसे पैली प्लेग की साल कह दिया जाता है।
‘ पिलेग सालें भये ते।’ प्लेग की साल पैदा हुआ था।
ऋतुऐंः-
बुंदेली में ग्रीष्म ऋुतु के लिए ‘जेठमास’ शब्द प्रचलित है । यहां जेठमास का अर्थ केवल जेठ का महीना नहीं है, बल्कि अर्थ विस्तार के द्वारा पूरी ग्रीष्म ऋतु है।
‘बसकारो’ पूरे वर्षा काल का द्योतक है । चैमासो भी वर्षा काल के लिए प्रयुक्त शब्द है। जैन मुनि और अन्य सन्यासी वर्ग वर्ष के शेष समय तो परिव्रजन करते रहते हैं पर वर्ष के चार माह किसी एक जगह रह कर चातुर्मास करते हैं। ‘चातुर्मास’ शब्द का इस प्रकार केवल वर्षा के चार माह में अर्थ संकोच हो गया। इसी में चैमासे शब्द बना। ‘जड़कारो’ जाड़े की ऋतु है।
‘ जेठमास’ में ग्रीष्म के सभी महीनों का समावेश होने के कारण यह शब्द बहुवचन वाचक है । एक वचन नेतृत्व ‘जेठमास’ केवल जेठ का महीना है।
‘ पूरे जेठमास कट जैं फिर अनिवासी का मटका?’
पूरी गरमियां निकल जाएंगी फिर शुरू करोगे क्या नए मटके का उपयोग ?
‘बसकारो’ ‘चैमासो’ और ‘जड़कारों’ एकवचन के रूप हैं और इनका प्रयोग बसकारे, चैमासे, और जड़कारे के रूप में बहुवचन वाचक भी होता है हालांकि आशय एक-का ही होता है।
‘चैमासे तो लग गए अब छीनर कब कराओ।’
बरसात तो शुरू हो गयी अब छावनी कब कराओगे?
‘बसकारे लग नये अब थपत कउं खपरा?’
एक वचन के अर्थ में इन शब्दों के बहुवचन प्रयोग का कार्यकाल को प्रलम्बतान या अनेक महीनों का समावेश हो सकता है। जब इन्हें अनेक अर्थ में कहना होता है तब इनके पूर्व संख्यावाची विशेषण आते हैं। केउ चैमासे, केउ जेठ मास, केउ जड़कारे।’
शीघ्रता, विलंब -
सौकारूं, सौकाऊं -सकाल, शीघ्र समय रहते।
‘सौकाऊं कड़ जाओ’ का अर्थ है जल्दी चले जाओ ताकि अधिक समय ना हो जाए।
‘भौत सौकाऊं निकरे ते। ’ बहुत जल्दी निकले थे।
यहां सौकाऊं मैं सुबह का संकेत है।
उलायते-बिना विलंब के, शीघ्रता से।
‘उलायतो निगत आ।’ शीघ्रता से चलता आ।
उलात-शीघ्रता के अर्थ का द्योतक है ।
‘उलात काय आ मचाएं। उन्ना पैरन दौ के नईं।’
शीघ्रता क्यों कर रहे हो कपड़े पहनने दो कि नहीं।
अबेर-सौकाउं विलोम अबेर है ।
‘अबेरा परी बहुत संकट है।’ ईसुरी
‘अबेर हो रई ’ देर हो रही है।
‘ आज बहुत अबेरे उठे।’ आज बहुत देर से उठे ।
अबेर शब्द सब अबेरा हो जाता है तो उसका अर्थ बिल्कुल विपरीत । अबेर न मचाओ या अबेरा ना पारो का अर्थ है जल्दी ना करो । अबेरा में शीघ्रता का अर्थ, समयाभाव से उत्पन्न हड़बड़ी है। अंधेरा यहां अबेला, असमय, अनुपयुक्त समय का समानार्थी है लेकिन वह समय पूर्णता की असमयता की दृष्टि से किसी कार्य में जितना समय लगना चाहिए उससे कम या उसके पूर्व का अर्थ अबेरा में निहित है । अबेरा विपत्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। ‘ भगवान ऐसी अबेरा काउ पे न पारे।’ ईश्वर ऐसी विपत्ति किसी पर ना डालें।
कुबेरा अनुपयुक्त समय का वाचक है इसे उपयुक्त समय की सफलतापूर्वक किया अर्थ नहीं है। कुबेरा का अर्थ है वह इस समय जो किसी कार्य के लिए उपयुक्त नहीं हो।
‘ कुबेरा हो गई और तुम अबे हियंई बैठे ’ यह अससमय हो गया और तो अभी यहीं बैठे हो।
बेरा-कुबेरा का अर्थ है समय-असमय।
‘बेरा कुबेरा हो देखवो करो । चकिया चला दई।’ समय-असमय देखा करो दिन में ही चक्की शुरू कर दी।
आतई बेरा का अर्थ है आते समय।
अबे शब्द अभी का बुंदेली रुप है ।
इस तरह बुन्देली में समय को बहुत सूक्ष्म अंश तक नामित किया गया है जो हिन्दी को समृद्धि को प्रकट करता है।