ईसुरी का श्रृंगार काव्य
डॉ.के. बी. एल.पाण्डेय
ईसुरी मूलतः श्रृंगार के कवि हैं। उन्होंने भक्ति, वैराग्य, नीति और सामाजिक जीवन पर भी फागों की रचना की है,किंतु उनकी अधिकांश फागों का विषय श्रृंगार है । फाग का संबंध होली से होने के कारण उसमें श्रृंगार स्वाभाविक रूप से जुड़ा है।
ईसुरी का काव्य सहज अनुभूति और अकृत्रिम अभिव्यक्ति का काव्य है। उनके काव्य में प्रधान रूप से लोकजीवन की भावनाएं और अनुभूतियां अपने मौलिक और अप्रच्छन्न रूप में हैं। सभ्यता की बनावट से अप्रभावित उनके काव्य में भावों का स्वाभाविक आवेग है। उनके राग विराग में औपचारिकता, गोपन या दमन नहीं है। ईसुरी का काव्य श्रृंगार की गहराइयों में पहुंचने के बाद भी विकृत रुचि का परिचायक नहीं है । उसमें कोई ग्रंथि नहीं है ।इसे समझने के लिए हमे लोकजीवन को समझना होगा ।लोक जीवन में सामाजिक और नैतिक वर्जनाएँ उतनी नहीं होती, जितनी नगरीय या अभिजात्य जीवन में होती हैं । ग्रामीण अंचलों में संबंधों में दुहरापन नहीं होता। यौन भावना वहाँ न उन्मुक्त होती है, न दमित या कुंठित । वहां यदि भाभी से हास परिहास वर्जित नहीं माना जाता, तो इस रूप में उसे सामाजिक मान्यता प्राप्त है ।
यौन संबंधों के पीछे वहां भी नैतिक और सामाजिक नियम या आग्रह हैं, लेकिन जिस सहजता के साथ श्रृंगारिक एक हास परिहास वहां हो जाता है, वह नगरीय समाज में अश्लील समझा जाने लगता है । जहां काम प्रतिबंधित होकर कुंठा बन जाता है, वहां ऊपर से उसका नाम लेना भले ही अशिष्टाचार समझा जावे पर मन में तो यह वृत्ति उभरती ही हैं। लोक जीवन में विशेष रुप से निम्नवर्गीय समाज में यौन-शुचिता नैतिकता का अन्यतम आग्रह नहीं है ।
ईसुरी के श्रृंगार में मानसिक व ऐन्द्रिय दोनों पक्षों का वर्णन है। उन्होंने प्रेम को मानसिक धरातल भाव के रूप में भी सूक्ष्म और मार्मिक दृष्टि से देखा है और प्रेम का शारीरिक धरातल पर उपभोग परक और मांसल चित्रण भी किया है । प्रेम की अभिव्यक्ति दोनों पक्षों में होती भी है । आज का मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद तो प्रेम के केवल मानसिक या भावनात्मक रूप को आदर्शवादी मानते हुए उसे सामाजिक या नैतिक नियमों के कारण विवशता मानता है, वरना प्रेम, जो भावना के रूप में उत्पन्न होता है, वह अपनी परिणति क्रियात्मक रूप में ही चाहता है। कोई भी भाव-क्रोध, करुणा- जब शरीर के द्वारा अभिव्यक्त होकर भी अनैतिक नहीं माना जाता तो प्रेम की दैहिक अभिव्यक्ति को ही क्यों हेय माना जाता है? उसे अश्लील या अनैतिक क्यों कह दिया जाता है? पवित्रतावादियों या नैतिकता वादियों की दृष्टि में प्रेम का ऐन्द्रिय पक्ष गर्हित है, लेकिन क्या यह विडंबना नहीं है कि मन में छिपा हुआ भावनात्मक प्रेम तो बुरा नहीं पर उसका क्रियात्मक रूप अनुचित माना गया। प्रेम किसी के प्रति निष्ठा पूर्ण अनुराग है, उसके व्यक्तित्व की, उसके सौंदर्य की पूजा है। यदि उसमें कोई छल नहीं है, तो क्रियात्मक या दैहिक रूप को भी पूजा के समान माना जा सकता है। प्रेम या अनुराग की भावना से रहित यही शारीरिक व्यापार वासना हो सकता है , किंतु प्रेम पूर्ण व्यवहार की ऐन्द्रियता सर्वथा मनोवैज्ञानिक है।
इसे पाप-पुण्य नैतिक-अनैतिक में विभाजित करने के पीछे सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता है। यौन- व्यवहार में उच्छृंखलता या स्वेच्छाचार न आ जाए इसलिए सामाजिक नैतिक प्रतिबन्ध आवश्यक हैं , किंतु जीवन की विभिन्न ने मान्यताओं की तरह काम भावना के प्रति भी स्थान और समय के भेद से अलग-अलग धारणाएं रहती हैं। नैतिकता भी समय और स्थान सापेक्ष होती है। किसी एक समय या स्थान में कोई प्रथा या रिवाज अनैतिक माना जाता है, जबकि दूसरे समय और स्थान में वही कर्म नैतिक रूप से स्वीकृत होता है। नैतिकता सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती है ।
इस मनोवैज्ञानिक और सामाजिक यथार्थ के संदर्भ में ईसुरी के काव्य का विवेचन किया जाए तो वह अमर्यादित और अश्लील न होकर अपने परिवेश की स्वाभाविकता में लिखा हुआ भावनाओं का सहज प्रकटीकरण लगेगा। विद्यापति ने राधा कृष्ण के आश्चर्य अवलंबन से श्रृंगार के अंतर्गत रति के अत्यंत मांसल चित्र अंकित किए हैं । सूर ने भी उत्तान श्रृंगार के अंतर्गत काम क्रीड़ाओं का खुला चित्रण किया है। विद्यापति और सूर की महत्ता यदि इन चित्रणों से कम नहीं होती तो ईसुरी भी श्रृंगार के श्रेष्ठ कवि माने जा सकते हैं ।
गत कुछ दशकों में साहित्य में यथार्थवाद के अंतर्गत स्त्री-पुरुष संबंधों का परंपरा से हटकर वर्णन किया गया है। इन्हीं संबंधों के रूप में विवाह पूर्व प्रेम तथा विवाहोत्तर या विवाहेतर प्रेम का भी विवेचन भी हुआ है। यह किसी ना किसी रूप में रीतिकालीन काव्य में भी वर्णित है। स्वकीय और परकीय प्रेम का वर्णन रीतिकालीन काव्य में बहुत हुआ है बल्कि स्वकीय (दांपत्य) प्रेम से अधिक वर्णन परकीय प्रेम का हुआ है। ईसुरी के काव्य में भी प्रेम के दोनों रूप हैं।उन्होंने दांपत्य प्रेम का भी चित्रण किया है किंतु उससे अधिक परकीय संबंधों पर रचना की है। रीतिकाल में परकीय प्रेम का वर्णन काव्य रूढ़ि या विषय रूढ़ि के रूप में किया गया।परकीय प्रेम का वर्णन काव्यशास्त्र में वर्णित रूप में ही किया जा रहा था इसलिए उसमें सजीवता या अनुभूति की तीव्रता नहीं है ।उसके मनोवैज्ञानिक पक्ष को नहीं देखा गया लेकिन रीतिकाल में ही घनानंद, आलम, बोधा, ठाकुर आदि कवियों का प्रेम वर्णन अत्यंत सजीव, मार्मिक और भावपूर्ण है । इसका कारण यह है कि वे कभी व्यक्तिगत जीवन में भी प्रेम प्रसंग से जुड़े रहे हैं और उनकी कविता विषय का निर्वाह मात्र न होकर व्यक्तिगत अनुभूतियों की अकृत्रिमता और तीव्रता से अनुप्राणित है। ईसुरी के जीवन में भी निराश प्रेम का प्रसंग जुड़ा है। इसलिए उन्होंने प्रेम की प्रबल उमंग, संयोग की उत्कट लालसा चाहत के विभिन्न रूपों और विषय की सही पीड़ा का ऐसा वर्णन किया है जो अत्यंत प्रभाव पूर्ण है।
परकीय प्रेम के वर्णन में प्रायः अधिक तीव्र कामना की अभिव्यक्ति हुई है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है ।पति पत्नी का प्रेम दांपत्य का प्रारंभिक स्वरूप का कारण न होकर परिणामस्वरूप उत्पन्न कर्तव्य बोध है ।भले ही वह प्रेम का स्वरूप प्राप्त करले, पर वह धर्म अधिक है प्रेम कम। यह प्रेम एक दूसरे की सहज उपलब्धता, स्थितियों की एकरसता और दैनिक कर्म के निर्वाह से प्रभावित होने के कारण उत्कट कामना या प्रबल आवेग नहीं बन पाता। इसमें चाहे हुए की प्राप्ति नहीं होती बल्कि अधिकतर जो मिला है उसे चाहने का कर्तव्य भाव है । इसलिए स्वकीय प्रेम में निश्चिंतता और निरापद स्थिति होते हुए भी आकुलता या उत्तेजना नहीं हो पाती। इसके विपरीत परकीय प्रेम का पारिभाषिक अर्थ है विवाहेतर प्रेम, जो कि सामाजिक नैतिक रूप से निषिद्ध या वर्जित माना जाता है। मिलन की कठिनाई , प्राप्ति की अभावात्मक स्थिति तथा अनुराग की उत्कटता के कारण इस प्रेम में आकुलता ,उद्विग्नता तथा असहनीयता के अनुभव निहित होते हैं । अपना चाहा हुआ यदि प्राप्त ना हो तो पीड़ा अधिक होती है । प्रेम वास्तव में यही है, वास्तविक भावना के रूप में उत्पन्न। प्रेम का यह अनुभव अद्वितीय होता है । इसमें आलंबन असाधारण और अनुपम प्रतीत होने लगता है। आलंबन का अलगाव या पार्थक्य मर्मान्तक लगने लगता है। वह सौंदर्य की निधि बन जाता है।
प्रेम या रति भावना मनुष्य की सहजात प्रवृत्ति है । अन्य प्रवृत्तियों की अपेक्षा मनुष्य इस प्रवृत्ति से अधिक परिचालित होता है। संस्कृति का मूल भी काम है। आकर्षण के रूप में यह सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। परस्पर विपरीत लिंगी प्राणियों में यह भाव जैविक धरातल पर रूपांतरित होने के लिए अकुलाता रहता है। श्रृंगार के स्थाई भाव के रूप में प्रेम का सर्वाधिक व्यापक होना इसी मूल प्रवृत्ति की व्यापकता और प्रखरता है।
ईसुरी ने प्रेम का वर्णन दोनों पक्षों की अनुभूति के रूप में चित्रित किया है । यह स्त्री पक्ष से पुरुष की ओर भी है और पुरुष पक्ष से स्त्री की ओर भी किंतु प्रमुखतः वह प्रेमी की ओर से प्रिया के प्रति प्रेमानुभव है। ईसुरी की 'रजऊ' भी उनके व्यक्तिगत जीवन की वैसी ही वास्तविकता है जैसी घनानंद की 'सुजान'। अंतर केवल इतना है कि 'सुजान' वास्तविक नाम है और 'रजऊ' वास्तविक व्यक्ति का काल्पनिक संबोधन।
ईसुरी के श्रृंगार का विवेचन काव्य शास्त्रीय रूप से भी किया जा सकता है और स्वतंत्र दृष्टि से भी इसमें रीति तत्व भी है और स्वच्छंद स्वानुरति भी।
कवि को अनुभव जिस समाज और परिवेश से प्राप्त होते हैं वही उसकी धारणा या दृष्टि का निर्धारण करता है । सौंदर्य-वर्णन के संबंध में ईसुरी के काव्य में इसका प्रमाण मिलता है । सौंदर्य केवल वस्तु या व्यक्ति में निहित नहीं होता। कोई वस्तु सभी के लिए समान रूप से सुंदर नहीं होती । सौंदर्य के प्रति मनुष्य की धारणाएं या सौंदर्य के मानदंड अलग-अलग स्थानों में भिन्न है। कहीं नीली आंखें सुंदरता का मानदंड है, कहीं काली। कहीं लंबी नासिका सुंदर मानी जाती है ,कहीं चपटी । किसी को छरहरा शरीर सुंदर लगता है, किसी को स्वस्थ और भरा हुआ शरीर। कहने का तात्पर्य यह है कि सौंदर्य के प्रति हमारी धारणा हमारे परिवेश से उत्पन्न होती है । इसी तरह सौंदर्य के वर्णन के लिए अभिव्यक्ति के उपकरण भी परिवेश से प्रभावित होते हैं। शिष्ट या अभिजात काव्य में तो अप्रस्तुत आदि रूढ़ हो जाते हैं और उनका प्रयोग सामान्य रूप से सभी कवि करने लगते हैं , किंतु ईसुरी जैसे लोक से जुड़े काव्य में हमें अप्रस्तुत आदि भी अधिकतर वे मिलते हैं जिनका संबंध लोक जीवन से है ।
ईसुरी के सौंदर्य चित्रण में प्रीति तत्वों से अधिक स्वतंत्र अनुभूति के दर्शन होते हैं। ईसुरी की नायिका ग्रामीण परिवेश की है, इसलिए ईसुरी ने सौंदर्य की झांकी के रूप में स्वस्थ, भरा हुआ शरीर ,गोल चेहरा, सुंदर आंखें और पुष्ट उन्नत स्तनों का वर्णन किया है-
नग नग कैसो बंदों बन्दवारो!
रजऊ को डील दुआरो!
पुष्ट जंघाएं, ऐड़ियां ,क्षीण कटि,पृथुल नितंब, मांसल उरोज ईसुरी की दृष्टि में सुंदर है । सौंदर्य की इस मांसलता में उरोजों का वर्णन ईसुरी ने सर्वाधिक किया है और मुक्त रूप से किया है। आंगिक सौंदर्य में कुछ प्रमुख अंग प्रथम दृष्टि में अपना प्रभाव डालते हैं।उरोज ईसुरी के काव्य में नारी सौंदर्य के अग्रदूत हैं-
जुबना कड़ आए कर गलियां !
बेला कैसी कलियां!
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जुबना छाती फोर दिखाने !
मदन बदन उपजाने!
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छाती लगत जुबनवा नौंने!
जिनकी कारी टोने !!
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जुबना दए राम ने तोरें !
सबकोउ आवत दौरे!!
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जुबना छियो न मोरे कस के!
भरे नहीं रंग रस के !
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जुबना अबे होन दो स्यानें!
आएं तुम्हारे लाने !
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जुबना कौन यार को खो दइए! अपने मन में कईए!
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जुबना नोंकदार प्यारी के !
अबे बैसवारी के!!
ईसुरी ने अलग-अलग अंगों का भी सौंदर्य चित्रण किया है और सुंदरी का संश्लिष्ट चित्रण भी । आकार गत सौंदर्य के साथ ही गौर वर्ण, आभा, ज्योति का भी वर्णन है ।सौंदर्य-वर्णन में स्वभाव का भी महत्व है। सुकुमारता, लज्जा आदि ऐसे ही गुण हैं । दृष्टि, गति, झुकना आदि विभिन्न हाव और मुद्राएं भी ईसुरी की दृष्टि से ओझल नहीं हुई ।
यह सौंदर्य आमंत्रित करता है, आकर्षित करता है ,उपभोग की कामनाएं जगाता है । सौंदर्य की वृद्धि आभूषणों और वस्त्रों से होती है। ईसुरी ने ग्रामीण परिवेश के आभूषणों और वस्त्रों का भी चित्रण किया है । इसलिए यह सौंदर्य काल्पनिक न लगकर जीवंत प्रतीत होता है।
यह सौंदर्य देखकर प्रेम का उदय होना स्वाभाविक है। पूरे वेग से उमड़ कर यह प्रेम मिलन के लिए आतुर हो उठता है । ईसुरी ने संयोग श्रृंगार के अंतर्गत रति के मांसल चित्र अंकित किए हैं लेकिन अधिकतर यह संसर्ग या रतिक्रीड़ा चाह के रूप में हैं ,वास्तविक रूप से प्राप्ति कम ही हैं। कहीं चुंबन की लालसा है,कहीं उरोजों को जी भर कर मसलने की और कहीं साथ सोने की । रति कामना नायक की ओर से तो है ही, कहीं कहीं नायिका की ओर से भी उसका निवेदन है । जहां विद्यापति सूर या रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार के अंतर्गत संभोग का क्रियात्मक वर्णन किया है, वहीं ईसुरी के काव्य में यह प्रत्यक्ष रूप से वर्णित नहीं है ।यह प्रायः कामना के रूप में है ।
ईसुरी का विरह वर्णन भी सजीव और मार्मिक है। उसमें काव्य रूढ़ियों का निर्णय नहीं है ना विषय का परंपरामुक्त युक्त वर्णन है ।हालांकि भाव दशाओं का निरूपण शास्त्रीय ढंग से भी किया जा सकता है फिर भी ईसुरी का काव्य आत्मस्फूर्त है। यह विरह, मिलन और काम तुष्टि के बाद की स्थिति नहीं है बल्कि प्रिया को पाने की उत्कट चाह के रूप में है। नायिका के प्रति प्रेम इतना व्याकुल कर देने वाला है कि उसे देखे बिना उसके साथ रहे बिना शांति ही नहीं मिलती। मिलन आसान नहीं है, इसलिए नायक सोच सोच कर ही रह जाता है, परकीय प्रेम की तीव्रता में नायिका अपने पति के पास नहीं जाना चाहती।गौना उसे दुखद लगता है-
कइयों गौने जोग मैं नइयाँ !
अबै आएं न सईयां !!
ईश्वरी ने वियोग के अंतर्गत अत्यंत सूक्ष्म अनुभूतियों का चित्रण किया है।
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70 हाथीखाना,थोक सब्जी मंडी, दतिया मप्र 475661