yesterday and today in Hindi Short Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | बीता कल और आज

Featured Books
Categories
Share

बीता कल और आज

-----------------------

आज जब कल की बात सोचती हूँ तो लगता है एक सपना जीती रही हूँ ताउम्र ! जीवन के शिशुपन से आज जीवन की अंतिम कगार पर खड़े हुए एक लंबी, असहाय सी श्वाँस निकलकर मेरे चारों ओर पसर जाती है | न, उनमें कोई ऎसी तड़प नहीं है कि आँसुओं से लबरेज़ हो जाएँ आँखें या फिर वो श्वाँस निस्तब्ध सी मेरे व्यक्तित्व को असहाय बनाने के लिए सामने खड़ी मिले | 

उसमें है जीवन का वो द्वन्द जो न जाने कितनी सँकरी गलियाँ खोलकर एक दृश्य अंकित करता है फिर वे दृश्य बदलते रहते हैं, उनके परिवेश भी, उनके चरित्र भी और हाँ उनमें गड्डमड्ड हुई मैं भी !

जन्म लिया तो नाउम्मीदी की सिहरन भरी देखी सबके मन में, सबकी आँखों में, सबके दिल में ! हाँ, प्रश्न बड़ा लाज़मी है उत्सुकों के लिए और हाँ, मेरे लिए भी था ही | भला एक जन्मते बालक को कैसे मालूम कि उसके जन्म के समय वातावरण में कितनी गरमाई रही होगी और कितनी ठिठुरन! लेकिन जब सालों-साल इसकी चित्रात्मक अभिव्यक्ति होती रहे तो वह चित्र पुतलियों में सिमट ही आता है | ऐसा ही कुछ संभवत: मेरे साथ भी हुआ होगा, ऐसा मैं सोचती हूँ | 

सुना है जब मैं अपनी माँ के गर्भ में थी तब वे एक छोटे शहर में रहती थीं | भारत अंग्रेज़ों से छुटकारा लगभग पा चुका था | ये डॉक्टर इंग्लैंड रिटर्न थीं, नाम था डॉ. शांता मल ! बड़े जलसे थे उनके !उनकी माँ एक अँग्रेज़ स्त्री थीं जिन्होंने उस छोटे शहर के एक बड़े से व्यापारी के साथ विवाह किया था | शांता की माँ का नाम डेज़ी मल था और उस ज़माने में जब लड़कियों को अधिक क्या बिलकुल ही बाहर पढ़ने की स्वतंत्रता नहीं थी अँग्रेज़ माँ के कारण इंग्लैंड में मैडिसिन की पढ़ाई करने बड़े शानो-शौक़त से भेजा गया था | माँ डेज़ी साथ गई थीं, लेकिन न जाने कैसे शांता अकेली भारत आई थीं | सुना गया था कि डेज़ी अब स्वतंत्र भारत में नहीं रहना चाहती थीं और शांता अपने जन्मस्थान पर पिता के पास रहकर अपने लोगों की सेवा करना चाहती थी | ख़ैर जो भी हुआ हो , वे उस छोटे से शहर की खूब बड़े नाम की डॉक्टर थीं | 

शांता मल एक युवा, ख़ूबसूरत डॉक्टर थीं और उन्होंने माँ को आश्वासन दिया था कि इस बार उनका बच्चा बच ही जाएगा | 

अब सोचकर देखें जो माँ लगातार वर्ष दर वर्ष संतानों को जन्म देती रही हो और जिसकी गोदी में चिड़िया के बच्चे ने भी पँख न फड़फड़ाए हों, जिसकी गोदी में शून्यता का ठप्पा लगा दिया गया हो, वह कैसे सोच सकती है कि उसका यह बच्चा उसके अंक का गर्व बन ही जाएगा !

अविश्वसनीय रूप से बचना और एक नार्मल ज़िंदगी जीना, इसके साथ न जाने कितनी कहानियाँ जुड़ती रहीं जो मस्तिष्क के पटल पर कम्प्यूटर में सिमटी एक मोटी फ़ाइल सी जमा होती रही जो आज तक भी मोटी और मोटी होती जा रही है | यहाँ तककि गांधी जी के निर्वाण के समय की भी एक फ़ाइल है जिसमें एक नन्हे छह माह के बच्चे को तौलिए में लपेटकर गांधी जी की अंतिम देह-दर्शन के लिए ठसी हुई रेलगाड़ी में पिता की बाहों में सिमट दिल्ली जाना और मज़े की बात कि गाँधी जी की चिता के भी दर्शन न हो पाना | ऊपर से परिवार का बिछुड़ जाना और जब माँ के हाथों में पहुँचना तब तो कमाल !

सबकी आँखों में एक घबराई उत्सुकता ! बच्चे को खो देने का भय और शायद उसके लिए मानसिक तैयारी भी ! लेकिन 'जाको साइयां, मार सके न कोय' सुबह से भूखे प्यासे बच्चे का उछलकर माँ के सामने किलकारी भर देना किसी सपने या कहानी से कम कहाँ लगा होगा?माँ -पिता के लिए वह एक चमत्कारिक आशीष बन गई| 

यह कल की बात थी, आज तक की यात्रा में चलते-चलते न जाने कितने पात्र जीवन में आए और गए भी ! और वह 'बची -खुची ' आज भी अपने होने, न होने के बीच अपनी आँखों में अविश्वसनीय वास्तविकता को घूँट-घूँट पी रही है | यह सपना बड़ा अजीब लगता है और अविश्वसनीय भी !

कल की बात ये भी है कि बचे-खुचे व्यक्तित्व से सुन्दर, स्वस्थ्य नए कोंपल फूटे जिन पर गर्वित भी हुई | जिन्हें सँवारा,  सजाया गया| बड़ा किया गया, सारे कर्तव्यों का पालन भी किया गया, उनकी पसंद को अपनी पसंद माना गया | जीवन की गति चलते रहने में ही है, हाँ, वह निर्बाध नहीं होता | सो, कुछ बाधाएँ आनी स्वाभाविक थीं| सो, आ गईं बिना दस्तख़त दिए | 

ऊबड़-खाबड़ जीवन की अपनी ही कहानी होती है और वह कमोबेश चलती ही रहती है जैसे सबकी चलती है | 

"सभी के जीवन में कुछ न कुछ चलता है | " एक दिन उसने मुझसे कहा था | 

"हाँ, बड़ा स्वाभाविक है, न चले तो जीवन रह कहाँ जाएगा ? स्थिरता यानि समाप्त !" मुस्कुराते हुए मैंने उत्तर दिया | 

"फिर भी हम पीड़ित रहते हैं !"

"हाँ, क्योंकि मनुष्य हैं हम ---"

"चुभती हैं बहुत सी बातें, लरजने लगते हैं आँसू --"

बात आई-गई हो गई | कितने -कितने संवादों के बीच से गुज़रती हुई मन की खिड़की कभी बंद होती रही तो कभी ग्रीष्म की लूएँ झेलती रही | कभी सौंधा सा मौसम पारिजात झरकर महकाता रहा तो कभी शीत की ठिठुरन किसी कोने में दुबकने को बाध्य करती रही | लेकिन जीवन थमा नहीं, वह चलता ही तो रहा कभी आँसुओं के पतनाले के साथ तो कभी मुस्कानों की चादर ओढ़े | 

आज जीवन के अंतिम मोड़ पर खड़े पूरे जीवन को आँकने का प्रयास करता मन बहुत सी कहानियों को दोहरा लेना चाहता है | आनंदपूर्ण क्षणों को मुट्ठी में भींचकर सँभाल लेना चाहता है, पीड़ादाई क्षणों को विस्मृति की कोठरी में बंद कर देना चाहता है किन्तु ऐसा हो नहीं पाता | लहराते, इठलाते हुए ये पीड़ाएँ जैसे झरोखे से निकल सामने मुस्कुराने लगती हैं | कभी-कभी तो महसूस होता है दिल किसी ने भींचकर उसमें से पीड़ा का पतनाला बहा दिया हो !

चलती हैं तो ग्रीष्म की तपाने वाली लहर, शीत लहर, बासंती पुरवाई, हँसी की खनखनाहट, आँसुओं की बूँदों के अहसास सब ही तो साथ होते हैं | एक भी संवेदना ऐसी नहीं जिससे पीछा छुड़ाया जा सके | 

उस 'बची-खुची' ने जीवन की सत्यतता को स्वीकार करके एक सार्थक संदेश देने का निर्णय ले लिया है | जब तक जीएगी आनंद का वातावरण बनाने का प्रयास करती रहेगी | बताएगी अपनी कहानी, सुनाएगी गीत आनंद और पीड़ा के ! जीवन आज भी वही है, कल भी वही था, आगे भी वही रहेगा | जीवन का नग़मा एक ही सुर में नहीं गाया जाता रहा है और न ही गाया जाता रहेगा चाहे वह कल था या आज है | रात-दिन,  सूर्य-चन्द्रमा का उगना, ढलना ब्रह्माण्ड के एक शून्य से उदित होता हुआ जीवन अंतिम समय तक यूँ ही रहेगा | बदलता रहेगा केवल समय! किरदार, पात्रों से संवाद !!

 

डॉ.प्रणव भारती