The Author बिट्टू श्री दार्शनिक Follow Current Read दार्शनिक दृष्टि - भाग -2 - स्त्री शिक्षा कहां तक सही? By बिट्टू श्री दार्शनिक Hindi Philosophy Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books I Hate Love - 6 फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर... मोमल : डायरी की गहराई - 47 पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती... इश्क दा मारा - 38 रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है... डेविल सीईओ की मोहब्बत - भाग 79 अब आगे,और इसलिए ही अब अर्जुन अपने कमरे के बाथरूम के दरवाजे क... उजाले की ओर –संस्मरण मनुष्य का स्वभाव है कि वह सोचता बहुत है। सोचना गलत नहीं है ल... Categories Short Stories Spiritual Stories Fiction Stories Motivational Stories Classic Stories Children Stories Comedy stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Moral Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Thriller Science-Fiction Business Sports Animals Astrology Science Anything Crime Stories Novel by बिट्टू श्री दार्शनिक in Hindi Philosophy Total Episodes : 8 Share दार्शनिक दृष्टि - भाग -2 - स्त्री शिक्षा कहां तक सही? (2) 2.4k 6.9k स्त्री शिक्षा कहां तक सही?मित्रो आज के समय में स्त्रियां शिक्षण, नौकरी और धंधे के क्षेत्र में अच्छी - खासी तरक्की कर रही है। अधिकतर स्थानों में पुरुषों से अधिक स्त्रियां कार्यरत है। पिछले कुछ दशकों के मुकाबले यह अच्छी बात है की स्त्रियां प्रयास करने लगी है, उनका शोषण कम होगा।हालाकी यह भी देखने में आ रहा है की पुरुषों में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और अधिकतर पुरुषों की आय परिवार का स्वतंत्र रूप से पालन पोषण करने लायक नहीं हो पा रही।शिक्षा का सीधा अर्थ है शिक्षण। अर्थात कुछ ऐसा सीखना जो सब के लिए शुभ हो और उपयोगी भी।जहां तक स्त्री सहज स्वभाव है वह किसी भाव के आधीन अत्यंत ही शीघ्रता से हो जाती है। उनके निर्णय भी भावनाओं के वश ही होते है। और उनके मन में भावनाएं अत्यंत ही शीघ्रता से बदलते रहते है। यह भाव अधिकतर इंद्रियों के सुख के आधीन बदलते है।जहां तक पुरुष सहज की बात है उनको अधिकतर स्वयं से ऐसा कोई भाव कम ही होता है। उनके अधिकतर निर्णय और मन के भाव परिस्थिति, उनके कार्य में सफलता अथवा कार्य मे प्रगति के आधीन होते है। उनकी आय कितनी है, उनका खर्च कितना होगा, अपने परिवार का पालन, सुरक्षा, आवश्यक संसाधन केसे जुटाए जाएंगे यह सब उनके स्वभाव में निहित होता है।इन दोनो के यह स्वभाव के आधार पर पुरुषों को आमदनी और स्त्रीयों को अन्य के मन को भावनात्मक सहाय करने का कार्य संभालना उचित है।जहां तक शिक्षा की बात आती है तो पुरुषों को अपना कार्य अधिक सटीक और अधिक से अधिक आमदनी केसे करे, जन सेवा और स्वयं के धंधे रोजगार को केसे बढ़ावा दे, अनुशासन केसे करे आदि सीखना जरूरी है। स्त्रीयों को अपने नजदीकी लोगो का कार्य अधिक से अधिक सुचारू केसे हो पाए यह देखना और सीखना आवश्यक है। यही शुभ है। क्योंकि वे मन के विचार और भाव समझ लेती है। औरो की आवश्यकता बिना बोले समझने की प्राकृतिक कला रखती है।ऐसे में यह आवश्यक है की स्त्रियां अपने चरित्र, रूप, अपने नजदीकी लोगो को तकलीफ समझना आदि शिक्षा प्राप्त करे। यदि वे आज का शिक्षण प्राप्त करने में और नौकरी - व्यवसाय में अपना समय और ऊर्जा लगा देती है तो वे अपना स्त्री सहज कोमल स्वभाव छोड़ने लगेगी। स्त्री जो की एक विश्वास और ममता की प्रतिमा के रूप में पूजनीय है वे तार्किक हो जाएंगी। जिस वजह से परिवार में कलेश होगा और लोग आशंकित होने लगेंगे। विश्वास रखने से डरेंगे। मन की शांति, यश आदि नाश करने लगेंगे। इससे व्यक्ति, परिवार, समाज और देश का पतन होते जाएगा। स्त्री को भी अक्षर ज्ञान मिलना आवश्यक है। जिससे वह लिखी हुई बात को समझ पाए और अपनी बात लिख कर के समझा पाए। संदेश की लेन - देन कर पाए।स्त्रीयों में यह भाव बनाए रखना की समाज और देश के हर कोई व्यक्ति विश्वास पात्र है, यह नैतिक कार्य समाज और देश के सारे पुरुषों का है।क्योंकि जहां कही पर स्त्रीयों ने पुरुषों का कार्य किया है वहां विनाशिक प्रवृत्ति अधिक होती है।पहले के समाज में और आज के समाज में एक बात तो अभी तक सामान्य है की वे पुरुषों का चरित्र उनकी आमदनी और स्त्रीयों का चरित्र उसकी कुशलता पर निर्धारित करते है।यदि स्त्री आमदनी करने लगे तो स्वभावत: पुरुष की आमदनी कम होने लगेगी। इसका सीधा प्रभाव समाज के लोगो का पुरुष के चरित्र के प्रति पड़ेगा। अधिकतर यह देखा जाता है की जहां किसी स्त्री और पुरुष में एक दूसरे के प्रति प्रेम जन्म लेता है वहां पुरुष की आमदनी और स्त्री का मर्यादा सभर शीलन और कोमल व्यवहार देखा जाता है। जब स्त्री आमदनी जुटाने लगती है तो एक तरह से यह सूचित होता ही है की पुरुष अपने परिवार और प्रजा के पालन हेतु आवश्यक समर्थ नहीं। यदि विवाह के पूर्व ही स्त्री आमदनी करने लगती है तो स्त्री अधिकांश अन्य पुरुष को असमर्थ समझने लगती है। हां यदि पुरूष का स्वास्थ्य सही नहीं है, उसकी मृत्यु हो चुकी हो, परिवार में अन्य लोग न हो जो स्त्री को सम्मान सह सहयोग करें तो ऐसे में आवश्यक है की वह स्त्री स्वयं और स्वयं की संतान के पालन पोषण हेतु आमदनी शुरू करें।हां यह भी देखा गया है जब से स्त्री सशक्तिकरण को बढ़ावा मिला है और स्त्रीयों ने आमदनी शुरू करी है, तब से पुरुषों में रोजगार की कमी की चीखें भी उठ रही हैं।सामान्य परिस्थितियों में,आमदनी करने जाती हुई स्त्री पहले के समय में चरित्र हीन मानी जाती थी। आज के समय में भी अधिकांश परिस्थितियों में यह बात सत्य है। जो भी स्त्रियां आमदनी के लिए घर से बाहर निकलती है वे एक अथवा अधिक तरीके से किसी ऐसे जपेटे में आ ही जाती है जो उनके स्वास्थ्य, रूप, कुशलता को कम करती है। साथ ही बहार की लोगो की निर्दयता उस स्त्री के मन से विश्वास, प्रेम, स्वीकृति आदि कोमल भाव को नष्टप्राय: ही कर देते है। और उनकी मति सुचारू शासन से भटक जाती है। उसे सही करने के प्रयास को स्त्रियां स्वयं का अपमान समझ लेती है और विद्रोह करती है।जिस समाज, संस्कृति और देश या प्रदेश में स्त्रियों का सहयोग न रहे वहां पतन निश्चित ही देखने को मिलता है।-बिट्टू श्री दार्शनिक#दार्शनिक_दृष्टि___________________________________________________आप अपना मत हमे इंस्टाग्राम @bittushreedarshanik पर जरूर लिखे। समाज की मान्यता और उसके प्रभाव के बारे में जानने के लिए आप हमे इंस्टाग्राम पर जरूर लिख सकते है। और कोन कोन से विषय पर आप दार्शनिक_दृष्टि से देखना चाहते है वह भी हमे इंस्टाग्राम आईडी पर लिख सकते है। सहयोग के लिए धन्यवाद ‹ Previous Chapterदार्शनिक दृष्टि - भाग -1 - समाज मे युवाओं पर भरोसे के हालात › Next Chapter दार्शनिक दृष्टि - भाग -3 - ब्याह कब ? आमदनी के बाद या पहले ? Download Our App