हीरा दे : एक वज्रहृदया क्षत्राणी
संवत 1368, वैशाख का निदाघ पत्थर पिघला रहा था। तभी द्वार पर दस्तक सुनी और हीरा-दे ने दरवाजा खोला। स्वेद में नहाया उसका पति विका दहिया एक पोटली उठाये खड़ा था। उसका काँपता शरीर और लड़खड़ाता स्वर, चोर या तो नैण से पकड़ा जाता है या फिर वैण से। तिस पर हीरा-दे तो क्षत्राणी थी; वह पसीने की गंध से अनुमान लगा सकती थी कि यह पसीना रणक्षेत्र में खपे पराक्रमी का है या भागे हुए गद्दार का।
" मैंने जालोर का सौदा कर दिया " - विका ने हीरा-दे की लाल होती आँखें देखकर सच बक दिया। इतना पर्याप्त था। शेष बातें तो वह जानती थी। वह जानती थी कि किले के निर्माण में रही खामी को केवल उसका भरतार जानता है। आज उसका पति चंद स्वर्ण-मुद्राओं के बदले सोनगरा चौहानों की मान-मर्यादा और प्राण संकट में डाल आया। अलाउद्दीन कितना बर्बर है, वह जानती थी।
एकाएक उसकी आँखों के सामने जालोर दुर्ग के दृश्य तैरने लगे। एक तरफ़ कान्हड़देव और कुंवर भतीज
वीरमदेव म्लेच्छ सेना के भीड़ रहे हैं तो दूजी तरफ़ क्षत्रिय स्त्रियों ने जोहर की तैयारी कर ली है। तलवारों की टँकारों से व्योम प्रकम्पित और धरा रक्त से लाल। हीरा-दे ने झटपट आँखें खोल स्वयं को दुःस्वप्न से बाहर लाया।
उसके पास इतना समय नहीं था कि वह लाभ-हानि का गणित लगाती। माँ चामुंडा का स्मरण किया और कुछ पग आगे बढ़ाते हुए म्यान देखी। वह कटार दुर्भाग्यशालिनी जो शत्रु की छाती को छोड़ म्यान में सोती हो। क्षत्रिय के लिए कटार केवल शस्त्र नहीं, धर्म स्थापना की साधना में पवित्र आयुध है।
" यह तलवार आज यहाँ है; इसलिए हजारों-लाखों क्षत्राणियों के सुहाग उजड़े हैं, कई नवजात आंखें खोलने से पहले अनाथ हुए हैं। आज इसका ऋण चुकाने की बारी मेरी है। " - आंखों में रक्त भरते हुए हीरा-दे ललकार पड़ी।
हीरा दे ने म्यान से तलवार क्या खींची; धरा आशीष देने लगी, स्वर्गस्थ पूर्वजों ने दोनों हाथ उठाकर अपनी बेटी को आशीष दिया। अपने भीतर का सम्पूर्ण सामर्थ्य एकत्र कर वह अपने प्राणनाथ के सामने थी।
" हिरादेवी भणइ चण्डाल सूं मुख देखाड्यूं काळ " हे विधाता! कैसा समय दिखाया कि आज इस चंडाल का मुँह देखना पड़ रहा है। लेकिन नहीं, अब नहीं --
" जो चंद कौड़ियों में बिक जाये वो एक क्षत्राणी का पति नहीं हो सकता। गद्दार पिता पति या पुत्र नहीं होता, गद्दार सिर्फ गद्दार होता है। " - यह कहते हुए उस पाषाण हृदया क्षत्राणी ने एक हाथ से अपनी सिंदूर रेख मिटायी और दूसरे हाथ से वह कटार निज पति की छाती में उतारकर इतिहास में एक नई रेख खींच दी।
सोना-चांदी के प्रलोभन में नहीं झुकती क्षत्राणी, यह उसके लिए मैल से बढ़कर कुछ नहीं। वह इतिहास में अमर होने की इच्छा नहीं पालती, वह तो स्वयं इतिहास को अपनी काँख में दबाकर चलती है। क्षत्राणी विलाप नहीं करती, वह ललकारती है। क्षत्राणी सब क्षमा कर सकती है किंतु कायर और गद्दार पति नहीं।
राज्य के प्रति ऐसी अनन्य निष्ठा कि अपनी पति तक को मौत के घाट उतार दिया, विश्व इतिहास में ऐसा उदाहरण विरल है।
कायर पति के सीने में खंजर उतार देती, आग में कूद पड़ती,
घोड़े पर बैठकर रण में तलवार चलाती, पति और पुत्र के भाल।
पर तिलक कर समर में भेज देती - क्षत्राणी सब नहीं होती!
डेढ़ सेर कलेजा चाहिए।।