Kimbhuna - 26 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | किंबहुना - 26

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किंबहुना - 26

26

जबलपुर पहुँच कर आरती का मन कुछ शांत हुआ। क्योंकि यहाँ आकर ही पता चला कि शीतल के कानूनी सलाहकार द्वारा दिलवाए गए नोटिस से सब डरे हुए थे। अब उसे घेरने के लिए कोई कहीं नहीं जा रहा, और न समाज की कोई पंचायत जुड़ रही थी। उसने हर्ष को भाभी के पास छोड़ा और भागते-दौड़ते ट्रेन पकड़ी। यों अजमेर वह 16 को शाम चार बजे पहुँची, जबकि शीतल सुबह साढ़े तीन बजे ही पहुँच गया था। वहाँ पहुँच कर उसने अजमेर सिटी होटेल में एक शानदार रूम ले लिया था और पर्याप्त विश्राम कर चुका था। अब वह पूरी तरह तैयार था, रात भर उसे जगाने के लिए। यह बात उसने दिन में फोन पर भी बोल दी थी कि- मेम! ना सोएंगे, ना सोने देंगे, आज सारी रात होगी मुलाकात... और उसने हँस कर कहा था, हाँ- बाबा, होगी... जबकि उसे लग रहा था कि वह गीत के मुखड़े की दूसरी पंक्ति गा देगी- सवेरे बात करेंगे तो नहीं चलेगा...?

मन में अरमानों के लड्डू फोड़ता शाम को वह समय पूर्व स्टेशन पहुँच गया, क्योंकि उसका लक्ष्य तो वही थी...।

उसे ताज्जुब हुआ कि गाड़ी ठीक समय पर आ गई।

आरती ऐसे ही एक प्लेटफाॅर्म पर भरत को सदा के लिए छोड़ आई थी और यहाँ आकर शीतल को सहज ही मिल गई थी। दोनों एक-दूसरे को पहली बार सम्मुख पा, अत्यन्त हर्ष से भर गए। मगर टैक्सी तक आते-आते होटेल में जाने के नाम पर वह नठ गई और अड़ गई कि आचार्य छगनलाल विद्यानुरागी भवन ही चलना होगा! वहाँ सब लोग ठहरे हुए हैं, हमारा इंतजार कर रहे हैं। फिर वहाँ काव्य-निशा भी रखी गई है, जिसमें शिरकत करना ही होगी। जिस पौधे को इतने वर्षों से सींच रहे थे, उसमें अब फल लगने शुरू हुए तो यह अवसर कैसे छोड़ दें, आप ही बताएँ, साहेब!

उसने हसरत भरे अंदाज में कहा तो शीतल कोई विरोध नहीं कर सका, मरे मन से उसके साथ चल पड़ा।

ठहरने की वहाँ कोई अच्छी व्यवस्था न थी। वह एक ट्रस्ट था जिसमें साधारण कमरे थे। काॅमन बाथरूम। लेकिन आरती बहुत उत्साहित थी। क्योंकि वह छह-सात वर्ष वहाँ रही थी तो स्थानीय साहित्यकारों से गहरे से जुड़ी थी। सबसे हिलमिल कर बतिया रही थी और हँस-हँस के हालचाल पूछ रही थी। शीतल शुरू में तो बोर होता रहा, पर उसने थोड़ी देर में इसका काट निकाल लिया। उसने तीन-चार ऐसे साहित्यकार ढूँढ़़ लिए जिन्होंने बोरों साहित्य लिखा पर प्रकाशित न हुआ था। वे ज्यादातर छांदिक कविता के लोग थे। रीतिकालीन, भक्तिकालीन और हद से हद छायावादी छंद विधान की कविता के रचयिता। उन्हें उसने विस्तार से अपनी योजना समझाई कि हिना पब्लिकेशंस कैसे आपकी पुस्तकों का प्रकाशन पेपरबैक, हार्ड-बाउण्ड और ई-बुक्स में करेगा! साथ ही उनका विमोचन भी कराएगा। लोगों को यकीन नहीं हो रहा था कि वे छप सकते हैं, लेकिन उसने उन्हें खासा विश्वास में ले लिया था। जब सहयोग राशि की बात आई तो कतई निर्लोभ बनते हुए कह दिया कि, हमारा पब्लिकेशन तो आपको बिना सहयोग राशि के ही प्रकाशित करेगा। देश भर में आपकी पुस्तकें पहुँचाएगा और समीक्षा-आलोचना कराएगा। किंतु आप मुफ्त में बाँटना चाहेंगे तो उतनी पुस्तकें बढ़ा कर छाप देंगे और लेखकीय मूल्य पर उपलब्ध करा देंगे।

एक उत्साही रामकिशोर भावुक ने 1000 प्रतियाँ बुक करा दीं। उन्हें अपने दोहों की किताब छपवाना थी। जिसमें लगभग अस्सी पेज बनना थे। शीतल ने पेपरबैक का हिसाब लगा कर पेंतीस हजार की रसीद काट दी। उनके पास एटीएम था, तुरंत निकाल लाए तो पैसे उसने आरती के पास जमा करा दिए, कहा, मैडम ही हिना पब्लिकेशन की प्रबंधक और संपादक हैं! आरती हर्ष से भर गई और लोगों का भी विश्वास जम गया, क्योंकि उसे वे विश्वसनीय रूप से जानते थे। उधर रात में काव्य-निशा होती रही, शीतल कमरे में दफ्तर खोले बैठा रहा। उसने 7 कवि बुक कर लिए। मानों दूसरा अज्ञेय हो और तारसप्तक छापने जा रहा हो! आरती का काव्य-पाठ बहुत अच्छा रहा। श्रोता/वक्ता और सम्माननीय मंच वाह-वाह कर उठा। सब उसे दूसरी महादेवी वर्मा कह उठे। वह पढ़ती भी तो रोती हुई सी है। अतिशय करुणा के कारण उसकी कविता और पाठ सदैव मार्मिक और सराहनीय बन पड़ते हैं।

रात को डेढ़-दो बजे कार्यक्रम खत्म हुआ तब वे लोग थोड़े-थोड़े सोये। सुबह शीतल ने कहा कि- चलो, ख्वाजा जी पर चादर चढ़ा आते हैं! आरती सहर्ष तैयार हो गई। वह अपूर्व उत्साह से भरी हुई थी। पिछला दबाव खत्म हो जाने और अतिशय सम्मान-प्रशंसा मिल जाने से उसका आत्मविश्वास काफी बढ़ गया था, ईश्वर पर भरोसा हो गया था...। वे लोग टेक्सी लेकर वहाँ पहुँच गए। शीतल ने मनोकामनाओं की चादर खरीदी, जिसमें आरती शरीक थी। फिर दोनों ने दरगाह में जाकर ख्वाजा की मजार पर अपूर्व श्रद्धा और विश्वास के साथ भाव-विह्वल होकर चढ़ाई। चढ़ाते हुए अपनी-अपनी मनोकामना रखी। बाहर निकलते ही उन्हें फोटोग्राफर्स ने घेर लिया। शीतल ने उसी क्षण पूछा कि- ऐइ! तुमने क्या माँगा! तो उसने मुस्कराते हुए धीमे से कह दिया- आपकी मनोकामना की पूर्ति! सुन कर वह इतना संवेदित हो गया कि कैमरों के फ्लश की चकाचैंध में ही आरती की हथेलियाँ अपने हाथों में थाम लीं।

और वह ऐसे मुस्करा दी जैसे, उसकी खुद की मनोकामना पूर्ण हो गई हो!

दोपहर में पुरस्कार वितरण था। आरती को उसकी कविता के लिए अक्षर-सम्मान से नवाजा गया। शाॅल, श्रीफल, शील्ड और ग्यारह हजार रुपए की नगद राशि भेंट की गई। खूब फोटोग्राफी हुई, खूब प्रशंसा तो एक खुमारी सी लग गई। कि उसे अब होश नहीं था। वापसी रात आठ वाली ट्रेन से थी, मगर शीतल ने आबू जर्नी का प्रस्ताव रख दिया तो हँसते-इठलाते यह कहते स्वीकार कर लिया कि, पर हम आपके साथ किसी होटेल में न ठहरेंगे!

वह भी मुस्करा पड़ा, सोचा, चलो- इतना ही सही!

उसे कार्यक्रम स्थल पर छोड़ वह होटेल से अपना लगेज उठाने चला गया। लौटते में उसका और अपना वापसी आरक्षण निरस्त कराया और एक टूरिस्ट बस में माउण्ट आबू के लिए बुकिंग करा दी...। आरती ने रुकू और भाभी को सूचित कर दिया कि- हम एक साहित्यिक यात्रा में पुष्कर जा रहे हैं, दो-तीन दिन और लगें, शायद! बात रोजाना करते रहेंगे। इस पर रुकू ने कहा, ममा आप टेंशन फ्री होकर जाएँ, तो यही बात भाभी ने कही, दीदी आप हर्ष की फिक्र न करें!

टू-बाई-टू सीटर वह एक डीलक्स बस थी। जो अजमेर से बावर-पिन्द्वारा मार्ग से होकर माउण्ट आबू जा रही थी। इतनी आरामदेह कि जरा भी जर्क न लगे, सीट्स बेड की तरह खुल जाएँ। रात्रि साढ़े आठ बजे के लगभग वे उसमें सवार हुए और अपनी दो सीटों के कूपे में आकर बैठ गए! क्योंकि आरती ने कहा था कि- साहेब, बर्थ नहीं लेना। और उसने कारण पूछा तो उसने फिर मुस्करा कर बता दिया कि- बस की बर्थ काॅम्बाइंड होती है, इसलिए! तब उसने भी मुस्करा कर फिर यही सोचा कि- फिलहाल, इतना ही सही! तुम काव्य-जगत की सुपर-स्टार, तुम्हें आसानी से और इतनी जल्दी तो नहीं पाया जा सकता, हमें पता है! मगर बर्थ न सही, रात भर एक कूपे के उस सफर में सोते-सोते एक-दूसरे के कंधे पर सिर टिकाना, गले में हाथ डाल लेना, गोद में झुक जाना और सिर सीने में दे लेने से देह देह से इतनी ऊर्जा गई कि वे पहले से कहीं अधिक नजदीक हो आए! तो भी होटेल में न ठहरने के निर्णय के चलते बस स्टेंड पर ही कस्टडी बॉक्स में अपना सामान जमा कर एक सुलभ कॉम्प्लेक्स में गए जहाँ से तरोताजा होकर एक रेस्तरां में, फिर म्यूजियम की ओर निकल गए।

शीतल तो पहले भी आ चुका था, पर वह पहली बार आई थी इसलिए जन्मांध की तरह पहली बार आँखें मिलने पर प्रकृति के उस मनोरम स्थल, उसकी एक-एक रचना को देख-देख मरी जा रही थी। जनम भर का संताप जैसे, यहाँ आते ही घुल गया था...। मन मयूर की तरह पंख फैला कर नाच रहा था। म्यूजियम से वे पिता श्री की समाधि और फिर अम्बा देवी मंदिर गए। वहाँ भी दोनों ने न जाने क्या माँगा! मगर जब एक-दूसरे से पूछने की बारी आई तो आरती ने कहा, जो आपने माँगा, सो हमने! तब वह प्रफुल्लित हो गया, क्योंकि उसने तो उसी को माँगा था...।

इस सब में जब शाम हो गई तो सूर्यास्त देखने सनसेट की तरफ चल दिए, काफी लोग जा रहे थे। और चलते-चलते आखिरश पहुँच ही गए सनसेट पॉइंट पर! जहाँ का माहौल ही कुछ अलग था। जगह-जगह सीढियाँ बनी हुई थीं। सब की सब सैलानियों से भरी हुईं। रंग-बिरंगे वस्त्राभूषणों में सुसज्जित स्त्री-पुरुष और बच्चों का हुजूम देख कर ही बहुत अच्छा लग रहा था।

अंततः उन्होंने भी एक ऊँची-सी जगह तलाश कर ही ली! बड़ा सुंदर नजारा था। एक तरफ पहाड़, दूसरी तरफ लम्बा-चैड़ा मैदान। आरती को अपने पैत्रिक नगर की याद आ रही थी, जहाँ वह सुबह-शाम झील पर पहुँच जाती और घाट की सीढ़ियों पर बैठ सुंदर सूर्योदय-सूर्यास्त देख उठती। वहीं मन की फसल से अल्फाज के दाने फूट पड़ते और कविता की लड़ियाँ बनती चली जातीं...। वही दृश्य और मनोवांछित साथी पाकर मन आज बरसों बाद उमग रहा था।

और वही क्यों, सनसेट का निराला रूप निरख वहाँ तो हर दिल चहक रहा था। सूरज महाराज की अनोखी अदाओं पर हर कोई फिदा हुआ जा रहा था। पर बढ़ता धुँधलका धीरे-धीरे माहौल की सरगर्मियाँ छीनता जा रहा था। धीरे-धीरे लोग खिसकने लगे तो वे भी टैक्सी लेकर सदर बाजार तक आ गए। तब आरती ने कहा कि चलो, अब लौट चलें!

शीतल बोला, अब तो कोई साधन नहीं है, और अभी घूमना भी शेष है। आबू का मेन पॉइंट नक्की झील तो आपने अभी देखी ही नहीं!

ऐसा क्या खास है, वहाँ!

बताएँगे, वह बोला, पर यह बोलो, क्या अब सड़क पर ही रात गुजारी जाय?

आरती ने इधर-उधर देखा, चारों ओर होटलों की शृंखला थी, कोई सामूहिक भवन नहीं। चिंतित मन उसने कहा, ठहरना पड़ेगा, साथ में इतनी पूँजी लिए हैं!

तब शीतल को याद आया कि बुकिंग की सिलक तो उसके बैग में ही रख छोड़ी थी। अच्छी याद दिलाई! समक्ष ही रोशनी में नहाई इमारत की ओर इशारा कर उसने कहा, चलो इसी बंजारा होटेल में चलें! सुरक्षित तो रहेंगे!

तो उसने भी याद दिलाया, ऐइ- कस्टडी बॉक्स से अपना सामान तो निकाल लाओ!

सुन कर शीतल ने माथा थाम लिया, ओह! उतनी दूर फिर जाएँ... सुबह निकाल लाएँगे! उसने सुझाव दिया!

तो आरती ने भी सोच लिया कि कल से पहन रखे कपड़े तो मैले हो ही गए, अब क्या बदलना, इन्हीं में सो जाएगी। बहरहाल, ना-ना करते वह उसके साथ होटेल में आ ही गई और फ्रेश हो-हबा कर उसे तेज भूख लगने लगी। होटेल-भोजनालय से खाना खाकर लौटे तब उसने पूछा, ऐसा क्या है उस पॉइंट पर जिसे दिखाने तुमने आज हमें यहाँ रोक लिया!

शीतल ने आराम फरमाते हुए बताया कि- ऐसी मान्यता है कि इस झील को देवताओं ने अपने नख से खोदा है, इसी कारण इसका नाम नक्की झील पड़ा।

अरे-ऐसा! सहसा उसे यकीन नहीं हुआ।

तो झील के नाम को लेकर सहसा ही शीतल को वो गाना याद आ गया जो लड़कपन में सुना था, डोन्ट टच माई चुनरिया बलम रसिया! और उसने गुनगुनाया तो आरती ने पूछा, इस ऊटपटाँग से गीत का नक्की झील के नामकरण से क्या सम्बंध है, भला?

बहुत गहरा सम्बंध है, उसकी आँखों में झाँकते हुए शीतल बोला, सुनते हैं- किसी जमाने में यहाँ एक ऋषि रहा करते थे जिनका नाम भी यही था, बलम रसिया।

अच्छा! वह अचरज से हँसी।

हाँ, हुआ ये कि वे एक राजकुमारी को अपना हृदय दे बैठे। राजा चिंता में पड़ गया। एक योगी को वह अपनी लड़की का हाथ भी नहीं देना चाहता था और उन्हें नाराज भी नहीं करना चाहता था। अब करे तो करे क्या? उसे एक जुगत सूझी। उसने योगी के सामने शर्त रखी कि- आप सुबह तक, मुर्गे की बाँग से पहले पहाड़ की चोटी से लेकर तलहटी तक अपनी कानी उँगली से खुदाई कर एक रास्ता और झील बना दें तो हम इस विवाह के लिए राजी हो जाएँगे।

ओह! आरती के मुँह से निकला।

और क्या! शीतल बोला, यह तो सरासर चालाकी थी। एक योगी को राजकुमारी का हाथ कैसे भी न देने की चाल...। पर वे ऋषि बलम रसिया भी पहुँचे हुए योगी थे! भोर तो अभी बहुत दूर थी, रात्रि के दूसरे प्रहर तक ही उन्होंने अपनी कानी उँगली से खूब बड़ी झील खोद मारी! पर वे अपनी दिव्य शक्तियों से उस तक पहुँचने का मार्ग खोदने वाले ही थे कि रानी ने छल से मुर्गे की आवाज निकाल कर उन्हें भ्रमित कर दिया। हताश ऋषि अपनी कुटिया में वापस लौट आए।

अरे! आरती ने निराशा से कहा तो निश्वास छोड़ शीतल ने आगे बताया, वापस लौट कर उन्हें जब वस्तु-स्थिति का भान हुआ तो उन्होंने शाप देकर रानी और राजकुमारी को पत्थर की मूरत बना दिया और बाद में खुद को भी एक शिला में ढाल लिया। प्रेम-कथा के इस दुखद अंत को आज भी श्रद्धालु कुँवारी कन्या मंदिर में याद करते हैं।

ऐसा! आरती ने जमुहाई लेते हुए कहा।

लगता है, तुम्हें नींद आ गई...? उसने पूछा।

और-क्या! दिन भर के थके-हारे हैं! वह हौले से कराही। यह उसकी आदत थी। रिलैक्स होती थी यों...। शीतल ने कहा, फिर सोओ!

तब वे दोनों अपनी-अपनी करवट सो गए।

सुबह उठे तो कानों से सुनी आँखों से ओझल नक्की झील अब भी उसके दिलो-दिमाग पर छाई हुई थी। मगर तैयार होकर पहले वे दिलवाड़ा के जैन मंदिरों में चले गए फिर अचलगढ़ के किले में। क्योंकि नक्की झील की सैर का मजा तो शाम को ही आता! शाम हुई तो वे लोग नक्की झील चले आए जिसके लिए कल से रुके थे! और आरती ने महसूस किया कि सचमुच वहाँ पर तो सनसेट से भी अधिक रौनक थी। रेस्टोरेंट पानी में तैर रहा था और बगीचे में म्यूजिकल फाउन्टेन चल रहा था। एक रास्ता गांधी घाट को जा रहा था जहाँ बोटिंग के लिए भारी भीड़ जुटी थी। उन्हें लगा कि जितना समय नौका पाने कतार में बर्बाद करेंगे, उतने में झील के किनारे कहीं एकान्त में बैठ सुकून पा लेंगे!

घाट से थोड़ी दूर छोटे-छोटे दुकानदार लोक लुभावन वस्तुओं के साथ पर्यटकों को आकर्षित कर रहे थे। वे उन्हें अनदेखा कर झील के दक्षिण-पूर्वी किनारे पर स्थित पानी में बने जहाजनुमा रेस्टोरेंट की ओर चले आए। भाग्य से रेस्टोरेंट उस वक्त बिल्कुल खाली था। सारी भीड़ नौका विहार का आनंद लेने में मशगूल थी। चँकि भीड़ के आने का समय नहीं हुआ था इसलिए बैरे भी इधर-उधर थे। पानी के समीप शांति से बैठने का ये अनुकूल अवसर था। पर ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ा, बारिश और तेज होती गई। अँधेरा और बारिश बढ़ने की वजह से भोजनालय में भीड़ बढ़ने लगी। माहौल देख तुरंत खाने का आर्डर देकर वे भीतर आकर बैठ गए।

खाना खत्म होते-होते बारिश थम गई तो वे लोग गांधी घाट चले आए। एक छोटी-सी नाव ले ली और बीचों-बीच बने उसके डेक पर एक-दूसरे की बगल में बैठ गए। आरती ने उत्साह में झूम कर कहा, साहेब, वो देखो, रेस्टोरेंट खिसक रहा है! ...अब बगीचा और वो म्यूजिकल फाउन्टेन भी!

हाँ-हाँ! पहाड़ियाँ भी तो घूम रही हैं! शीतल उसकी आँखों में झाँकता हुआ बोला।

उनमें छोटे-छोटे पहिये लगे हैं, ना! कहते आरती ने उसका हाथ अपनी हथेलियों में दबा लिया।

उमंग में बहते-बहते वे झील के बीचों-बीच बने टापू के करीब आ गए। जहाँ एक ऊँचा फाउन्टेन चलता है। शीतल ने बताया- इसकी धारा 80 फुट ऊपर जाती है! और वह आसमान की ओर मुँह उठा कर देखने लगी। विद्युत की चकाचैंध में फव्वारे की रंग-बिरंगी धाराएँ बहुत ऊपर तक जा रही थीं। पर नौका झील के बीचों-बीच बने इस चबूतरे का चक्कर काट कर गांधी घाट की तरफ वापस लौटने लगी। नाविक ने ठीक उसी वक्त पूछा, और या बस?

और-और! अभी तो और!! वह बच्ची-सी उछली।

क्यों, और क्यों! रात नहीं हो रही?

होने दीजिए, पानी में छप्-छप् की यह मधुर ध्वनि फिर कहाँ सुनने को मिलेगी, साहेब!

आसमान में चाँद से बादलों की लुका-छुपी अब भी जारी थी। बारिश का क्या भरोसा, कभी भी गिर सकती थी! पर उसे उसका साथ अच्छा लग रहा था। दिल में उस युवा स्त्री की किशोर जिज्ञासाओं पर हजारों तरंगें उठ रही थीं। उसने उसका कपोल थपथपाते धीरे से कहा- सुनने को मिलेंगी तो, पर तुम झील में पतवार डलवाओगी नहीं।

क्यूँ? उसने उसके दोनों बाजू पकड़ सम्मुख होते-करते पूछा।

क्योंकि महिलाएँ डरती हैं! वह मुस्कराने लगा।

हम नहीं डरते...

अरे, डरती हैं!

आजमा लेना! उसने हेंकड़ी दिखाई।

कब? शीतल ने रास्ता खोदना शुरू कर दिया।

कभी नहीं! कह कर वह गर्दन मोड़ मुस्कराने लगी।

और शीतल का दिल बल्लियों उछलने लगा...। पर होटेल में आकर रुकू और फिर हर्ष से बात करते-करते उसने काफी समय बिता दिया। उसके बाद भाभी की जाने किस बात से दुखी हो गई कि शीतल को उसे छेड़ने की हिम्मत न पड़ी। सोच रहा था, सुबह उठते ही जाने की जिद करने लगेगी। पता नहीं था, उसी तुर्शी में यात्रा और बढ़ा देगी, क्योंकि कंपनी से 15 दिन की एलटीसी मंजूर कराकर चली थी, सोचा था, लौटते में भाभी के पास जबलपुर रहेगी, माँ के पास सागर भी हो आएगी। लेकिन वो भरत की तरफदारी करने लगी तो उसका मूड उखड़ गया। यों उनके बीच का दोस्ती का वह पारंपरिक रिश्ता काकाकाकी हनीमून पॉइंट पर आकर अचानक भावुकता में बदल गया!

आम तौर पर सलवार-सूट या लेगी-कुर्ती पहनती। पर उस दिन होटेल से शौकिया साड़ी बाँध कर चली। गोल्डन कलर की साड़ी, उससे मैच करता ब्लाउज और पेटीकोट जिसका बार्डर भी गोल्डर कलर का था। और गोल्डन ही स्लीपर...यहाँ तक कि माथे पर बिंदी भी गोल्उन कलर की लगा रही थी तो बालों मे गोल्डन कलर के ही क्लिप भी। गले में गोल्ड की चेन, कानों में बुंदे और नाक में भी गोल्ड की लौंग झिलमिला रही थी। उसकी उमंग और उत्साह देखते ही बनता था। शीतल ने पूछना भी चाहा कि भाभी ने ऐसा कौनसा टाॅनिक दे दिया जो तुम इतनी चार्ज हो गईं! पर पूछा नहीं, वह जानता था, गेंद को जितना दबाया जाता है, उतनी ही उछलती है! बातों-बातों में उसे वह उस दिलकश चट्टान के पीछे ले आई जहाँ इस जहान से दूर एक नई दुनिया में मदहोश कई एक जवां दिल आपस में मशगूल थे।

बताइए साहेब, साड़ी में कैसे लगते हैं! अचानक उसके मुँह से निकला, निकला इसलिए कि हरेक स्त्री के मन में लाल जोड़े की भी एक साध होती है जो पूरी न हुई थी!

बुरा तो नहीं मानोगी? शीतल उसे ऊपर से नीचे तक देखकर मुस्कराया।

नहीं बताएँगे तो जरूर मानेंगे। वह उसकी आंखों में झांकती हुई चहकी।

एकदम फिट लगती हो, मेम! उसने अंगूठे-तर्जनी की गोल इमोजी बना कर कहा। तो लगा, सलमान खान ने प्रियंका चोपड़ा से पूछ लिया, मुझसे शादी करोगी! आरती चहक कर सीने से लग गई, ओऽसाहिब!

शीतल को इतनी उम्मीद न थी! उसे होश न रहा। उसने तुरंत उसे अपने भुजपाश में ले लिया। जबकि आरती की मंशा यह न थी। दरअसल, उसके दिल पर उसका बड़ा एहसान चढ़ा था। जानती थी, इतने से चुकेगा नहीं, पर कुछ तो हल्की हो जाएगी और उसे भी कुछ न कुछ तसल्ली मिल जाएगी। जैसे, छठे-चैमासे ब्याज मिल जाने पर साहूकार को मिल जाती है!

पर शीतल इतने में ही संतुष्ट कैसे हो जाता...। जिन लिप्स की अब तक इमोजी चूमता रहा, वे साक्षात् थे! और इतने करीब! उससे रहा न गया, वे लाल अंगार से होंठ आखिरश उसने अपने होंठों से छू लिए! तो आरती के चेहरे पर अनार फूट गया, आँखें बिल्लौरी हो आईं।

इसके बाद एक-दूसरे की उपस्थिति में दोनों की ही केमिस्ट्री बदलने लगी। निर्जन में साथ रहना अच्छा लगने लगा। दिलचस्पी उनकी न वन्यजीव अभ्यारण्य में थी, न दिलवाड़ा के जैन मंदिरों में या अचलगढ़ के किले में! उन्हें तो अब आबू की गुफाएँ...टाॅडराॅक, गुरुशिखर खींचते थे। जहाँ एकान्त में एक-दूसरे का हाथ थाम चल पाते। और चलते-चलते अनायास सट जाते। यही आनंद और उल्लास का विषय था। शेष सब गौण! दिल में हरदम एक मिठास सी घुली रहती। तब एक ऐसा भी अवसर आया जब उसकी सज-धज देख शीतल की नीयत बिगड़ गई। क्योंकि गुलाबी सर्दी के बावजूद उस दिन उसने कोट/जैकेट नहीं, येलो कलर की कुर्ती पहन रखी थी, जिसकी स्किन कलर की स्लीव्स से मैच करती लेगी भी स्किन कलर की ही थी...। बाल खोल कर कंधों पर फैला रखे थे। लग ही नहीं रहा था कि वह कोई नौकरीपेशा है, कॉलेज गर्ल लग रही थी।

गुफा में शाम-सा धुँधलका और नदी-तीर-सा छप्-छप् पानी भरा था। वह कभी बाजू में बाजू लपेट लेता तो कभी कमर में हाथ डाल लेता जो स्किन कलर की लेगी से उभरते पुष्ट नितंब सहलाने बार-बार मचल उठता, पर हर बार मन मार कर रह जाता।

उस रात होटेल लौटकर डिनर के बाद आरती ने लेगी नहीं बदली, ऊपर से समीज भी स्किन कलर की ही पहन ली तो शीतल के हाथ उसके बूब्स छूने को मचल उठे! पर हाथ उसके लिहाफ में डालने की हिम्मत न हो रही थी। वह वाकई एक ऐसी स्त्री थी, जिसके आसपास सचमुच कोई अदृश्य लक्ष्मण रेखा थी। बात करने की कोई पहल वह सोच ही रहा था, तब तक वह लिहाफ से मुँह निकाल हौले से बोली, हिना से हमारी भी गजलें छापेंगे, न साहेब!

वह चैंक गया, कैसी बात करती हो, मेम! हिना की एडीटर तो आप ही हो।

और सीईओ आप! तभी तो सारी दूरियाँ मिट गईं। वह चहकी।

हाँ.... मिट भी गईं और नहीं भी! वह लंबी साँस खींचकर बोला।

सो, कैसे? आरती ने पूछा।

ऐसे कि.... शीतल ने बताया, भागवत कथा का एक प्रसंग है, मेम!

क्या? वह उसकी ओर खिसक आई। और शीतल उत्साहपूर्वक सुनाने लगाः

महाभारत और राजसूय यज्ञ के बाद कृष्ण द्वारिका जाने लगे तो अर्जुन ने कहा कि- प्रभु यों तो आपने अपना विराट रूप दिखला कर मुझे सब कुछ दे दिया- शक्ति, भक्ति, विजय, राज्य, वशंज इत्यादि! फिर भी कुछ शेष रह गया हो तो जाते-जाते कृपा कर वह भी दे जाइए!

सुन कर कृष्ण बोले कि- हाँ, शेष तो है, शेष यही कि तुमने अभी मुझे समग्र रूप में प्राप्त नहीं किया।

तो प्रभु, उपाय बताइए! अर्जुन बोला।

कृष्ण ने कहा कि- यह तो आदि शक्ति की आज्ञा पर निर्भर है!

अर्जुन ने कहा- फिर आद्या को प्रसन्न करने का उपाय बताइए।

तब कृष्ण उसे रथ में बिठा कर एक सरोवर के किनारे ले गए। वहाँ उन योगेश्वर ने उसे विशिष्ट योग का ज्ञान कराया। जिसके द्वारा अर्जुन ने आद्य शक्ति को प्रकट कराया। और उन्होंने एक दासी को बुला कर अर्जुन को सरोवर स्नान कराया। स्नान करते ही वह धनुर्धारी पुरुष से सुंदर षोडशी बन गया। शक्ति ने आज्ञा दी कि- अब तुम ईश्वर को समग्र रूप में प्राप्त करने गोलोक चले जाओ!

षोडशी बना अर्जुन आद्य शक्ति की आज्ञा से जब गोलोक पहुँचा तो देखा, वहाँ गोपियाँ नृत्य कर रही थीं और बाँसुरी बजाते कृष्ण राधा के साथ विहार। उन्होंने ज्योंही षोडशी बने अर्जुन को देखा, राधा और गोपिकाओं का साथ छोड़ उसे लेकर एक उपवन में चले गए, जहाँ षोडशी बने अर्जुन ने कृष्ण के साथ रति कर ईश्वर को समग्र रूप में प्राप्त कर लिया। जिसके पश्चात् वह भूलोक पर लौट कर उसी सरोवर में पुनः स्नान कर फिर से धनुर्धारी अर्जुन बन गया।

कथा समाप्त कर शीतल ने आहट ली तो पता चला, वह सो चुकी थी!

सारी आशा धरी रह गई। तिस पर अगले दिन से आरती ने प्रजापिता ध्यान केंद्र में जा कर ध्यान सीखने का कार्यक्रम बना लिया था, जिससे अपने साथी को भी संयम का पाठ पढ़वाया जा सके।

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