Kimbhuna - 18 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | किंबहुना - 18

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किंबहुना - 18

18

आरती का काम तो बन गया। उसे मुक्ति मिली। अब तो वह मजे से दिन भर नौकरी करती और शाम को शीतल आवाज देता, अजी, आरती जी कहाँ हैं आप! सरपंची तो आपके ही जिम्मे थी ना!

नोटीफिकेशन स्क्रीन पर शो होते ही वाट्सएप आॅन कर तुरंत हाजिर हो जाती वह, आरती सरोज कुुंज में!

अजी, आती हूँ... रोजी-रोटी से निबट अभी आई हूँ जी... गाड़ी रख पाई हूँ, जी... बैग पटका है, जी... देखो जी, बाहर नहीं कर देना जी, बाहर बहुत ठंड है, जी!

तो मुस्तैद सदस्य तुरंत हाजिर हो जाते, नहीं दीदी, आप चिंता न करो, हम आपकी तरफ हैं जी...! सर बाहर कैसे करेंगे...जी! बाहर तो सचमुच बहुत ठंड है जी!

इस तरह दिन भर से सोये हुए समूह में तालाब में फेंके गए एक कंकड़ की तरह हलचल मच जाती, लहरें उठने लगतीं। कोई कुछ कहता, कोई कुछ! तब वह किसी किसी सदस्य को कोट कर लिखता, हाँ जी, आप तो दीदी की तरफ ही रहेंगे जी, हम जानते हैं जी, लेकिन आपकी दीदी को आज लेटफीस तो भरना होगी जी!

हुकुम आका! वह हाथ-मुँह धोते-धोते अपनी उँगलियाँ स्क्रीन पर चला हाथ जोड देती।

हमारी आज वाली गजल तो गाना होगी ना...

शीतल मीठा-सा हुकुम झाड़ता और वह इठलाता हुआ जवाब लिख देती:

जी, जो आज्ञा, प्रशासक जी! पर एक काॅफी पीने की मोहलत तो दीजिए ना!

जरूर, मगर शर्त यही कि हमें भी पिलाइयेगा!

तब वह काॅफी से लबालब भरा एक सुंदर सा मग पेश कर देती। दर्जनों सदस्य भाँति-भाँति की इमोजी लगा ताकाझाँकी करते। वातावरण अतिशय रंगीन हो जाता और देर रात तक चलता रहता। सभी एक दूसरे से मीठी-मीठी चुहल करते। आरती सहित कई और महिला सदस्य भी अपनी-अपनी आॅडियो क्लिप डालतीं। शीतल की उस एक गजल को कई एक सिंगर मिल जाते। वह तो हीरो था ही समूह का। और आरती हीरोइन। कभी अपना केरिकेचर लगाता, कभी गजल पोस्टर तो कभी सेमिनार के पोज! और वह काॅफी पीने से लेकर अपनी गाने की, बाल खोल आराम की मुद्रा तक की सेल्फी शेयर कर देती। रोज पता नहीं चलता, ग्यारह-बारह कब बज जाते। फिर कई बार शुभरात्रि होती। तब जाकर मोबाइल ऑफ मोड में जाते...।

तो उसका तो काम बन गया। उसे मुक्ति के साथ ही ऐसा संग-साथ मिल गया जो उसके मानसिक स्तर का था। कहते हैं- नशेलची नशेलचियों में, गवैया गवैयों में और जुआरी जुआरियों में ही आनंद पाते हैं। मोहब्बत से बड़ी होती है, सोहबत! यों मेम आरती कुलश्रेष्ठ तो अपनी सोहबत में सैट हो गई थी लेकिन डीजीएम भरत मेश्राम को तो किसी करवट चैन न था। वो रातों में उठ बैठता। क्योंकि आरती को कभी सूखे तालाब की चटकी धरती पर खड़ा पाता तो कभी धुर जंगल में किसी बरगदिया की जड़ पर बैठा। लेकिन जागने पर वह उसे कभी कठपुतली समारोह में दिख जाती, कभी बेटी बचाओ रथ की अगुआई करती। दरअसल, वह रोज दो-चार चित्र डालती थी, वे चित्र भरत के जहन की एलबम में जमा हो गए थे। ज्यादातर तो वह उसके रेशमी बालों में खोया रहता जो प्रत्यक्षतः रूखे थे। और यों प्रत्यक्षतः वह उसका रूखा और कांतिहीन तथा गोरा न काला बीच का चेहरा दर्जनों बार देख और चूम चुका था तो भी चित्रों में दमकती उसकी गुलाबी, मोहक छवि का ऐसा मुरीद था कि जैसे मुरीद तो अमीर खुसरो अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया के भी न हुए होंगे! उसके काव्य-पाठ और स्टेज-एंकरिंग के फोटो वह घंटों देखता रहता। और न भी देखता तब भी वे उसके दिमाग पर हरदम छाए रहते। पहली ही मुलाकात में उसने उसे निशानी बतौर जो सोने की चैन वाली टाइटन की घड़ी दी थी, उस कलाई का चित्र वह कभी नहीं भूलता। क्योंकि उसे पहली बार पहन अपने ऑफिस के कम्यूटर की-बोर्ड पर उँगलियाँ जमा आरती ने अपनी कलाइयों का वह चित्र भेजते उसे लिखा था, सुनो जी, ए-जी, आपने हमें घड़ी नहीं, समय दे दिया है...।

और जवाब में उसने लिखा था कि- हाँ, समय में हमने बाँध लिया है तुम्हें। सच कहा, हमारा असली समय तो अब शुरू हुआ है, अब तक तो ये जिंदगी यूँ ही झाड़-झंखाड़ में उलझते बीत गई!

जी, आपने सच कहा! उसने मुहर लगा दी थी।

भरत को कुछ भी सूझ नहीं रहा था कि अब करे तो क्या। जो हो गया था, उस पर तो यकीन ही नहीं कर पा रहा था वह। उसे अपनी कोई खामी ही नजर नहीं आ रही थी। समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या अनपेक्षित चाह लिया उसने जिसकी पात्रता न थी। यह तो पहले से साफ था कि दोनों विवाहित हैं, तलाकशुदा नहीं। फिर भी सगाई कर ली। ढाई-तीन साल पति-पत्नी बन कर कर्म-कुकर्म सब कर लिए। सारा आॅफिसियल स्टाफ जान गया कि वह उसकी जोरू है! पहले वाली तो किसी ने देखी ही नहीं। आरती को जो देखता, उसके भाग्य की सराहना करता। और जब वह पार्टियों/समारोहों में परिचय कराता कि- मेम सिंधुजा में कार्यक्रम अधिकारी और जानी-मानी कवयित्री हैं तो लोग लट्टू हो जाते। उसके गारमेंट्स उसका मेकअप, उसके फीचर उन्हें उसका दीवाना बना देते। वे उसे घेर कर उसकी कविता जरूर सुनते। और अपनी गजलें जब वह तरन्नुम में सुनाती तो वन्समोर वन्समोर के जयकारे लग उठते। उसकी वे कई एक गजलें भरत को कंठस्थ हैं। और उसकी आवाज में ही उसके कानों में गूँजती रहती हैं। शुरू में एक गजल जो उसने उसे आधीरात के वक्त फोन पर ही सुनाई थी, उसे तो कभी नहीं भूल सकता वह... उन्हीं अल्फाजों ने तो प्राण प्राणों से जोड़ दिए थेः

मिला ही नहीं हमसफर जिंदगी भर,

यूँ होता रहा ये सफर जिंदगी भर।

खुशी का कभी कोई मौसम न आया,

मिले गम हजारों मगर जिन्दगी भर।

भटकती रही मैं उजालों की खातिर,

तो पहुँची नहीं अपने घर जिंदगी भर।

जो ख्वाबों में मिलता रहा रोज मुझसे,

वो आया कहाँ अब नजर जिंदगी भर।

खुदा तेरी दुनिया में उम्दा है जो कुछ,

नजर वो न आया इधर जिंदगी भर।

फकत काली रातें मुकद्दर हुई हैं,

न आई गुलाबी सहर जिन्दगी भर।

 

काश! उसे पता होता कि यह तो मेरे ही मुकद्दर की इबारत है। जो उसने गा कर सुना दी है मुझे! तो आज दीन-हीन न होता। तब तो यह समझा था कि एक वक्त की मारी हुई सीधी-सच्ची औरत उसे अपना गमगुसार बना रही है! सहानुभूति स्वानुभूति बन जाएगी उसे इल्म न था। आँखें हरदम भरी-भरी सी रहती हैं, दिल बैठा-बैठा। अपने भान्जे और भनैज बहू केशव, रेखा से मुँह फोड़ सारा रोना रोया उसने। तो रेखा ने तुरंत आरती को फोन लगाया कि- दीदी, ये क्या तमाशा कर रही हो, मामा रो रहे हैं!

रोएँ, हम क्या करें, उनके करम ही ऐसे हैं!

करम के लिए कौनसी घट तौल दी उन्होंने आपको?

वह तिलमिला गई थी। शादी के बाद लड़कियाँ अमूमन ससुराल का पक्ष ले उठती हैं। आरती खामोश रही गई, और उसने हैलो, हैलो किया तो बोली, अभी बिजी हूँ, थोड़ी देर में बात करती हूँ! मगर बात करना नहीं थी, फोन लगाया नहीं उसने। तब दूसरे दिन केशव का फोन आया, दीदी क्या बात है? 

कहाँ? उसने अनजान बनते हुए पूछा।

आप मामा से बात क्यों नहीं कर रहीं?

क्या बात करें!

मेरा मतलब...आप ये रिश्ता तोड़ क्यों रही हैं?

उन्हीं से पूछो ना!

उनसे क्या पूछें, वे तो परेशान हैं, रो रहे हैं!

तो हम क्या करें!

फिर फोन काट दिया। और केशव ने फिर लगाया तो घंटी आई मगर उठाया नहीं। थोड़ी देर बाद फिर कोशिश की तो स्विच्ड ऑफ कर लिया।

रात को शीतल को बताया कि- ऐसा-ऐसा हो रहा है।

उसने कहा, होने दो, ढीली न पड़ना!

ढीले तो नहीं पड़ रहे पर तनाव बहुत हो जाता है!

ऐइ- तनाव हमें दे दो अपना!

कैसे?

एक इमोजी भेजकर!

कौनसी वाली,

जवाब में शहद भरे एक जोड़ा अधर-सधर आ गए वाट्सअप इनबॉक्स में।

फोन उसने बंद कर लिया। मगर आँख बंद कर लेटी और कल्पना में होंठ शीतल की ओर बढ़ा दिए। तनाव ढीला पड़ गया। उसी ध्यान में निमग्न कब सो गई, पता नहीं चला। सुबह उठ कर फोन आॅन किया तो होमस्क्रीन पर लगे उसके एकाउंट में मुस्कराते क्लीनशेव्ड चेहरे के साथ सुभोर के दो सुर्ख गुलाब खिले मिले। कहीं पढ़ा था उसने, सुर्ख गुलाब तीक्ष्ण प्रेम का प्रतीक है। आह निकल गई ओठों से, ओह शीतल, बाद में आप भी यही कहोगे कि हम पत्थर निकले, न बढ़ाओ कदम, इधर तो अंधी खोह है। उजाला मुबारक हो तुम्हें ए-दोस्त!

फिर उसके ओठों से अनायास ही मुकेश का गाया एक गीत फूट पड़ा, तुम्हें जिंदगी के उजाले मुबारक, अँधेरे हमें आज रास आ गए हैं...

मगर मन की गति तो उसे रचने वाला भी नहीं जानता, शायद! मन की चंचलता आखिर किसके वश में हुई...? नित्यकर्म से निवृत हो, जल्दी सल्दी नाश्ता बना हर्ष को विदा कर वह नहाई धोई और उल्टा-सीधा पहन स्कूटी उठा सवा-साढ़े आठ तक दफ्तर आ गई। और अटेंडेंस स्क्रीन पर अँगूठा ठोक सबसे पहला काम जो होता वही करने लग गई। कि गुलाब के बदले गुलाब भेज दिए। गुलदस्ता के बदले गुलदस्ता और काॅफी-चाय के बदले काॅफी-चाय! यों सभी को सुप्रभात बोल वह अपने रोजमर्रा के कार्यालयीन काम में लग गई। दोपहर बाद फील्ड गई, वहीं लंच लिया। चार-पाँच बजे के आसपास लौट कर दफ्तर आई, रिपोर्ट तैयार की और मेंशन करने ही जा रही थी कि भाभी का फोन आ गयाः

दीदी क्या चल रहा है?

क्या चलेगा? उसने प्रतिप्रश्न कर दिया। तो वह अकबका गई, संभल कर बोली, नौकरी-चाकरी ठीक चल रही है, न!

आरती ने सूंघ लिया कि बात नौकरी की सलामती की पूछ रही है यानी भरत के उपकार की याद दिला रही है! वह कुछ नर्वस हो गई, बोली, हाँ!

और क्या!

और कुछ नहीं।

हमने कुछ सुना है...

सही सुना है।

क्या?

जो तुमने सुना है...

चलो, फिर बात करते हैं, आप ऑफिस में हो शायद!

सुन कर उसने फोन तो काट दिया पर काम में मन लगाना कठिन हो गया। घर लौटते राह भर दिमाग में उधेड़बुन चलती रही। सोचती रही, शीतल को बताऊँ न बताऊँ! कोई तो सहारा चाहिए! कोई हमदर्द, कोई एक मेरी ओर से कहने वाला। ये सभी तो भरत की ओर हो गए। इन सबकी नाक जाने क्यों कटी जा रही है, रिश्ता तोड़ने में अब। जोड़ने में भी कटती है और तोड़ने में भी, यदि वह बिरादरी बाहर हो तो, कमाल है!

अन्यमनस्क सी वह आकर लेट रही। तब तक हर्ष मुँह से भाँति-भाँति की ध्वनियाँ निकालता हुआ भीतर आ गया। वह हमेशा अपूर्व उत्साह में रहता है। आते ही गले लग जाएगा, झकझोरेगा, दिन भर की छोटी-छोटी बातें चहक-चहक कर नाटकीय ढंग से सुनाएगा। फिर चिल्लाएगा, भूख लगी भूख, माँ कुछ दो और वह कराहती हुई उठेगी। उठते-उठते एक बार फिर सिर में बाम मलेगी। पता नहीं कैसा सर दर्द है। कभी ठीक नहीं होता। रोज-रोज पकड़ लेता है। ऐसी असहनीय पीड़ा कि पट्टी बाँधकर लेटना ही पड़ता है। जाँच कराएगी। आलस करती रहती है, फालतू में। कहीं छोटामोटा ट्यूमर न हो! काँपती है मन ही मन, बच्चों का क्या होगा! कौन है इनका मेरे सिवा! कोई नहीं, यही तो बदनसीबी है! पहले काॅम्बीफ्लेम से उतर जाता था, सर। लेकिन जब से डॉक्टर ने सख्त हिदायत दी है, नो काॅम्बीफ्लेम!

नाइस ले सकते हैं, सर!

आॅनली पेरासिटामोल! नाराज हो तर्जनी दिखाई उसने।

तब से पेरासिटामोल ही लेती है। हालाँकि बाद में कह दिया था, नाइस ले सकती हो, लाइट ड्रग है, कोई बात नहीं...।

मूडी है वो भी। छोटी जगह है बलौदा बाजार, कोई ढंग का डॉक्टर भी तो नहीं। अक्सर खाँसती है, धूल धुएँ की ऐलर्जी और उसी से रोज-बरोज वास्ता। जिससे बचो, उसी से पाला पड़ता है, क्या तकदीर है! खाँसी जुकाम मिटता नहीं। सिंधुजा की डिस्पेंसरी से लाकर भखती रहती है, दवाइयाँ। वो तो नेचर ने बाॅडी ऐसी करामाती बनाई है कि कितनी भी टूट फूट क्यों न हो, कुछ बिगड़ता नहीं। नहीं तो ऐसे-ऐसे दुख और बीमारियाँ झेलीं कि अब तक कब की चल बसी होती।

उल्टा सीधा जैसा बना, खाना बनाने के बाद वह हर्ष को खिला कर बिस्तर पर पड़ रही। सोच-सोच थक गई, शीतल को बताऊँ या नहीं। दिन भर से आज डाटा भी नहीं खोला और फेसबुक/वाट्सएप का कोई मैसेज नहीं देखा। खोलेगी तो अभी तुरंत संदेशों का अंबार लग जाएगा। किसी को पढ़ने, जवाब देने का मूड नहीं। फोन हाथों में तोल रही थी...इतने में भाभी का फोन फिर आ गया। उठाया तो बोली, दीदी, आप हमसे नाराज हैं क्या!

किसी से नहीं अपनी तकदीर से नाराज हैं हम...

ऐसा क्या हुआ?

क्या बताएँ, तुम सब जानती तो हो!

लेकिन कोई रास्ता नहीं निकल सकता क्या?

क्या रास्ता निकलेगा, रास्ता तो बंद हो गया, अब!

मम्मी गुस्सा कर रही हैं!

क्यों?

रेखा दी ने बता दिया, आपने रिश्ता तोड़ दिया...

तो क्या बोल रही हैं, बोल...

कह रही हैं, ऐसे ही तो पहले मन का किया और तोड़ा अब फिर वही नाटक, क्या जिंदगी भर यही करती रहेगी।

हाँ करते रहेंगे, उसे रोष आ गया। फिर वह रोने लगी और फोन बंद कर दिया। फिर से घंटी आई तो स्विच्ड ऑफ! अंतिम हथियार एक यही! अब शीतल से भी बात न हो सकेगी। न हो, वे कर भी क्या सकते हैं! कोई कर भी क्या सकता है! जब हमारी किस्मत में यही लिखा है।

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