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दफ्तर का माहौल लगभग उसके अनुकूल हो गया था। अब बात बेबात एजीएम की झिड़की या नीलिमा के कटाक्ष नहीं मिल रहे थे। इसी बीच गणेश उत्सव आ गया तो झांकियों के साथ आए दिन गीत-भजन, नाटक-नाटिकाओं का दौर भी शुरू हो गया। संचालन के लिए उससे रोज कहा जाता और वह रोज इन्कार कर देती। पर जिस दिन पुलिस कप्तान को मुख्य अतिथि बनाया गया, उसने इसलिए हामी भर दी कि मंच की विविध प्रस्तुतियों से उन्हें बोरियत हो तो संचालन से सरसता बनी रहे। गीत-भजन, नाटिका, गरवा और बीच-बीच में उसकी कविताएँ। संचालन इसलिए भी उसी से कराया जा रहा था, क्योंकि उसका तलफ्फुज ठीक था। वह न सिर्फ अपने रूप से मोह लेती, मुस्कान से गुलाम बना लेती बल्कि, वाणी से भी सम्मोहित कर लेती थी। उसके शब्दों में जादू था; स्वर में मिठास, बातों में गजब का आकर्षण।
उस दिन उसने शिफाॅन की गुलाबी साड़ी पहन रखी थी जिसका बार्डर नारंगी था और नारंगी ही बड़े गले का स्लीवलैस ब्लाउज! बाल हमेशा की तरह गालों को घेरे हुए कंधों पर झूल रहे थे। मुख्य अतिथि उसकी प्रस्तुति पर इतने भावुक हो गए कि जब वह अत्यंत श्लाघनीय शब्दों में उन्हें वक्तव्य के लिए आमंत्रित कर रही थी, वे डाइस पर जाने से पहले उसकी र्बाइं ओर आ खड़े हुए और उसने बोलते-बोलते मुस्करा कर उनकी ओर देखा तो खुद को रोक नहीं सके, दायाँ हाथ उसके कंधे पर रख, मुस्कराते हुए आगे बढ़ गए।
उस दिन बच्चों को भी साथ ले गई थी। सब लोग वहीं से खा-पी कर आए। आते ही बच्चे तो सो गए पर उसकी आँखों से नींद फिर गायब। वाट्सएप खोल कर उसने भरत को गैलरी से कार्यक्रम के कई फोटो शेयर कर दिए। रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे, पर मैसेज टोन से उसकी नींद टूट गई और उसने क्लिक किया तो उसकी अनुपम छवियाँ देख वाह-वा कर उठा। उसने तुरंत लिखाः
ये छवियाँ देख-देख हमें स्वर्गिक अनुभूति हो रही है।
क्यों! वह खिल गई।
आपके दरस-परस से किसी को भी यह गति सहज में ही प्राप्त हो सकती है।
ऐसा क्या है, हम में!
रूपाभिमान से गद्गद् वह हँसती-सी बोली तो भरत ने कहा- पूछो, क्या नहीं है! काली चमकीली आँखें। सुर्ख नाक। लाल फूले हुए ओठ। भरे हुए गुलाबी गाल जिन्हें रेशमी बाल दोनों जानिब शाॅल की तरह ढँके हुए!
अरे, छोड़िए, इतनी झूठी तारीफ न कीजिए, फोटो ही अच्छा आता है, हम तो बहुत रफटफ हैं, सामने से देख चुके न आप...
मिले तब तो धड़कन वश से बाहर होने लगी थी।
अच्छा! तो छुपाया क्यों?
आप बुरा मान जातीं!
अरे...
हाँ!
कैसे सोच लिया!
यूँ ही...पर अब न छुपाएँगे, कब आएँ!
सो जाइए...
नींद न आएगी।
क्यूँ?
आप जो आ गईं!
तो हम जा रहे हैं ना!
अभी ना जाओ छोड़ के कि दिल अभी भरा नहीं...
भरत का इतना लिखना था कि वह कॉल लगा कर गाने लगी, यही कहोगे तुम सदा कि दिल अभी नहीं भरा, जो खत्म हो किसी जगह ये वैसा सिलसिला नहीं...
गाना खत्म हुआ तो भरत ने पूछा, अच्छा कब आ जाएँ!
छोड़ो जी, आपको फुरसत कहाँ, इतने बड़े अधिकारी!
कहो तो, फुरसत की क्या बात वीआरएस लेकर सदा के लिए आपके पास ही बस जायँ!
ना बाबा, ना! बड़े धोखे हैं इस राह में!
लगता है, दूध की जली हो!
जी, गुडनाइट!
उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की, फोन काट दिया। जी फिर कसैला हो आया। सो गई मगर सपने में भी वहीं घूमती रही।
जड़मूल से खो चुका आत्मविश्वास राकेश की हाँ से फिर बहाल हो गया था। शादी की बात चलने लगी, शादी की तैयारियों के खयाल आने लगे। पूरा घर पापा की बीमारी के बाद से पहली बार इतना खुश कि सारे अभाव फीके लगने लगे। राकेश की हामी ने उसे लगभग जीवन-दान दे दिया था। लग रहा था, मैं किसी नीम बेहोशी में रसातल में चली गई थी और राकेश ने अचानक एक हाँ से मुझे उबार लिया है!
पर फूटा भाग्य पीछा छोड़ता भी कैसे!
खुशी में नहाए अभी चार दिन भी नहीं गुजरे थे कि एक दिन शाम को आलम अपने भाई, मौसी और एक-दो दोस्तों के साथ अचानक ऑटो से घर आ गया।
उसे देखते ही आरती थर-थर काँपने लगी।
पर उसके भयभीत दिल का कोई खयाल न कर, आलम की मौसी ने मिठाई का डिब्बा और साड़ी मम्मी की गोद में रख दी और रिश्ते की बात करने लगीं।
इस पर मम्मी एकदम उखड़ गईं। उन्होंने कहा, आप लोग कैसी बेतुकी बात करते हैं! हम अपनी लड़की को बिरादरी बाहर क्यों देंगे। क्या समाज में लड़के नहीं रहे? उसकी तो शादी की बात चल रही है, आप लोग जाइए।
आलम पूरी तैयारी से आया था। उसके भाई ने बैग से मम्मी को एक प्रमाण-पत्र निकाल कर दिखाते हुए कहा, ये देखो, इस पर कलेक्टर की मुहर और साइन हैं। इन दोनों के फोटो लगे हैं। ये शादी का प्रमाण-पत्र है। इन दोनों की कोर्ट-मैरिज हो चुकी है!
देखते-सुनते ही घर के होश उड़ गए।
मम्मी ने पछाड़ खाते हुए कहा, हाय-राम! इतनी बड़ी बात हो गई और बताया भी नहीं।
उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि ऐसा भी हो सकता है!
उसके होश तो पहले से ही उड़े हुए थे।
वह क्या करे! क्या नहीं? कुछ समझ नहीं आ रहा था।
दुख और पीड़ा से वह रोने लगी...।
खैर! उस दिन मम्मी ने उन्हें किसी तरह रवाना किया। पर घर में हंगामा मच गया कि ये क्या हो गया। ऐसा मातम छा गया, जैसे कोई गमी हो गई। दुख में विगलित मम्मी बार-बार यही कहतीं कि- पहले ही बता देती तो राकेश से बात ही न करते। अब राकेश को क्या जवाब देंगे।
खूब रोना-धोना चला।
पर उसकी एक ही रट कि- आलम से शादी नहीं करनी, तोड़ दो ये शादी।
मम्मी ने बहुत कहा कि जब शादी कर ही ली तो अब मना क्यों? पर वह इसी पर अड़ी रही कि- नहीं करनी...।
मम्मी को जब कुछ सूझा नहीं तो मामा को बुलाया गया। मामा को सारी बात बताई तो मामा ने भी यही कहा कि जब कर ही ली, बिना किसी को बताये तो अब क्या हुआ, अब तो निभानी ही पड़ेगी।
उन्होंने समझाया कि- कोर्ट मैरिज के बाद छोड़ने का कोई रास्ता नहीं, अब तो तलाक लेना होगा, फिर दुबारा कौन शादी करेगा, बाकी बहनों की शादी में भी परेशानी आएगी। जहाँ भी रिश्ते की बात की जाएगी वहाँ पहले बताना होगा। इससे अच्छा है जो कर लिया सो ठीक है, अब उसी को रहने दो।
मामा ने आलम से भी बात की और यही नतीजा निकला कि उसकी शादी आलम से ही होगी।
मतलब आलम से अब वह किसी तरह बच नहीं सकती। अब तो उसके पास बस एक ही रास्ता बचा था कि वह खुद जाकर आलम से मना करे!
सो घर से निकलती और आलम की दुकान पर पहुँच जाती, नहीं करनी! बहुत सख्त होती वह, पीछे न पड़ो, जहर खा लूँगी, तुम्हारे हाथ न आऊँगी!
वो मामा को फोन करता...
मामा समझाने आ जाते, मना क्यों कर रही हो?
जान आफत में पड़ गई थी।
इधर राकेश जब दुबारा घर आया तो सब की हालत खराब हो गई कि उससे क्या कहें! राकेश ने बताया कि वह अपने घर वालों से बात कर चुका है और घर वाले शादी के लिए राजी हैं। इसलिए बात आगे बढ़ाई जाए!
तब उसे किसी तरह सारी बात समझाई गई। इस पर वह भी बहुत गुस्सा हुआ कि मेरे साथ ये धोखा क्यों किया?
उसने आरती को बहुत बुरा-भला कहा।
घर में फिर तनाव का माहौल हो गया।
सब ने विचार करके निर्णय लिया की राकेश से बात की जाए, कि वो अगर छोटी बहन से शादी करने राजी हो जाए तो ठीक रहे। उससे रिश्ता भी बना रहेगा। उसके परिवार वालों को जवाब देने की समस्या नहीं रहेगी और साथ ही एक बेटी और निबट जाएगी।
यों योजना मुताबिक राकेश को समझाया गया। पर राकेश ने उसे पसंद किया था। वो उसकी छोटी बहन से शादी करने में हिचकिचा रहा था। लेकिन सबके समझाने पर मान भी गया। और ये तय हुआ की राकेश की शादी छोटी बहन मनीषा से होगी।
लेकिन अब, आरती की समझ से तो सब कुछ बाहर हो गया था। मन में खयाल आता कि इतना दुख सब को हो रहा है। इतना अपमान हो रहा है। मम्मी को सबको जवाब देना पड़ रहा है। राकेश को मजबूरी में बहन से शादी करनी पड़ रही है। इतना करके भी मैं सुख न पा सकूँगी, तब यह सब क्यों करना? पर रास्ता भी क्या। सोचा मर जाऊँ। पर मरने से मम्मी की बहुत बदनामी होगी। अभी तो इतना ही, लोग आगे और जाने क्या-क्या कहेंगे! शायद, पुलिस केस में सब फँस जाएँ। फिर कैसे मरूँ? फिर सोचा अगर बीमार हो जाऊँ और बीमारी से मरूँ तो कुछ नहीं होगा, कोई नहीं फँसेगा, कोई केस नहीं होगा।
उसके एक मित्र, जिनका मेडिकल स्टोर था, उनसे पूछा कि क्या वो कोई ऐसी दवा दे सकते हैं जिससे मैं दो दिन में बीमार हो जाऊँ। उन्होंने कहा, नहीं ऐसी कोई दवा वो नहीं देंगे। फिर उसने उनके अलावा कई जगह पता किया पर कोई ऐसी दवा नहीं मिली जो उसे बीमार कर देती।
जब कुछ न हो सका तो हार कर उसने चूहे मारने की कुछ पुड़ियाँ ले लीं। मन में योजना बनाई कि एक साथ खाने से पता चल जाएगा कि ये आत्म-हत्या है, पर अगर मैं ये जहर थोड़ा-थोड़ा करके लूँ तो मैं बीमार हो जाऊँगी और मर जाऊँगी। रात को उसने जहर की आधी पुड़िया चुपके से खाई! उसका स्वाद बहुत खराब था। उसे खाने के कुछ देर बाद पेट में जलन हुई। सोचा, चलो जहर ने असर किया। बीमार अपनी बीमारी से छुटकारा पाने के लिए सुबह शाम दवा खाता है! तो उसने भी जीवन से छुटकारा पाने सुबह शाम थोड़ा-थोड़ा जहर खाना शुरू कर दिया। यों तीन दिन में जहर की चार पुड़ियाँ निबटा दीं। पर कुछ भी हासिल न हुआ। मौत माँगे न मिली। पेट में जलन होती, घबराहट होती, और जहर पच जाता। न वह बीमार हुई, न मरी। मरती भी कैसे, जीवन पड़ा था भोगने, उसे भोगना ही था, सो कुछ नहीं हुआ।
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